जितना संभव हो खुद को, अपने फैसले और दृष्टिकोण को, अतीत की छाया से बचाएं. उससे कुछ सबक जरूर सीखे जा सकते हैं, लेकिन उसके अनुभव से चिपके नहीं रहा जा सकता.
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जब भी आप किसी 'ऐसे' मोड़ की ओर जाना चाहते हैं, जहां से आप कभी न गुजरे हों, आपका अतीत अक्सर सामने आ जाता है. हौसले के सहारे चार कदम बढ़ने को होते हैं कि अतीत आपके पांव खींचने में जुट जाता है. अतीत, भविष्य का हाथ जोंक की तरह जकड़े हुए है. वह बार-बार आपको एक ऐसे कोने में धकेलने की कोशिश में रहता है, जहां सब सुपरिचित हैं.
अतीत की ओर देखना उस वक्त तो सही है, जब आप समय की नांव में एक कदम आगे बढ़ रहे हों. जैसे मौसम की भविष्यवाणी करते समय आप बीते बरस के आंकड़ों से गुजरते ही हैं. लेकिन आंकड़े केवल बीते बरस की कहानी तो नहीं होते. वह तब तक वर्तमान के लिए उपयोगी नहीं होते, जब तक उनमें उस समय का रंग न मिला हो, जिसकी बात की जा रही है. यह बात हमें सबसे ज्यादा उस समय ध्यान रखनी है, जब हम अतीत से बाहर आने की कोशिश में हों. वर्तमान की नदी में तैरने को तैयार हो रहे हों.
कुछ उदाहरण लेते हैं, जिनसे जिंदगी में अतीत, वर्तमान के बीच सही तालमेल बिठाने में आसानी होगी...
1. अनुभव, अतीत की छाया से बचना: अनुपमा एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती हैं. उन्हें अपने कामकाजी साथी से प्रेम हो गया. दोनों सजातीय थे, इसलिए परिवार की ओर से कोई बाधा आने की उम्मीद नहीं थी. लेकिन एक पेंच आ गया. अनुपमा के भाई ने स्वयं प्रेम विवाह किया था. लेकिन दो साल बाद ही तलाक हो गया. उनके भाई अड़ गए.
वह अपने अनुभव बहन पर थोपने पर आमादा हैं. वह अतीत से ऐसे चिपके हैं कि अनुभव, अतीत की छाया अपने परिवार पर लादने से भी नहीं चूक रहे. परिवार में कलह है. बहन तनाव में हैं, क्योंकि वह भाई का बहुत सम्मान करती हैं. वह शादी भी नहीं तोड़ना चाहतीं, लेकिन भाई की भी उतनी ही चिंता है.
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2.सबकी सलाह जरूरी नहीं: हम बचपन से सुनते आए हैं कि कोई बड़ा काम करते समय सबकी सलाह लेनी चाहिए. घर, नौकरी, शादी. भारतीय संभवत: इन तीनों से अधिक महत्व किसी को नहीं देते. इनमें से घर और कुछ हद तक शादी तो फिर भी ठीक है, लेकिन नौकरी करने, परिवर्तन के बारे में सबकी सलाह लेते रहने से आप कभी सही निर्णय नहीं ले पाएंगे. अरमान वर्मा आईटी कंपनी में एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में काम करते हैं, जिनका बड़ा नाम है. उनको कम से कम दो ऐसे मौके मिले जहां से वह अपनी राह बना सकते थे. लेकिन उनने अपने बॉस यानी बड़े बरगद के नीचे रहना स्वीकार किया. क्योंकि वह मानते हैं कि आगे बढ़ने में बड़ा जोखिम है. वह खतरा नहीं उठाना चाहते. इससे वह उन सबसे पीछे रह गए, जिनके साथ चले थे. आगे चलकर उनका साथ बॉस ने छोड़ दिया. वह ऐसे देश चले गए. जहां उनका जाना संभव नहीं. जब तक आप दूसरों की बैसाखी छोड़कर अपने लिए रास्ते नहीं बनाएंगे, ऐसे खतरे हमेशा बने रहेंगे.
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3. लोग क्या सोचते हैं! : हम निजी, यहां तक कि प्रोफेशनल निर्णय लेते समय भी इस बात से परेशान रहते हैं कि लोग क्या कहेंगे. यह भारत में सबसे बड़ा रोग है. कोई कुछ नहीं सोचता. कोई कुछ नहीं कहता, क्योंकि किसी के पास समय नहीं है. हां, लोग आपकी आलोचना करेंगे, ताने मारेंगे. लेकिन इससे जिंदगी में कोई परिवर्तन नहीं आता! कोई सृजनात्मक मोड़ नहीं आता. कोई दिशा नहीं मिलती. इससे लोगों के मुकाबले अपने मन पर भरोसा करें. वहां से निकला रास्ता आपको शायद कोई दिशा दे सके.
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जितना संभव हो, खुद को, अपने फैसले और दृष्टिकोण को अतीत की छाया से बचाएं. उससे कुछ सबक जरूर सीखे जा सकते हैं, लेकिन उसके अनुभव से चिपके नहीं रहा जा सकता. केवल मनुष्य है, जिसमें निर्णय लेने, उसे बदलने, सुधारने की योग्यता है. यह बात बहुत अच्छी तरह जानने के बाद भी इसे कितना कम जिंदगी में उतारते हैं, हम. यह आगे चलकर जिंदगी में तनाव का रस घोलने के साथ निराशा, डिप्रेशन का बड़ा कारण बनता है.
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