इंटरनेट ने हमारी सोच, समझ, चेतना पर इस तरह कब्जा कर लिया है कि सहज बुद्धि, सोच, चिंतन ‘बेघर’ हो गए.
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हम ऐसे समय में हैं, जहां एक साथ दो विरोधाभाषी चीजें पूरे वेग के साथ दौड़ रही हैं. एक ‘सेल्फी’ मन और दूसरा नकलची मन! होना तो यह था कि अगर हमारे अवचेतन में ‘सेल्फ’ का भाव प्रबल है तो नकल की ओर हमें नहीं जाना चाहिए था, लेकिन हम एक साथ दो नाव की सवारी में जुटे हैं. यह जानते हुए भी कि दो नाव को साधने में सबसे अधिक नुकसान उसी मन का है, जिसके लिए हम रात-दिन दौड़ रहे हैं.
‘डियर जिंदगी’ की ऊर्जा वह संवाद है, जिसमें आप और लेखक नदी के एक ही छोर हैं. हम मन, भावना, चेतना को समभाव से साधने के प्रयास में हैं. इसलिए, जब यह यात्रा 400वें पड़ाव के एकदम नजदीक है, संवाद की सघनता, निरंतरता का आग्रह सप्रेम दुहराया जा रहा है.
डियर जिंदगी : जब ‘सुर’ न मिलें…
आपको याद होगा , बचपन में एक निबंध अक्सर चर्चा में रहता था- 'विज्ञान, अच्छा सेवक या बुरा स्वामी'. उस समय जो भी तर्क हमें रटाए जाते थे, उनके आधार पर हम लिखकर परीक्षा में नंबर हासिल किया करते थे. उस समय शायद ही हमारे ख्याल में यह बात रही हो कि कुछ ही बरस में यह निबंध हमारी जिंदगी में एकदम उतर आएगा !
आज भारत के सबसे अच्छे डॉक्टर , मनोचिकित्सक, शिक्षक, चिंतक जिस एक बात से सबसे अधिक चिंतित हैं, वह इंटरनेट का जिंदगी में दखल है. स्मार्टफोन के रास्ते हमारी जिंदगी में दाखिल हुए इंटरनेट ने हमारी सोच, समझ, चेतना पर इस तरह कब्जा कर लिया है कि हमारी सहज बुद्धि, सोच, चिंतन ‘बेघर’ हो गए.
कुछ दिन पहले हम कुछ मित्र अपने एक शिक्षक के यहां थे. जिनके यहां किताब, संदर्भ सामग्री का दुर्लभ संग्रह है. उन्होंने बताया कि उनके बच्चे जो अपने-अपने प्रोफेशन में बेहतर कर रहे हैं, शायद ही किताबों की ओर रुख करते हैं. वह खूब बहस करते हैं, संवाद करते हैं, लेकिन उनका ‘सोर्स ऑफ नॉलेज’ केवल गूगल है. वहां उन्हें जो कुछ मिल जाता है, उसे ही सही, सत्य माना जाता है.
जीवन असल में ‘फेक न्यूज’ से आगे निकलकर ‘फेक’ मोड पर चला गया है. जहां सब कुछ मनुष्य की मूल चेतना, समझ के उलट उस झूठी, गढ़ी धारणा के अनुकूल चल रहा है, जिसे बाजार ने अपने फायदे के लिए गढ़ा!
अपनी सोच , समझ को कैसे हम दूसरों (बाजार) के भरोसे छोड़ जीवन को उल्टी दिशा में मोड़ देते हैं, इस बारे में एक दिलचस्प किताब आई है. इजरायल के प्रोफेसर युवाल नोआ हरारी की किताब ‘सेपियंस’ (मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास) खूब चर्चा में है. यह हिंदी में मंजुल प्रकाशन के पास उपलब्ध है.
डियर जिंदगी: रिश्तों के फूल और कांटे!
प्रो. हरारी लिखते हैं, 'अगले बीस बरस में नौकरियां किस तरह की होंगी, कोई नहीं बता सकता. इसके बाद भी भविष्य के आधार पर बच्चों की शिक्षा के नाम पर इतनी ठगी चल रही है कि उससे अरबों का व्यापार चल रहा है. इनका यह भी दावा है कि ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ पर अरबों रुपए का निवेश मनुष्य के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित हो सकता है.
वह जोर देकर कहते हैं कि जैसा गुलामी के समय भारत को ईस्ट इंडिया कंपनी ने बनाया था, उसी तरह का खतरा इस डाटा रिवोल्यूशन से फिर मंडरा रहा है. ईस्ट इंडिया ने बाजार के जरिए देश पर कब्जा किया. अब यही खतरा कहीं अधिक बड़ा है, क्योंकि डाटा के जरिए हमारे जीवन, हमारी समझ पर कब्जा करने की कोशिश की जा रही है.
हम क्या सोचते हैं. हम कैसे हैं, यह कोई छोटी जानकारी नहीं है. यह असल में मनुष्य का सबसे कीमती डाटा है! इसके अनुसंधान और अध्ययन से हमारे लिए चीजों का निर्माण करके उसे हमें ही बेचा जा रहा है!
डियर जिंदगी: आपने मां को मेरे पास क्यों भेजा!
इसलिए, यह तय करना बहुत जरूरी है कि मैं और मेरी पहचान क्या है. मैं जो भी हूं, मुझे उसका ख्याल एकदम निजी तरीके से रखना होगा. मुझे रहना भी इसी बाजार में है, लेकिन मैं बाजार के साथ, उसके बीच रहकर भी कैसे अपने जीवन को उसकी चपेट में आने से बचा सकूं, यही असली हुनर है.
‘डियर जिंदगी’ अपने मन, अपनी पहचान और चेतना को स्वतंत्र रखने की ही तो विनम्र कोशिश है! हम मिलकर ऐसी दुनिया बना सकते हैं, जो गूगल मैप का उपयोग रास्ता देखने के लिए तो करेगी, लेकिन अपनी समझ, चेतना के लिए गूगल की ओर नहीं देखेगी! क्योंकि दूसरों की ओर देखना, अपनी उपेक्षा का पहला चरण है.
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