अगर आपके भीतर सत्यबोध है, तो केवल उस आवाज पर भरोसा करिए जो अंतर्मन से आए. दुनिया के नजरिए की फ्रिक मत करिए, बस अपने इरादे, चुनाव पर कायम रहिए.
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‘डियर जिंदगी’ के 'सत्य के प्रयोग-1' में आपने पढ़ा कि कैसे मेरे पांचवी कक्षा में पहुंचने के पहले ही मेरी शादी की बात होनी आरंभ हो गई. कारण, मैं मप्र के बघेलखंड के रीवा से आता हूं, जहां अस्सी-नब्बे के दशक तक बाल विवाह आम रिवाज था.
यह सब तब था जबकि गांव, तहसील में पर्याप्त संख्या में शिक्षक, डॉक्टर और इंजीनियर थे. लेकिन शिक्षा का ‘नजरिए’ से कोई संबंध नहीं है. यही कारण था कि सब शिक्षितजन इस परंपरा, प्रथा का पालन सम्मोहित तरीके से कर रहे थे.
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मैं भी इस परंपरा में अड़चन नहीं डालता, अगर स्कूल की सहायक वाचन में महात्मा गांधी की पूरी कहानी नहीं पढ़ी होती. मुझे गांधी के शब्दों से शक्ति मिली कि कैसे अपनी बात पर कायम रहना है.
अगर आपमें सत्यबोध है, तो केवल उस आवाज पर भरोसा करिए जो अंतर्मन से आए. दुनिया के नजरिए की फ्रिक मत करिए, बस अपने इरादे, चुनाव पर कायम रहिए.
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आज मेरे लिए तनाव, अकेलेपन, डिप्रेशन पर बात करना उस समय के मुकाबले कहीं अधिक सरल है, जब बतौर पांचवी कक्षा के छात्र के रूप में मैं एक ऐसी सामाजिक समस्या का सामना कर रहा था, जिसके बारे उनको समझाना होता था, जो मुझसे कहीं अधिक बड़े और ‘समझदार’ थे. लेकिन कोई समझने को तैयार नहीं था...
यहीं से तीन बातों की समझ स्पष्ट रूप से मिली…
जरूरी नहीं कि आप (बड़े) हमेशा सही हों. बल्कि बड़ों के चीजों के न समझने के भी उतने ही अवसर हैं, जितने छोटे बच्चों के.
साक्षर होने का अर्थ ‘पढ़े-लिखे’ होने से नहीं है. हमारे आसपास अधिकांश लोग साक्षर हैं, लेकिन वह पढ़े-लिखे नहीं हैं. उनके भीतर वैज्ञानिक सोच-समझ नहीं है.
बच्चों की सहज बुद्धि मूल समस्या को कहीं अधिक पकड़ती है, बड़ों की तुलना में. राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर और आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं.
मेरी शिक्षा भोपाल के एक सामान्य स्कूल में हो रही थी. मेरे पास दोस्तों, शिक्षकों, परिवारजनों का कोई ऐसा समूह नहीं था, जो बाल विवाह को रोकने का मनोबल देता. कोई नहीं. कोई एक व्यक्ति नहीं. मेरा सामना एक ऐसे ‘सोशल सिंड्रोम’ से था, जिसकी पकड़ में मेरी पहुंच का पूरा समाज था.
डरे, सहमे बच्चे के भीतर खतरनाक अकेलापन बढ़ता जा रहा था. जिस भी बड़े, रिश्तेदार से बात की, उसे इस व्यवस्था में कोई परेशानी नजर नहीं आती थी. हमारे समग्र, शिक्षित परिवार में हर कोई कम उम्र में विवाह के समर्थन में था.
फिर मुझे गांधी अपने स्कूल की किताब में मिल गए. उनका जीवन दर्शन हमारे सहायक वाचन में बहुत ही खूबसूरती से समेटा गया था. उस ‘सहायक वाचन’ ने मेरे जीवन की पूरी दिशा बदल दी.
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मैंने प्रतिरोध से डरना छोड़ दिया. स्वयं को अनर्गल तर्कों से बचाने के लिए अपने दिल, दिमाग में तर्क की प्रबल दीवार बनाई. मैं किताब, अखबार और व्याख्यान (सुनने) की ओर मुड़ गया. दसवीं का छात्र होते-होते मैं भारत के कम से कम तीन प्रधानमंत्रियों, दर्शनशास्त्रियों, अनेक शंकराचार्य, धार्मिक टीकाकारों और मदर टेरेसा जैसे अद्भुत समाजसेवियों की 'सभा' में जा चुका था. दिन में कोई दो से तीन अखबार पढ़ना सामान्य बात थी.
किताब, विमर्श की ओर मुड़ने का दूसरा पक्ष यह रहा कि आठवीं से लेकर दसवीं तक के ‘रिजल्ट’ स्कूल, समाज के अनुरूप नहीं रहे. लेकिन इन सबने मिलकर मुझे निराशा, डिप्रेशन में जाने से बचा लिया.
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गांधी के सत्य के प्रति नजरिए ने मुझे अपनी बात पर कायम रहने की अनूठी शक्ति दी. ग्यारहवीं से पढ़ाई की पटरी स्कूल, समाज के अनुरूप हो गई. बाल-विवाह\कम उम्र में शादी से लड़ने का मेरा विचार परिपक्व हो गया. हालांकि इसके बाद भी इसने पर्याप्त समय तक मुझे तनाव, निराशा की ओर ले जाने का प्रयास किया.
लेकिन गांधी बार-बार आशा, उम्मीद की लौ दिखाते रहे. वह सिखाते रहे कि गलत चीजों को सहने के साथ ही उनके सामने मौन रहना भी उतना ही गलत है.
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इस विचार की कीमत मुझे दूसरों की ‘हां में हां’ न मिलाने के रूप में बार-बार नौकरी बदलने के रूप में भी चुकानी पड़ी. लेकिन मैंने हमेशा नए रास्ते को विकल्प के रूप में चुना. इसलिए मैं पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहूंगा कि रास्ते हमेशा आपके पास मौजूद रहते हैं, बशर्ते आप उनके प्रति सम्मान रखें. दूसरों के बनाए रास्तों पर चलने से कहीं बेहतर है, अपनी बनाई पगडंडी पर चलने का हौसला.
‘डियर जिंदगी’ का यह एडिशन आपको थोड़ा ‘आत्मकथा’ जैसा अनुभव दे सकता है, लेकिन यहां ‘इन’ सबके जिक्र का अर्थ केवल और केवल इसलिए है, क्योंकि अनेक पाठक यह प्रश्न उठा रहे हैं कि लिखना, पढ़ना सहज है लेकिन जीना नहीं. तनाव, उदासी से निकलना नहीं.
मैं पूरी विनम्रता, जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं कि अपने को भीतर से मजबूत कीजिए, सारा बल वहीं से आता है.
अपने मन, दिमाग से कहिए...
'डराओ, सताओ नहीं,
कान खोलकर सुन लो,
इतना मुश्किल भी नहीं है, जीना'
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