डियर जिंदगी : निराशा केवल एक बीमारी है!
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डियर जिंदगी : निराशा केवल एक बीमारी है!

अगर आपको याद हो तो 'डियर जिंदगी' के एक अंक में हमने दीपिका पादुकोण के डिप्रेशन में जाने और निकलने का विस्‍तार से जिक्र किया था. जिसमें इस बात पर संवाद किया गया था कि कैसे प्रसन्‍न, लोकप्रिय और सफल लोग भी निराशा का शिकार हो सकते हैं. जबकि समाज में सामान्‍यत: बाहर से दुखी, उदास व्‍यक्ति को ही परेशान मानने का 'चलन' है.

डियर जिंदगी : निराशा केवल एक बीमारी है!

सुंदर दिखना एक भाव है. इसमें भला कैसी बुराई. एक निजी भावना है. लेकिन इसका कितना संबंध बाह्य है और कितना आंतरिक यह जरूर संवाद का विषय है. शहर से लेकर गांव तक में सुंदर 'करने और होने में' मददगार का दावा करने वालों की बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है. चारों तरफ यही नारा है, आइए, आपको सुंदर बनाएं. इसमें जितना भी निवेश करना है, जो लोग कर सकते हैं, उसके लिए तैयार बैठे हैं.

सबका जोर केवल और केवल बाहरी चीजों पर है. कभी आपने किसी को यह बात करते सुना है कि मैं जरा भीतर से परेशान हूं! मैं अपने मन/दिमाग/ सोचने का इलाज करवाना चाहता/चाहती हूं. इस तरह के संवाद करने वालों का देश में अकाल है.

जाहिर है, जब प्रश्‍न ही नहीं है, तो उत्‍तर कहां से होगा. हम अंदर के प्रश्‍नों को हर दिन दोगुनी गति से 'इग्‍नोर' कर रहे हैं. यह इग्‍नोर करना असल में दिमाग में कचरा समेटने जैसा है. इसकी गंभीरता 'आत्‍महत्‍या और डिप्रेशन' के बढ़ते संकट से सहज समझी जा सकती है.

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अपने देश में अगर किसी को ऐसी सलाह दी भी जाए तो वह खतरे से खाली नहीं है. हमारे एक मित्र के साथ कुछ ऐसा ही कुछ हुआ. वह मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं. वह मन से जुडे़ विषयों, मनोविकार, बच्‍चों के विकास और उनकी आदतों पर गहरी पकड़ रखते हैं. पिछले दिनों उन्‍होंने अपने नए घर में गृह प्रवेश किया.

सबकुछ ठीक ही चल रहा था कि उन्‍होंने पड़ोसी को बेहद विनम्रता से बताया, 'आपका बच्‍चा किसी उलझन में दिखता है. लगता कि वह मानसिक रूप से कुछ परेशान है. आपको उसे किसी मनोचिकित्‍सक को दिखाना चाहिए.' दिलचस्‍प बात यह हुई कि उन्‍होंने एक ऐसे बच्‍चे के बारे में यह सलाह दी जो स्‍कूल के साथ दूसरे इवेंट में भी शानदार प्रदर्शन कर रहा था.

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बच्‍चे की मां ने उनकी बात पर गंभीरता से विचार करने की जगह उनको जमकर खरी खोटी सुना दी. उन पर पड़ोसी के बच्चे से ईर्ष्‍या, उसे पागल कहने के आरोप लगे. इस बिन मांगी, लेकिन सरोकारी सलाह ने एक अनचाहा संकट पैदा कर दिया. ऐसा संकट जिसने वहां उनका रहना, कम से कम कुछ दिनों के लिए तो मुश्किल ही कर दिया.

अगर आपको याद हो तो 'डियर जिंदगी' के एक अंक में हमने दीपिका पादुकोण के डिप्रेशन में जाने और निकलने का विस्‍तार से जिक्र किया था. जिसमें इस बात पर संवाद किया गया था कि कैसे प्रसन्‍न, लोकप्रिय और सफल लोग भी निराशा का शिकार हो सकते हैं. जबकि समाज में सामान्‍यत: बाहर से दुखी, उदास व्‍यक्ति को ही परेशान मानने का 'चलन' है, अगर बाहर सब ठीक है, तो भीतर की ओर कोई झांकता ही नहीं. दीपिका पादुकोण इस मामले में भाग्‍यशाली रहीं कि उनकी मां ने उनके बाहरी आचरण पर न जाकर, उनके भीतर झांका और उन्‍हें समय रहते संभाल लिया.

दुर्भाग्‍य से जिस परिवार का हम यहां जिक्र कर रहे हैं. उन्‍होंने किसी के बताने के बाद भी डिप्रेशन, निराशा की ओर बढ़ते बच्‍चे पर ध्‍यान नहीं दिया. इस बीच कुछ महीनों में ही प्रोफेसर की बात का असर दिखने लगा. इसे उस बच्‍चे के लिए वरदान ही माना जाएगा कि उसके पिता तुरंत प्रोफेसर के पास पहुंच गए. उनसे क्षमा मांगी. बच्‍चे के बारे में उनकी सलाह पर अमल करते हुए उसे शीघ्रता से डॉक्‍टर के पास ले गए.

जहां से पता चला कि बच्‍चा धीरे-धीरे 'ब्‍लू -व्‍हेल' के चक्रव्‍यूह में फंस रहा था. वह उस खेल में बहुत अंदर तक चला गया था. इस बीच वह बाहरी तौर पर ठीक प्रदर्शन कर रहा था, इसलिए प्रोफेसर की पारखी नजर के अलावा किसी का ध्‍यान उस ओर नहीं गया.

इसलिए, अगर आपसे कोई परिवार के बच्‍चे, बड़े किसी के बारे में भी निराशा, अवसाद, उदासी के गहरे लक्षण दिखने की बात करे, तो इसे अन्‍यथा लेने की जगह सद्भावना से ग्रहण करिए. समस्‍या पर ध्‍यान दीजिए न कि दूसरे को कोसने पर. इससे आपका भला ही होगा, और कुछ नहीं.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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