डियर जिंदगी : माता-पिता के आंसुओं के बीच 'सुख की कथा' नहीं सुनी जा सकती...
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डियर जिंदगी : माता-पिता के आंसुओं के बीच 'सुख की कथा' नहीं सुनी जा सकती...

बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा और संस्कार पर बहुत गंभीरता से विचार की जरूरत है. अगर इस पर समय रहते संशोधन नहीं हुआ तो हम बुजुर्गों की एक ऐसी दुनिया बना देंगे, जहां तनाव, डिप्रेशन और उदासी के घाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा. और यह जरूर याद रहे कि हम इस दुनिया से बहुत दूर नहीं होंगे!

डियर जिंदगी : माता-पिता के आंसुओं के बीच 'सुख की कथा' नहीं सुनी जा सकती...

नोएडा में एक मां को बेटे का 'समय' मिलना तब तक संभव नहीं हुआ, जब तक उसकी सांस की डोर थम नहीं गई. मां की मिन्नत, उसकी आखिरी आरजू पूरी न हो सकी. बेटा हर महीने पैसे तो पेटीएम करता रहा, लेकिन मां से मिलने का वक्त उसे सालभर से नहीं मिल पा रहा था. मां के प्रति क्या कैसा भाव था! कभी-कभी ऐसा होता है, हम किसी से बहुत नाराज हो जाते हैं लेकिन जैसे ही पता चलता है 'वह' बीमार है, मनोदशा बदल जाती है. मन में ख्याल आता है चलो मिल आते हैं, जैसा भी है, कभी तो अपना था!

बेटे के मन में इतनी निष्ठुरता कहां से आई! ऐसी कौन सी शिक्षा, संगत, संस्कार उसे मिल गए जो उसके मन में मां के प्रति इतनी कठोरता भर गए.

हम जब अखबार, सोशल मीडिया और टीवी पर ऐसी खबरें देखते हैं तो सोचते हैं, हमें क्या! हो रहा होगा कहीं दुनिया में यह सब! हम तो इन सबसे बहुत दूर हैं. हमारी दुनिया भली है और बच्चे उससे भी भले हैं.

नोएडा की यह मां सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से है. हम कह सकते हैं कि वह अपने अधिकार, व्यवहार के प्रति सतर्क नहीं रही होगी! लेकिन रेमंड जैसी बड़ी और प्रतिष्ठित कंपनी के चेयरमैन रहे विजयपत सिंघानिया तो पर्याप्त 'दुनियादार' आदमी हैं. उन्हें तो दुनिया की अच्छी समझ होनी चाहिए थी कि पूरी दुनिया में कारोबार के नियम कैसे होते हैं. परिवार में होने वाले व्यापार के दंगल कैसे होते हैं, फिर भी वह कैसे अपने ही बेटे गौतम सिंघानिया से सबकुछ हार गए. 

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विजयपत ने 3 साल पहले बेटे गौतम को अपने हिस्से के 1000 करोड़ शेयर दे दिए थे. उसके कुछ समय बाद ही बेटे ने पिता विजयपथ से सबकुछ छीनकर उन्हें पाई-पाई का मोहताज बना दिया. उनके पास कार और ड्राइवर तक नहीं बचा. 7100 करोड़ के तीस मंजिला मकान को छोड़कर विजयपथ किराए के सामान्य मकान में रह रहे हैं.

कुछ समय पहले गौतम ने कहा था पिता को वक्त के साथ आदतें बदलनी होंगी. अब उन्होंने पिता को मानद चेयरमैन पद से हटाए जाने के बाद कहा है कि वह पिता के व्यवहार से दुखी हैं.

यह कहानी देश के सबसे अमीर उद्योग घरानों में से एक उस सिंघानिया परिवार की है, जिसके रुपयों का हिसाब रखने के लिए न जाने कितने सीए और अन्य प्रशिक्षित पेशेवर रखे गए होंगे! उस परिवार के पिता आज अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

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तो एक तरफ ऐसी मां है, जिसका बेटा रकम देकर अपने कर्तव्य पूरे मान लेता है. मां की मिन्नतें अनसुनी कर देता है तो दूसरी ओर ऐसा बेटा है जिसके पास अकूत संपदा है, लेकिन वह पिता को उनकी हैसियत के अनुसार 'सामान्य' सुविधा देने से भी इंकार कर देता है.

दोनों ओर एक ऐसी कठोरता है, जो हमारे आसपास बढ़ती ही जा रही है. हम कठोरता की नई-नई कहानियां सुनते हैं, करवट बदलते हैं और खर्राटे लेने लगते हैं! यह मानते जानते, यकीन करते हुए कि हमें क्या! हमारे बच्चे तो भले हैं!

ठीक है हमारे बच्चे भले, लेकिन हम जिनके बच्चे हैं उनके प्रति हम कितने 'भले' हैं! हम सबको इस बात पर सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत है कि हमारा अपने बड़े, बुजुर्ग के प्रति आचरण कैसा है.         

हम अपने बच्चों के तो 'भले' व्यवहार की संभावना से भरे बैठे हैं, लेकिन बुजुर्गों की ओर से हमारा ध्यान हटा हुआ है.

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सरकार धीरे-धीरे सामाजिक सुरक्षा से अपने हाथ पीछे खींचे जा रही है. पेंशन खत्म, रिटायरमेंट के बाद कोई आर्थिक आधार, सहारा नहीं!

20 साल बाद हमारे आसपास करोड़ों की संख्या में ऐसे बुजुर्ग होंगे जिनके पास लगभग शून्य आर्थिक संबल होगा! पेंशन और सामाजिक सुरक्षा योजना के अभाव में बुजुर्ग कैसा जीवन जिएंगे यह अनुमान लगाना कोई बहुत कठिन काम नहीं है. ऐसे में एकमात्र सहारा परिवार होता है. 

आज से बीस साल पीछे जाकर देखें, साधन कम थे, चीजें कम थी. लेकिन रिटायरमेंट के बाद का तनाव इतना अधिक नहीं था. कम से कम ऐसे लोगों के पास जो किसी न किसी रूप में सरकारी सेवा से जुड़े थे.

धीरे-धीरे सरकार कब लोक कल्याणकारी से बिजनेसकारी हो गई, पता ही नहीं चला! राजनीति में उलझ रहे हैं और अर्थनीति ने धीरे से हमारा आधार ही खिसका दिया.

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परिवार मनुष्य का सबसे सुरक्षित और निश्चित आश्रय होता है. जब वहां उम्र के आधार पर आपकी जरूरत है तय होने लगेगी, तो बुजुर्ग और डस्टबिन की हैसियत में डस्टबिन के बचे रहने की अधिक संभावना हो जाएगी!

अब हम ऐसे समय के बहुत करीब आ गए हैं जहां बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा और संस्कार पर बहुत गंभीरता से विचार की जरूरत है. अगर इस पर समय रहते संशोधन नहीं हुआ तो हम बुजुर्गों की एक ऐसी दुनिया बना देंगे जहां तनाव, डिप्रेशन और उदासी के घाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा. और यह जरूर याद रहे कि हम इस दुनिया से बहुत दूर नहीं होंगे...

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