Zaheer Dehlvi: जरीर देहलवी की कई किताबें मशहूर हैं. उनमें में से 'दास्तान-ए-गदर' और '1857' बहुत मशहूर है. पढ़ें जरीर देहलवी के चुनिंदा शेर.
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Zaheer Dehlvi: जहीर देहलवी उर्दू के अच्छे शायर हैं. उनका असली नाम सय्यद जहीरुद्दीन हुसैन था. वह साल 1825 में पैदा हुए. जहीर देहलवी 'जौक' और 'ग़ालिब' के बाद की पीढ़ी के बहुत नुमायां शायर हैं. वह 'दाग' के वक्त के शायर हैं. जहीर 'जौक' के शार्गिद थे. वह बहुत कम उम्र के ही थे, तभी उन्हें लाल किले की नौकरी मिल गई थी. साल 1957 में उन्होंने दिल्ली छोड़ दिया और वह बरेली और रामपुर में आ गए. इसके अलावा वह अलवर, जयपुर और टोंक में रहे. अपने आखिरी दिनों में जहीर हैदराबाद में रहे. यहां साल 1911 में इंतेकाल कर गए.
बाद मरने के भी मिट्टी मिरी बर्बाद रही
मिरी तक़दीर के नुक़सान कहाँ जाते हैं
तुम ने पहलू में मिरे बैठ के आफ़त ढाई
और उठे भी तो इक हश्र उठा कर उट्ठे
पान बन बन के मिरी जान कहाँ जाते हैं
ये मिरे क़त्ल के सामान कहाँ जाते हैं
गुदगुदाया जो उन्हें नाम किसी का ले कर
मुस्कुराने लगे वो मुँह पे दुपट्टा ले कर
ऐ शैख़ अपने अपने अक़ीदे का फ़र्क़ है
हुरमत जो दैर की है वही ख़ानक़ाह की
आख़िर मिले हैं हाथ किसी काम के लिए
फाड़े अगर न जेब तो फिर क्या करे कोई
इश्क़ है इश्क़ तो इक रोज़ तमाशा होगा
आप जिस मुँह को छुपाते हैं दिखाना होगा
है लुत्फ़ तग़ाफ़ुल में या जी के जलाने में
वादा तो किया होता गो वो न वफ़ा होता
आज तक कोई न अरमान हमारा निकला
क्या करे कोई तुम्हारा रुख़-ए-ज़ेबा ले कर
है दिल में अगर उस से मोहब्बत का इरादा
ले लीजिए दुश्मन के लिए हम से वफ़ा क़र्ज़
है सैर निगाहों में शबिस्तान अदू की
क्या मुझ से छुपाते हो तमाशा मिरे दिल का
चाहत का जब मज़ा है कि वो भी हों बे-क़रार
दोनों तरफ़ हो आग बराबर लगी हुई
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