नीम का पेड़ लगाने से नीम और आम का पेड़ तैयार करने से आम होता है. यह प्रकृति का शास्वत नियम है. सब पर बिना भेदभाव लागू होता है.
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‘समय के अलावा कुछ भी मांग लो, मां! बस यही तो नहीं है. मैंने अकाउंट में पैसे जमा करवा दिए हैं. अब आना अगले साल होगा. अभी हम बच्चों के साथ पंद्रह दिन के लिए यूरोप जा रहे हैं.’ बेटे ने बात समेटते हुए कहा.
मां की आवाज में दुख, दर्द के साथ गुस्सा भी आ गया, ‘तीन साल हुए, मुंबई से इंदौर आने का समय नहीं मिला. लेकिन यूरोप जाने का समय है. हमने तो तेरे लिए कभी नहीं कहा कि समय नहीं. तुम्हारे पिता की पेंशन पर्याप्त है. मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए. हां, मिलने का मन जरूर करता है! पैसे भेजना बंद कर दो, प्लीज!’
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कहानी यहीं समाप्त नहीं होती. बेटा आखिर यूरोप नहीं जा पाया. क्योंकि मां की वसीयत के हिसाब से सारी संपत्ति उनके इकलौते बेटे को मिलनी थी. इसलिए उसे अंतिम संस्कार के साथ संपत्ति बेचने के लिए इंदौर आना ही पड़ा.
कुछ समय तक ऐसे प्रसंग अखबार के पहले पन्ने की स्टोरी होने के साथ, प्रमुखता से प्रकाशित होते थे. लेकिन इधर साल दर साल में कहानी बदलती गई. क्योंकि इंदौर, मुंबई, कोलकाता, रांची, लखनऊ, चेन्नई समेत भारत में ऐसी खबरों की संख्या तेजी से बढ़ गई.
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बुजुर्गों का अपने परिवार से निष्कासन सामान्य हो जा रहा है. मीडिया में उन चीजों को ही प्रमुखता मिलती है, जो असामान्य होती हैं. चीजों, घटनाओं का सामान्य न होना ही तो मीडिया के लिए खबर है. स्टोरी है.
इसलिए परिवार से बाहर होते जा रहे बुजुर्गों के लिए हर जगह संवेदना खत्म होती जा रही है. वृंदावन, त्रषिकेश, हरिद्वार में ऐसी महिलाओं की संख्या हजारों में है, जिन्हें बच्चे तीर्थ कराने के नाम पर यहीं छोड़ जाते हैं.
सोच की नदी में संवेदना का सूखा देखिए. तीर्थस्थल पर बच्चों के हाथ नहीं छूटते, लेकिन बचपन में कसकर हाथ थामे रहने वाली मां का साथ आसानी से छूट जाता है...
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ऊपर हम इंदौर के जिस किस्से से गुजरे. अब असल में वह कहानी घर-घर की हो गई है. समाज की विडंबना देखिए कि एक ओर बड़ी संख्या में बेटियां अपने माता-पिता को भाइयों की अनदेखी से बचा रही हैं. तो दूसरी ओर ससुराल में वहां के बुजुर्गों के लिए आश्रय की छांव देने के प्रति उतनी उत्सुक नजर नहीं आतीं.
इस पैराग्राफ को सही संदर्भ में देखने की जरूरत है. अन्यथा इसे स्त्रियों के विरुद्ध भी ठहराया जा सकता है. यहां स्त्रियों की भूमिका पर इसलिए विशेष आग्रह है क्योंकि वह पुरुष की तुलना में निश्चित रूप से कहीं अधिक संवेदी, सहृदय हैं. इसलिए ऊपर जो कहा गया उसे सही संदर्भ में समझने की जरूरत है.
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एक छोटी कहानी साझा कर रहा हूं. जो कम शब्दों में पूरी बात बयां करती है...
पति ने घर पर दस्तक दी. जैसे ही दरवाजा खुला. उसके हाथ में सामान देखकर पत्नी ने कहा, अरे! साथ में कौन है? पति ने सकुचाते हुए कहा, ‘मां आई हैं. बीमार थीं. बड़े भाई तीर्थयात्रा के बहाने वृंदावन में छोड़ आए थे, संयोग से मैं मथुरा से वहीं चला गया. और मां से एक आश्रम में टकरा गया. मां वहां नहीं रह सकती थी, इसलिए लेता आया.’
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पत्नी बीच में ही टोककर शुरू हो गई...
‘तो यहां क्यों ले आए! और भी तो भाई हैं. पहले ही घर चलाना मुश्किल है. इतने छोटे से घर में कैसे हो पाएगा. मां समझती क्यों नहीं. उन्हें खुद शर्म नहीं आती.’
पति से रहा नहीं गया, उसने कहा, चुप हो जा. मां अंदर आ रही हैं.
मां को देखते ही, पत्नी के स्वर बदल गए.
उसने कहा, 'अरे! मां तुम. तुम! आपने पहले क्यों नहीं बताया. मां चिंता मत करो. मेरे रहते परेशान होने की जरूरत नहीं.'
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लेकिन मां देर तक सुबकती रहीं. उन्होंने इतना ही कहा, 'तुम इतनी कठोर कैसे हो गईं. मां तो मां होती है. तुम अपनी भाभियों की तरह क्यों हो गईं, जिन्होंने मुझे बेघर कर दिया.'
मां देर तक रोती रही. बेटी उसे समझाती रही कि यह सब तुम्हारे लिए नहीं कहा था, तुम तो मेरी मां हो!
लघुकथा समाप्त!
बस इतना ही याद रखना है कि जो आज बुजुर्ग हैं. वह कभी युवा थे. और युवा ही बुजुर्ग होते हैं. नीम का पेड़ लगाने से नीम और आम का पेड़ तैयार करने से आम होता है. यह प्रकृति का शास्वत नियम है. सब पर बिना भेदभाव लागू होता है...
(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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