डियर जिंदगी: क्‍या, हमारे बच्‍चों का स्‍कूल भी ऐसा ही है!
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डियर जिंदगी: क्‍या, हमारे बच्‍चों का स्‍कूल भी ऐसा ही है!

स्‍कूल कर क्‍या रहे हैं. बच्‍चों की कॉपियों में स्‍कूल के शिक्षक बच्‍चों के बारे में इस तरह के रिमार्क लिख रहे हैं, जिनका बच्‍चों पर बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर पड़ रहा है.

डियर जिंदगी: क्‍या, हमारे बच्‍चों का स्‍कूल भी ऐसा ही है!

वह सभी स्‍कूल जिनमें प्रवेश के लिए अनेक प्रकार के 'जतन' किए जाते हैं, अपने बच्‍चों को संतुलित, सही शिक्षा के अलावा ज्‍यादातर चीजें सिखा रहे हैं. होमवर्क के साथ बच्‍चों को 'मल्‍टीटॉस्कर' बनाने की धुन में वह सभी बातें, चीजें बहुत पीछे छोड़ दी गई हैं, जो स्‍कूल की बुनियाद होती हैं.

मिसाल के लिए नैतिक शिक्षा को धीरे-धीरे गायब कर दिया गया. माता-पिता के पास बच्‍चों के बारेमें स्‍कूल से बात करने के लिए इतना कम समय दिया जाता है, कि वह जब तक खुद को संभालते हैं, समय कम पड़ जाता है. बच्‍चों का कहना है कि अगर वह किसी भी विषय में कमजोर हैं, तो स्‍कूल उन पर काम करने की जगह सारी जिम्‍मेदारी अभिभावकों की ओर बढ़ा देते हैं.

स्‍कूल कर क्‍या रहे हैं. बच्‍चों की कॉपियों में स्‍कूल के शिक्षक बच्‍चों के बारे में इस तरह के रिमार्क लिख रहे हैं, जिनका बच्‍चों पर बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर पड़ रहा है. कभी शिक्षक कमजोर बच्‍चे को यह कहकर हौसला देते थे कि तुम इस विषय में कमजोर हो, पर इन विषयों में तुम सबसे आगे हो. अब स्थिति यह है कि अगर बच्‍चा किसी एक चीज में भी कमजोर है तो उसके भविष्‍य पर ही सवाल खड़े कर दिए जाते हैं.

स्‍कूल बच्‍चों की मन:स्थिति को बेहतर बनाने की जगह हैं. मनोबल और हौसला देने वाले बरगद हैं. लेकिन इन दिनों बच्‍चों को वहां से होमवर्क के बोझ, डर के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है.

बच्‍चों की प्रतिभा को समझने उसे संवारने वाली जगह का नाम स्‍कूल होता है. न कि उसे बिना समझे ऐसी चीजों में झोंक देने का जहां से उसे कोई रास्‍ता मिलना ही मुश्किल हो जाए. इस विषय पर हम पहले भी विस्‍तार से चर्चा कर चुके हैं कि स्‍कूल कैसे धीरे-धीरे रटंतू तोते बेचने वाली दुकान बनकर रह गए हैं. वह बच्‍चों के लिए अब सबसे सुरक्षित, सही समझ देने वाली जगह नहीं बचे.

इस बार मैं आपके लिए एक छोटी सी कहानी 'स्‍कूल: जानवरों का' लेकर हाजिर हुआ हूं. इसे आपने पहले भी पढ़ा होगा. मुझे इसके लेखक की जानकारी नहीं, लेकिन जो भी रहा होगा, बच्‍चों की चिंता में ही घुला जाता रहा होगा.

इसे पढ़ें और समझें कि क्‍या यह हमारे लिए ही है! क्‍या हमारे बच्‍चे भी किसी ऐसे स्‍कूल में फंस गए हैं...

एक बार जानवरों ने तय किया कि वे तेजी से बदलती दुनिया में खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रशिक्षण को बेहतर बनाएंगे. इसके लिए जानवरों ने एक स्‍कूल खोलने का निर्णय लिया. जानवरों ने अपना एक सिलेबस बनाया. जिसमें दौड़ने, चढ़ने और तैरने यहां तक कि उड़ने के कोर्स भी शामिल किए गए. पाठ्यक्रम पढ़ाने में आसानी रहे, इसलिए सारे जानवरों के लिए सभी विषय अनिवार्य कर दिए गए.

बतख तैरने में बेहद तेज थी. वह तो अपनी ट्रेनर मछली से भी कहीं तेजी से तैर लेती थी. लेकिन उड़ने में उसे केवल पास होने लायक नंबर ही मिले. और दौड़ने में तो वह पहले से ही कुछ कमजोर थी. वह दौड़ने में कमजोर होने के कारण स्‍कूल खत्‍म होने के बाद भी एक्स्ट्रा क्‍लास के लिए रुकती थी और उसे तैरना छोड़कर दौड़ने का अभ्‍यास कराया जाता था. यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक उसके पैर बुरी तरह से खराब नहीं हो गए. इस तरह वह तैरने में भी औसत बनकर रह गई. स्‍कूल ने इस प्रदर्शन पर रोष जाहिर करते हुए उसके करियर को लेकर गहरी चिंता व्‍यक्‍त की.

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दूसरी ओर खरगोश दौड़ने में होशियार था. लेकिन तैरने का नाम सुनते ही उसे चक्‍कर आने लगते थे. इसलिए उसे भी अपनी शिक्षा के प्रति सतर्क रहने का नोटिस दिया गया. गिलहरी पेड़ पर चढ़ने में सबसे आगे थी, लेकिन उसके ट्रेनर का जोर उसे जमीन पर चलने में आगे रहने पर रहता था. इसलिए गिलहरी जल्‍द ही बीमार पड़ गई और उसे चढ़ने के साथ ही जमीन पर दौड़ने में भी बहुत ही खराब नंबर मिले. इससे उसका आत्‍मविश्‍वास कमजोर पड़ गया.

इस तरह जंगल में मौजूद अधिकांश ऐसे जानवरों का मनोबल कमजोर हो गया, जो स्‍कूल में थे. जो स्‍कूल के बाहर थे, वह स्‍कूल में आने की कोशिश में ही ज्‍यादातर समय बिताने लगे, तो वह जिन चीजों में माहिर थे, उनमें भी फिसड्डी हो गए.

कुछ जानवर जैसे मछली का प्रदर्शन सबसे अच्‍छा पाया गया. क्‍योंकि वह अच्‍छी तरह तैर लेती थी, थोड़ा छलांग लगा लेती और उड़ भी लेती थी. और उसने चढ़ना भी कुछ-कुछ सीख लिया था. इसलिए उसे 'स्‍टूडेंट ऑफ द ईयर' का अवॉर्ड दिया गया.

अगर इसे पढ़कर आपको अपने बच्‍चे की याद आ गई, तो इसे उन सभी तक पहुंचाएं जो किसी न किसी रूप से स्‍कूल से जुड़े हैं.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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