जैसे ही बशीर बद्र सहाब को डिग्री मिली उसके बाद उनका चेहरा मासूमिसत से सराबोर था. उन्होंने फौरन डिग्री को गले से लगा लिया.
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पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी
आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते
शायर बशीर बद्र (Bashir Badr) साहब की कलम से लिखी इस शायरी का भाव आज के वक्त में चमक बन कर खुद बशीर बद्र की आखों में ज़िंदा हो उठा. मौका ही इतना यादगार था. यादें और गुजरे जमाने के लम्हे एक बार फिर जिंदा हो गए, झुर्रियों दार चेहरा खिलखिला उठा. वो भी तब जब बशीर बद्र की तबीयत आजकल नासाज है और यादाश्त भी कमजोर हो गई है.
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दरअसल अपनी शायरी से दिलों पर राज करने वाले बशीर बद्र को उनकी PHD की डिग्री मिल गई है. ज़हन में ये सवाल आना लाजमी है कि उम्र के इस पड़ाव में पीएचडी की डिग्री वो कैसे? दरअसल बशीर बद्र ने डॉक्टेरेट की उपाधि तो साल 1973 में ही हासिल कर ली थी लेकिन मसरुफियत और ज़ाती वुजूहात की वजह से कभी AMU डिग्री लेने नहीं आ सके. इतने सालों बाद आखिरकार AMU ने खुद PHD की डिग्री उनके घर भिजवा दी.
जैसे ही बशीर बद्र सहाब को डिग्री मिली उसके बाद उनका चेहरा मासूमिसत से सराबोर था. उन्होंने फौरन डिग्री को गले से लगा लिया. मानों यादों के झरोको से जिंदगी की किताब से एक पन्ना जो कही खो गया था. वो आंखों के सामने आकर ताजा कर रहा हो.
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दरअसल 1973 में शायर बशीर बद्र ने अपनी थीसिस एएमयू में समिट की थी. इसके बाद कभी डिग्री लेने नही आ सके. इसके बाद उनकी पत्नी ने कोशिश शुरु की. AMU के PRO की मदद से ये कोशिश रंग लाई. आखिरकार पीएचडी की डिग्री AMU ने डाक से घर भेजी. डिग्री हाथ में लेते ही शायर बशीर बद्र खिलखिला दिए.
आइए इस मौके पर उनके कुछ चुनिंदा अशआर (शेरों) से रूबरू कराते हैं.
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे