डियर जिंदगी : ‘रंग’ कहां गया, कैसे आएगा…
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डियर जिंदगी : ‘रंग’ कहां गया, कैसे आएगा…

हम समाज के रूप में हमेशा अपने पड़ोसी के प्रति सजग, उसे साथ लेकर चलने वाले रहे हैं. हम सदियों से अविश्‍वसनीय विविधता के बाद भी एक रसरंगी समाज के रूप में रह रहे हैं.

डियर जिंदगी : ‘रंग’ कहां गया, कैसे आएगा…

जिंदगी का सबसे बड़ा पर्यायवाची क्‍या है? आनंद, सुख की कामना, संघर्ष या महत्‍वाकांक्षा या कुछ और! जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं. इस प्रश्‍न के अपने-अपने उत्‍तर हो सकते हैं. हर जवाब के पक्ष में एक से बढ़कर एक गहरे तर्क हैं, लेकिन इन सारे जवाबों के साथ जो एक बात सबमें लागू होती है, वह है, जीवन में रस के रंग का होना. रस’रंग’ के बिना जिंदगी कैसे स्‍वादहीन हो सकती है, इसके प्रमाण के लिए सबूत खोजने बहुत दूर तक जाने की जरूरत नहीं है, सबकुछ हमारे आसपास ही बिखरा पड़ा है.

रिश्‍तों से प्रेम, अपने वायदों से यकीन, जिंदगी से स्‍नेह और आनंद जिस तरह कम हो रहा है, वह उस जीवन के लिए ही सबसे अधिक मुश्किल पैदा करने वाला साबित हो रहा है, जिसके लिए हम सबसे अधिक संघर्ष कर रहे हैं. भारत की पहचान एक ऐसे देश के रूप में है, जहां लोग रिश्‍तों के प्रति बहुत संवेदनशील और समर्पित रहे हैं.

डियर जिंदगी : सुख और स्मृति का कबाड़

हम समाज के रूप में हमेशा अपने पड़ोसी के प्रति सजग, उसको साथ लेकर चलने वाले रहे हैं. हम सदियों से अविश्‍वसनीय विविधता के बाद भी एक रसरंगी समाज के रूप में रह रहे हैं. एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने की चाहत, एक-दूसरे के सहअस्तित्‍व को स्‍वीकार करने की हमारी योग्‍यता, क्षमता बेमिसाल रही है.

सहअस्त्वि की भावना केवल थ्‍योरी\किताबी बात नहीं है. यह कठिन परिस्थितियों में एक-दूसरे का साथ देने की सबसे अनूठी भावना है. यह बहुत पुरानी बात नहीं है. एक दशक पुराना किस्‍सा ही है, जिसे आप आर्थिक मंदी के नाम से जानते हैं. यह दुनियाभर में अपना असर दिखाने के बाद भी भारत में उतना प्रभाव नहीं दिखा सकी थी.

इसके प्रमुख कारण इस प्रकार थे..

1. भारत उस समय तक काफी हद तक संयुक्‍त परिवार के मॉडल में था. परिवार एक-दूसरे की मदद साथ रहते हुए और न रहते हुए भी कर रहे थे, क्‍योंकि मूल भावना ‘एक’ होने की थी. एक-दूसरे के साथ बढ़ने की थी, एक-दूसरे के अस्तित्‍व को स्‍वीकार करने से अधिक उसके लिए संघर्ष करने की थी.

2. हम खर्च करने के मामले में मितत्‍वययी थे. यहां ध्‍यान रहे कि हम कंजूस नहीं थे, लेकिन हम जरूरत का निर्धारण पहले बचत के सिद्धांत पर करते थे. इस तरह हमारे पास कुछ समय के लिए स्‍टॉक जरूर होता था.

3. हम एक-दूसरे की मदद करने में उदार, स्‍नेही और आत्‍मीय थे. एक-दूसरे से कही बातों को निभाने का हुनर और हौसला रखते थे.

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लेकिन आज 2018 में सबकुछ उलट गया है. संयुक्‍त परिवार एक रहते हुए भी स्‍वतंत्र भावना से भरे हुए हैं. अब परिवार का अर्थ बहुत हद तक पति-पत्‍नी और बच्‍चे हो गए हैं. यानी परिवार के भीतर ही एक-दूसरे के लिए सहयोग बहुत कम हो गया है. इसने हमें असुरक्षा की भावना से भर दिया है. हम निरंतर डरे रहते हैं. डरकर खूब सारा काम करने की कोशिश करते हैं. यह भूल जाते हैं कि डरे हुए लोग कुछ नया और रचनात्‍मक नहीं कर सकते.

हम बेहिसाब खर्च किए जा रहे हैं. डेबिट से लेकर क्रेडिट कार्ड तक हमारी हसरतों की भरपाई कर पाने में असफल रहे हैं. कर्ज के मर्ज ने भारतीयों की कुछ नया सोचने, जोखिम उठाने की क्षमता को खोखला कर दिया है. और अंत में उस रस का जिक्र जो भारतीय जीवनशैली की आत्‍मा था. आत्‍मीयता, स्‍नेह और सबके लिए प्रेम. यही वह रस है, जो निरंतर कम हो रहा है. एक-दूसरे की मदद करते समय जरूरत से ज्‍यादा ‘गणित’ का उपयोग करते समय हम अपने ही विरुद्ध योजना पर काम करते जा रहे हैं.

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इसलिए, इस सप्‍ताह अवकाश के दिन में से कम से कम रविवार का एक घंटा इस पर खर्च करिए कि जीवन में रस का अधिक से अधिक संचार कैसे किया जा सकता है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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