किसी औरत की इज़्ज़त करना उसे ख़ूबसूरत कहने से ज़्यादा ख़ूबसूरत है
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किसी औरत की इज़्ज़त करना उसे ख़ूबसूरत कहने से ज़्यादा ख़ूबसूरत है

International Women's Day Special: औरत को मुहज़्ज़ब समाज में मुकम्मल आज़ादी और इज़्ज़त का दावा तो किया जाता है. लेकिन ये समाज भी औरत को उस वक़्त इज़्ज़त देता है जब वो अपने रूप के फ़्रेम से बाहर निकल कर अपनी ज़िम्मेदारी निभाती है.

प्रतीकात्मक फोटो

International Women's Day Special: औरत की ख़ासियत ये है कि वह हर रुप में ख़ूबसूरती के साथ ढल जाती है. मां है तो जन्नत, बेटी है तो रहमत, बहन है तो इज़्ज़त बीवी है तो मुहब्बत. दौरे जदीद में औरत इन तमाम किरदारों को अपने आंचल में समेट कर नयी तारीख़ रक़म कर रही हैं. अब वह घर तक ही महदूद नहीं रही बल्कि हर ज़िदंगी के हर शोबे में अपनी कामयाबी का परचम लहरा रही है. लेकिन इस तरक़्क़ी याफ़्ता दौर में भी औरतें के मामले हल नहीं हुए. पहले इसकी इज़्ज़त लूटी जाती थी एहसासे कमतरी का शिकार बना कर और आज इसका इस्तेहसाल होता है. आज़ादी की दवा सुंघा कर समाज नें आज़ादी का नारा तो दे दिया कि औरत आज़ाद है, औरत तरक़्क़ी की इस दौड़ में बराबर की शरीक है. लेकिन समाज में न तो औरतों को लेकर नज़र तब्दील हुई न नज़रिया. अगर इस दौर में भी दिल्ली में निर्भया का रेप और क़त्ल होता है, हैदराबाद की डॉक्टर बिटिया शिकार होती है, उन्नाव में बेटी जला दी जाती है तो काहे की आज़ादी और कैसा एहतेराम.

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के वादे और ज़मीनी हक़ीक़त
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (International Women's Day) 8 मार्च को मनाया जाता है. इस दिन का मक़सद मर्दों को ख़्वातीन की अहमियत से आगाह करना और लोगों में औरत पर उत्पीड़न और जुल्म की रोकथाम के लिए पहल करना है. दुनिया में सबसे पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 19 मार्च सन 1911 को मनाया गया फिर सन 1977 में संयुक्त राष्ट्र की जनरल एसेंबली ने यह बिल पास किया कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को हर साल बाक़ायदा तौर पर मनाया जाएगा. हर साल ये दिन आता है दुनियाभर में इस मौक़े पर सेमिनार, सिम्पोज़ियम, जलसे, कांफ़्रेंस, नशिस्तें और प्रोग्राम किए जाते हैं. हर साल यह अहद लिए जाते हैं और ये सिर्फ़ एक रिवायत और रस्म का हिस्सा बनकर रह गया है.

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समाज की सोच और औरत का मक़ाम
औरत को मुहज़्ज़ब समाज में मुकम्मल आज़ादी और इज़्ज़त का दावा तो किया जाता है. लेकिन ये समाज भी औरत को उस वक़्त इज़्ज़त देता है जब वो अपने रूप के फ़्रेम से बाहर निकल कर अपनी ज़िम्मेदारी निभाती है. वह मसनुई मर्द बनकर पूरे ख़ानदान का बोझ उठाती है. बड़ी मुशिकल होती है कि एक औरत की वाहवाही और तारीफ़ तब होती है जब वो बच्चों की परवरिश, अज़दवाजी ज़िंदगी, घरेलू ज़िम्मेदारियां निभाने के बाद घर की चारदिवारी को पार करके दफ़्तर का रुख़ करती है और घर के इख़राजात में शौहर का हाथ बंटाती है. हद तो ये हो गई कि अब लड़के वालों ने जहेज़ की शर्तें बदल दी हैं. अब शर्त भारी भरकम जहेज़ की नहीं होती, अब मांग पैसों और दौलत की नहीं होती अब तो मांग और शर्त ये है कि लड़की नौकरीपेशा हो, घर के ख़र्च में हाथ बटा सके, मैंने तो अक्सर देखा है कि शौहर निकम्मेपन में दिन गुज़ार देते हैं और बीवियां घरेलू ज़िम्मेदारियों के साथ दफ़्तर का बोझ उठाए हुए ज़िदंगी की गाड़ी चला रही हैं.

क्या औरतें आज भी अपना वजूद तलाश रही हैं?
आज जब हम आलमी यौमे ख़्वातीन मना रहे हैं तो इसका मतलब वाज़ेह है कि हमारे समाज में औरत को वो मक़ाम हासिल नहीं है जिसकी वो हक़दार है. जब हम ये कहते हैं कि बेटों के बराबर हैं बेटियां तो इसका मतलब भी है कि बेटियों को बराबरी का दर्जा देने की जद्दोजेहद जारी है. जब हम ये कहते हैं कि औरत आज़ाद है तो इसका भी मतलब यही है कि औरतों की आज़ादी की कोशिशें जारी हैं. जब हम ये कहते हैं कि बेटियों की तालीम में फ़र्क़ न बरता जाए तो इसका मतलब है कि फ़र्क़ अभी भी है. सदियों से ये सदा बलंद हो रही है लेकिन सवाल ये है कि लबों पर गूंजने वाले अल्फ़ाज़ दिलों और ज़ेहनों में कब बैठेंगे? कब सही मायनों में इत्मिनान, हिफ़ाज़त़, इज़्ज़त, एहतेराम, तौक़ीर और आज़ादी हासिल होगी?

पा बा गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त बस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन

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