वह सभी लोग जिनके विवाह को पांच, दस, बीस बरस या इससे अधिक हो चुके हैं. उनका इस बात से असहमत होना मुश्किल दिखता है कि एक-दूसरे के बारे में शायद ही कोई बात हो जो वह न जानते हों. इस सबकुछ जान लेने की इतनी बड़ी कीमत हम चुका रहे हैं, जिसका शायद ही हमें अंदाजा हो! एक-दूसरे के प्रति सबकुछ जान लेने का परिणाम ही है, बोरियत!
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अपरिचित होने में क्या आनंद है! यह परिचित नहीं समझ सकते. वह भी ऐसे परिचित जो दस, बीस बरस पुराने हो चले हों. अपरिचित के मायने, दोनों के भीतर एक-दूसरे को जानने की तीव्र लालसा. कितना जान लें, हम एक-दूसरे को उतना ही कम लगता है. जब तक हम अनजाने हैं, रिश्तों का स्वाद ही कुछ और है. जैसे-जैसे एक दूजे को जानने के करीब आते जाते हैं, चीजें मुश्किल होती जाती हैं.
'डियर जिंदगी' के पहले लेख से लेकर अब तक लगभग हर अंक पर प्रतिक्रिया देने वाली लखनऊ की सजग पाठक छाया त्रिपाठी लिखती हैं, 'कितना अच्छा था, जब मैं और मेरे पति अजनबी थे! हम एक-दूसरे के बारे में जानने को उत्सुक रहते थे. एक-दूसरे को खुश रखने की चेष्टा करते. एक-दूसरे की प्रसन्नता को अपना बनाने की कोशिश में बेचैन थे. लेकिन अब, जबकि हमें साथ आए दस बरस हो चुके हैं. लगता है, हम एक-दूसरे को परिचित होने की सज़ा दिए जा रहे हैं. यह कैसी जिंदगी है.'
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वह सभी लोग जिनके विवाह को पांच, दस, बीस बरस या इससे अधिक हो चुके हैं. उनका इस बात से असहमत होना मुश्किल दिखता है कि एक-दूसरे के बारे में शायद ही कोई बात हो जो वह न जानते हों. इस सबकुछ जान लेने की इतनी बड़ी कीमत हम चुका रहे हैं, जिसका शायद ही हमें अंदाजा हो! एक-दूसरे के प्रति सबकुछ जान लेने का परिणाम ही है, बोरियत!
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परिचितों का आलम यह है कि एक-दूसरे से भरे बैठे हैं. मन ही मन. एक-दूसरे को कोसते हुए. अरे! यह भी कोई आदमी है. अरे! यह भी कोई औरत है! जिंदगी में एकरसता, बोरियत और सब कुछ तय होते रहने के कारण हम असल में 'मशीन' हो गए हैं. मनुष्य से मशीन होने की गति धीमी थी, लेकिन अंतर्मन के इतने नजदीक थी कि यह जान पाना ही मुश्किल था कि हमारे ही भीतर कुछ ऐसा घट रहा है, जिसकी सबसे बड़ी कीमत खुद हमें ही चुकानी होगी.
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उदासी, गहरी चिंता से होते हुए, एक-दूसरे के प्रति अनुराग खत्म हुए रिश्ते डिप्रेशन की ओर बढ़ रहे हैं. हम मूल समस्या को समझने की जगह समस्या की पूंछ से चिपके हुए हैं. हम जड़ पर ध्यान देने की जगह तनों के आकार-प्रकार पर बहस में उलझे हुए हैं. भारतीय समाजकी संरचना कुछ ऐसी है कि लोग एक-दूसरे से आसानी से अलग होने का साहस नहीं कर पाते. लेकिन इससे कुछ खास लाभ नहीं, क्योंकि साथ रहने का मतलब 'एक' साथ रहना है, एक जगह रहना नहीं.
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संयोगवश भारतीय दंपति अपने मनमुटाव को खत्म करने की जगह बहुत तेजी से बस किसी तरह एक साथ रहने, रिश्ते निभा लेने के संघर्ष में लगे हुए हैं. रिश्तों के नवजीवन की ओर हमारा ध्यान नहीं है. रिश्तों का सफर कैसे सुहाना बने, इसकी जगह हम तो बस इस तरह जिए जा रहे हैं कि समाज, घर-परिवार को लगे कि सब ठीक है. कितनी मजेदार बात है कि हम दूसरों को ठीक लगने के लिए 'अपने' बीच ठीक होने का अभिनय पूरी क्षमता से कर रहे हैं.
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इसलिए, मैं बस इतना अनुरोध करना चाहता हूं कि अपने रिश्ते भले ही वह पति-पत्नी, दोस्त, भाई-भाई, माता-पिता के क्यों न हों, उसमें कुछ नवीनता का प्रयास जरूर करें. रिश्तों में स्नेह, प्रेम के साथ एक-दूसरे के प्रति कुछ नया जानने का नजरिया असल में वह हवा-पानी है, जिससे उनकी जड़ों को संजीवनी मिलती है. तो सब कुछ जान चुके लोग जितनी जल्दी अनजान बनने की ओर निकलें, उतना ही अच्छा होगा!
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