डियर जिंदगी: जब मन का न हो...
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डियर जिंदगी: जब मन का न हो...

तुलना से बचना, मुश्किल में अपने ऊपर भरोसा रखना एक कला है, जिसके भीतर जितना धैर्य, साहस, भरोसा होगा, वह इस कला का उतना ही बेहतर उपयोग कर पाएगा...

डियर जिंदगी: जब मन का न हो...

कभी-कभी हम चीजों के बारे में इतना अधिक सोचते हैं कि उनके नहीं होने पर भी वैसी दुनिया बना लेते हैं. जैसी हमने दिमाग में बनाई! अपनी बनाई दुनिया के अनुसार ही हम व्‍यवहार करने लगते हैं. उसके अनुसार ही हमारी सोच, समझ बनती जाती है. उसके अनुसार ही हम निर्णय लेने लगते हैं.

हमें लगता है कि हमारे बच्‍चे पिछली पीढ़ी की तुलना में अधिक स्‍मार्ट हैं! वह अधिक दुनियादार, समझदार हैं, लेकिन यह सिक्‍के का केवल एक पहलू है. जीवन की संपूर्णता में ऐसा नहीं होता. इसका बेहद सहज उदारहण कुछ समय पहले मुझे मिला.

हमारी कॉलोनी में रहने वाली रेणुका तिवारी एक आईटी कंपनी में काम करती हैं. एक दिन वह बेहद परेशानी में दिखीं. बात करने पर पता चला कि वह आनंद विहार रेलवे स्‍टेशन जा रही हैं. वहां उनकी मित्र अनुरोधा गोयल गोरखपुर से आने वाली थीं, जिनकी तबियत अचानक खराब हो गई.

इसलिए रेणुका उनको अपने घर लाने के लिए जा रही थीं. रेणुका 'डियर जिंदगी' से जुड़ी पहल 'जीवन संवाद' के कुछ संवाद सत्रों का हिस्‍सा रही हैं. इसलिए उन्‍होंने अपने कुछ साथियों के लिए 'जीवन संवाद' का छोटा सा सत्र रखा, जिसमें अनुरोधा भी शामिल थीं.

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वहां अनुराधा ने अपने कुछ अनुभव साझा किए. थोड़ा ठहरकर, ध्‍यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि हमारे आसपास ऐसे बहुत से लोग हैं, जो अपनी जिंदगी को ऐसे ही अचानक रोककर बैठ जाते हैं.

अनुराधा के पिता सेंट्रल सर्विसेस में थे. वह पटना, रांची, जयपुर और उसके बाद दस बरस तक दिल्‍ली में रहने के बाद रिटायर हुए. यह दस साल उस समय के थे, जब वह स्‍कूल की शिक्षा पूरी कर रही थीं. स्‍कूल की पढ़ाई के बाद पिता ने गोरखपुर जाकर रहने का निर्णय लिया. अनुराधा भी पिता के साथ वहां गईं.

उनका कहना है कि दिल्‍ली में दस बरस तक रहने के बाद उनको अगले तीन साल गोरखपुर में बिताने में बेहद परेशानी का सामना करना पड़ा. उनके लिए खुद को गोरखपुर जैसे शहर के हिसाब से ढालना मुश्किल हो रहा था.

अनुराधा के अनुसार, वहां का रहन-सहन, लोगों की सोच उन्‍हें बहुत परेशान करने वाली थी. इससे उनने खुद को बस कॉलेज आने-जाने तक सीमित कर लिया. उनके कपड़ों के चयन से लेकर चीजों से निपटने के तरीके तक वहां के हिसाब से एकदम अलग थे.

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यह सारी कहानी उन्‍होंने खुद आगे बढ़कर बताई. इसलिए इस पर ध्‍यान देना जरूरी है.

अनुराधा ने बताया, 'दिल्‍ली एक अलग शहर था. यहां से वहां जाकर मैंने खुद को बस अपने में सीमित कर दिया, क्‍योंकि मैं वहां अपने ही परिवार, रिश्‍तेदारों की बातों, तानों से तंग आ गई थी. उन्‍होंने आगे बढ़कर कुछ करने की जगह दो कदम पीछे खींच लिए, जबकि वहां भी उनके लिए सारे साधन जुटाए जा सकते थे, लेकिन अनुराधा ने खुद को जैसे अपनी सोच के दायरे मे कैद कर लिया. कुछ नहीं करना, कुछ नहीं सीखना. बस कॉलेज आना और जाना. यहां तक कि किताबों में रुचि रखने के बाद भी लाइब्रेरी तक नहीं जाना!'

कॉलेज पूरा होते ही उन्‍हें एमबीए के लिए नोएडा आने की अनुमति मिल गई. स्‍वयं अनुराधा के अनुसार तीन साल में वह कॉलेज के साथ दूसरी चीजों जैसे बैंकिंग, सिविल सर्विसेज़, रेलवे की तैयारी कर सकती थीं, लेकिन उन्‍होंने समय का उपयोग नहीं किया.

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दूसरी ओर उनके साथ दिल्‍ली से गई दूसरी छात्रा ने उन्‍हीं स्थितियों से तालमेल बैठाते हुए वहीं से बैंकिंग की तैयारी करते हुए सफलता हासिल की.

इसका असर यह हुआ कि अनुराधा उदासी, अकेलेपन से होते हुए डिप्रेशन की ओर जाने लगीं. खुशकिस्‍मती से उनको एक ऐसी सहेली मिल गई, जो उन्‍हें एक कुशल मनोचिकित्‍सक के पास ले गईं. उसके बाद चीजें ठीक होने लगीं.

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उन्होंने अपनी कहानी इसलिए साझा की, जिससे दूसरे उस रास्‍ते पर न जाएं, जिस ओर वह अनजाने में निकल गईं.

हमें समझना होगा कि हम भले ही उम्र के किसी पड़ाव पर हों, लेकिन अगर कुछ ऐसा है, जो मन का नहीं हो रहा तो खुद को कोने में, अकेलेपन की ओर धकेलने की जगह मजबूती से संभालना सीखना होगा. अपने मन का नहीं होना, असल में एक तैयारी के रूप में भी देखा जाना चाहिए. शायद समय यह देखना चाहता है कि आपमें चीजों को हासिल करने का कितना साहस, कौशल और जुझारूपन है.

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