अकेलापन, केवल अकेले रहना नहीं है. यह तो उस संक्रामक विचार प्रक्रिया का ‘टिप ऑफ आइसबर्ग’ है, जो अपने साथ निराशा, दुख, ईर्ष्या और गहरी उदासी को साथ लिए चलता है.
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हम सब का मूल स्वभाव साथ रहना है. एक दूसरे का साथ देना, चाहना हमारी आदिम आदत रही है. संभवत: इसलिए तो अरस्तु ने हमें सामाजिक प्राणी कहा है. वह केवल प्राणी कहकर भी काम चला सकते थे, लेकिन सामाजिक इसलिए कहा, क्योंकि वह देख रहे थे कि कैसे अकेले-अकेले रहते हुए हम एक साथ आए हैं. मनुष्य के सफर की शुरुआत अकेलेपन से हुई, उसने साथ रहना ‘सीखा’ है. एक अकेली गुफा से आरंभ हुई यात्रा ही तो कबीले, गांव, कस्बे और महानगर से होते हुए रात-दिन रोशन रहने वाली धरती के रूप में बदली है.
इस यात्रा में हमारा आकार भी बदला. हम प्रकृति से दूर हुए. दूर से अधिक हमने उसे नियंत्रित करने की कोशिश की. इस ‘कोशिश’ के तनाव से ‘देवदार’ सरीखे इंसान गमलों जैसे दिखने लगे तो इसका मन, सोच पर असर पड़ना सहज ही माना जाएगा. अब पूरी दुनिया अकेलेपन, उदासी, कुंठा और डिप्रेशन की ओर बढ़ रही है. यह मनुष्य के रूप में हमारी यात्रा का एक ऐसा पड़ाव है, जहां हमारी चेतना में ऐसे बदलाव देखने को मिल रहे हैं, जो मनुष्य की यात्रा को किसी नए तट की ओर धकेलने वाले हैं.
डियर जिंदगी : रिश्ते की ‘कस्तूरी’ और हमारी खोज!
असल में प्रकृति/नेचर दुनिया की सबसे बड़ी शिक्षक, विज्ञान है. उसके पास हर समस्या का समाधान है. हां, उसे जानने समझने के लिए वैसी दृष्टि का होना जरूरी है. बाकी बातें फिर कभी आज हम मनुष्य के मूल स्वभाव मिठास के कम होते जाने और अकेलेपन के बढ़ते जाने पर बात केंद्रित रखते हैं.
अगर आप किसी डॉक्टर से कहें कि आज सबसे बड़ी बीमारी कौन सी है. जो मनुष्य समाज के लिए सबसे अधिक घातक है, तो वह बहुत से विकल्प के बीच वह कह सकते हैं, डायबिटीज. क्योंकि वह हमारी संपूर्ण जीवन पद्धति को बाधित करने का काम कर सकती है. मैं इसमें केवल एक ही चीज़ जोड़ना चाहता हूं कि डायबिटीज से कहीं अधिक घातक अकेलापन है. अकेलापन, केवल अकेले रहना नहीं है. यह तो उस संक्रामक विचार प्रक्रिया का ‘टिप ऑफ आइसबर्ग’ है, जो अपने साथ निराशा, दुख, ईर्ष्या और गहरी उदासी को साथ लिए चलता है.
डियर जिंदगी : खुद को कितना जानते हैं!
इस लेख की तैयार के दौरान मुझे बीबीसी की एक रिपोर्ट मिली. जिसने अकेलेपन के प्रति मेरी समझ को बल दिया. इसमें ‘ब्रिटिश रॉयल कॉलेज ऑफ़ जनरल प्रैक्टिशनर्स’ के हवाले से बताया गया है कि अकेलापन डायबिटीज जैसी भयानक बीमारी है. इससे भी उतने ही लोगों की मौत होती है, जितनी डायबिटीज़ की वजह से. अकेलापन हमारे सोचने-समझने की ताक़त को कमज़ोर करता है. अकेला रहना हमारी अक़्लमंदी पर बहुत खराब असर डालता है. बीमारियों से लड़ने की हमारी क्षमता कम होती है. तो इस अर्थ में डायबिटिज पर अकेलापन कहीं भारी है.
डिप्रेशन, उदासी भारत में देर से कदम रख रहे हैं, इनका सफर तो आपके प्रिय देश अमेरिका, ब्रिटेन से आरंभ हुआ. सिगमंड फ्रायड कहां से आए. कितने पहले वह संभलने को कह गए! उनके समाज हमारी तुलना में अधिक भौतिकवादी रहे. संपन्न रहे. अविष्कार वहीं होते रहे हैं. दुनिया की सबसे अच्छी मशीनें, कारखाने वहीं हैं. आज के संदर्भ में समझना है तो आईफोन एक सरल मिसाल है.
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एप्पल को अमेरिकन समाज के लिए हम साल छह महीने में नया वर्जन देना होता है, क्योंकि इतनी ही देर में वह पुराने से ऊब जाता है. जहां समाज बहुत अधिक संपन्न होगा, वहां जीवन के प्रति अलग, निजी नजरिया और रिश्तों में तनाव का स्तर कुछ और होगा.
आत्मीयता की आंच समय, स्नेह के तंदूर में ही बढ़ती है. जहां हसरतों की ऊंची लहर होगी, वहां प्रेम का पीछे छूटते जाना स्वाभाविक ही है. लेकिन भारत में जहां यूरोप, अमेरिका की तुलना साधन, सुविधा से करना संभव नहीं वहां समय से पहले हमारे लोगों को ऊबते जाना, अकेले होते जाना चौंकाने वाला है.
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असल में उदारीकरण के रास्ते हमने पूरी दुनिया, बाजार को अपने घर में आने तो दिया, लेकिन उसके लिए हमारा समाज, सोच और बच्चे एकदम तैयार नहीं थे. इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि हमने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. हमने ध्यान नहीं दिया कि शहरों में रोजगार बढ़ेगा तो लोग वहां जाएंगे लेकिन रहेंगे कैसे! हमने ध्यान नहीं दिया कि हमारे स्कूल और कॉलेज में जो पढ़ाया जा रहा है, वह समय से बहुत पुराना और पीछे का है. हमारी दृष्टि केवल ‘गिरमिटिया’ वाली होकर रह गई. इसीलिए हम सब कुछ नौकरी के आसपास बुनते हैं. जिंदगी के नजदीक नहीं! बढ़ता अकेलापन, गहरी उदासी हमारे घोसलों तक चलकर नहीं आई, हमने उसे आने का न्योता दिया.
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