घर पर टीवी देखना, अकेले में लैपटॉप पर फिल्म देखना. मोबाइल पर चैटिंग करना यह खुद के लिए दिया गया समय नहीं है. यह खुद को दिया गया समय भी नहीं है. स्वयं को दिया गया समय, तो केवल वह है, जिसमें आप खुद से संवाद करें. खुद से बात करें. अपने मन के दर्पण के सामने अपना 'रिव्यू ' करें.
Trending Photos
चलो, अगले रविवार को मिलते हैं. मिलने के बाद हम यही बात करते थे अब अगले सोमवार, रविवार को कहां मिलना है. कुछ ही बरस पहले हमारी जिंदगी लगभग इसी तरह मजे़ में गुजर रही थी. यहां हमारी के मायने उन सबसे है, जो जिंदगी को मजे में जीते हैं. जिनके लिए आनंद का भी उतना ही मोल है, जितना महीने की आखिरी तारीख के 'SMS' का.
मिलना, बार-बार मिलना, मिलते ही रहना भारतीय जीवन में मोबाइल आने के पहले तक बहुत जरूरी काम था. इसके बिना जिंदगी को महसूस करना ही संभव नहीं था. मिलने से, निरंतर संवाद से हमने परिवार, रिश्तों की टूटन को बिखरते, तनाव के बांध को बनने से पहले टूट जाते देखा था.
ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी: कौन है जो अच्छाई को चलन से बाहर कर रहा है…
एक समाज के रूप में हम तनाव के जिंदगी में प्रवेश के साक्षी हैं. ऐसा नहीं है कि पहले तनाव नहीं था. लेकिन वह ऐसा तो कम से कम नहीं था. जैसा आज है. जैसा अभी है. बहुत गहराई से सोचने के बाद इस फैसले पर पहुंचा हूं कि मैं साल में कुछ वक्त ऐसे बुजुर्गों की छांव में बिताऊंगा. जो अस्सी पार होने के बाद भी पूरी तरह स्वस्थ, मजे में बिना तनाव के जिंदगी का स्वाद ले रहे हैं. यहां स्वाद से यह न समझें कि उनके पास अकूत बैंक बैलेंस है. उनके पास अगर कुछ है तो केवल वह हुनर जिससे तनाव दो मिनट में छूमंतर हो जाता है.
ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी: आक्रामक होने का अर्थ...
तभी तो अस्सी-नब्बे बरस के बुजुर्ग के सामने आज चालीस बरस का व्यक्ति भी उन्नीस ही साबित हो रहा है. खुद को स्वस्थ रखने के लिए, दिमागी तौर पर फिट रखने के लिए किसी साधन से अधिक जरूरत एक ऐसे तनावरहित दिल, दिमाग की होती है, जिसमें कम से कम जाले लगे हों. एक निर्मल, साफ दिमाग सुनने में साधारण लगता है, लेकिन यह दुर्लभ है. हमारे दिल-दिमाग में तनाव, दुख, चिंता के जाले ही अस्वस्थ और अप्रसन्न मन का कारण हैं. ऐसा मन ही डिप्रेशन, तनाव का सबसे बड़ा केंद्र है.
एक मित्र हैं. खुद को गर्व से चौबीस घंटे सक्रिय रहने वालों में बताते हुए उनके चेहरे पर प्रसन्नता का पोस्टर चिपका रहता है. उनके पास सबके लिए वक्त है. सोशल मीडिया के लिए शायद सबसे अधिक. एक दिन मैंने उनसे यूं ही कहा, 'आप खुद को कितना वक्त देते हैं!' उन्होंने दो दिन बाद कहा, 'मैं इस बारे में सोचूंगा.' मुझे नहीं पता, वह ऐसा करेंगे या नहीं. लेकिन ऐसा करना कितना जरूरी है, शायद उनके मन में यह बात आ गई है.
और आपके! अगर आपकी जीवनशैली भी इसी तरह काम-काम और काम से घिरी है. हर समय आप दुनिया के संपर्क में रहने के लिए बेचैन हैं तो यकीन मानिए, आपका स्वयं से संपर्क टूटना तय है. जो खुद को गंभीरता से नहीं लेगा, जिसके पास खुद के लिए समय नहीं होगा, उसके लिए दूसरे कहां से वह समय लाएंगे, जो उसे असल में चाहिए.
ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : बंद दरवाजा…
बीबीसी ने कुछ समय पहले एक अध्ययन में बताया था, 'अगर कोई शख़्स दो घंटे या इससे ज़्यादा वक़्त सोशल मीडिया पर गुजारता है, तो आगे चलकर वो डिप्रेशन का शिकार हो जाता है, जज़्बाती तौर पर अकेलापन महसूस करता है.सोशल मीडिया पर हमेशा/देर तक डटे रहने की वजह से सेहत पर बुरा असर पड़ता है. देर रात तक ट्विटर या फेसबुक देखते रहने से हमारी नींद पर बुरा असर पड़ता है.'
ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : विश्वास में कितना विश्वास…
घर पर टीवी देखना, अकेले में लैपटॉप पर फिल्म देखना. मोबाइल पर चैटिंग करना यह खुद के लिए दिया गया समय नहीं है. यह खुद को दिया गया समय भी नहीं है. स्वयं को दिया गया समय, तो केवल वह है, जिसमें आप खुद से संवाद करें. खुद से बात करें. अपने मन के दर्पण के सामने अपना 'रिव्यू ' करें. इस रिव्यू में तनाव, चिंता को बहा दें. जो खुद को समय नहीं दे रहे, वह निरंतर उसी बीमारी की ओर बढ़ रहे हैं, जिसका नाम डिप्रेशन, तनाव है, और परिणाम दुख की गहरी छाया और आत्महत्या तक जा सकता है.
सभी लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें : डियर जिंदगी
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
(https://twitter.com/dayashankarmi)
(अपने सवाल और सुझाव इनबॉक्स में साझा करें: https://www.facebook.com/dayashankar.mishra.54)