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दिल्ली चुनाव के नतीजे भारतीय राजनीति के एक ऐसे अध्याय के रुप में 'आप' के इस जीत को शुमार करते हैं जो जनता का एक सियासी पार्टी के प्रति उम्मीद और विश्वास को दर्शाता है। वह पार्टी जिसने अपनी स्थापना का दूसरा जन्मदिन भी अभीतक नहीं मनाया हो । लेकिन जीत की ऐसी इबारत लिखी जिसमें आम आदमी के विश्वास और उम्मीद की झलक मिलती हो। आम आदमी पार्टी की अप्रत्याशित जीत उन वादों पर भी टिकी है जिसे लेकर दिल्ली की जनता को यह भरोसा है कि केजरीवाल की सरकार उसे पूरा करेगी।
केजरीवाल की यह जीत सही मायने में ऐतिहासिक है क्योंकि भारतीय राजनीति में अबतक ऐसा सिर्फ दो बार हुआ है जब एक ही पार्टी ने प्रचंड बहुमत हासिल कर विपक्षी पार्टियों को धूल चटा दी हो। कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया जबकि बीजेपी पांच सीटों पर भी जीत हासिल नहीं कर सकी। इससे पता चलता है कि यह लहर केजरीवाल के उस सादगी की लहर थी जो उन्होंने जनता से संपर्क कर हासिल किया था।
‘आम आदमी की ताकत’ ने 60 साल से ज्यादा समय तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस पार्टी का जहां सूपड़ा साफ किया वहीं दूसरी तरफ बीजेपी को यह बताने की कोशिश की कि इतिहास हमेशा अपने आप को दोहराता नहीं है। बीजेपी के कुछ नेताओं को ऐसा लगा था कि दिल्ली चुनाव में वह लोकसभा चुनाव के परिणाम का इतिहास दोहरा सकते हैं। कभी-कभी सियासत में हैरतअंगेज घटनाएं भी होती है। यकीकन 'आप' ने बीजेपी को शिकस्त देकर उसकी सियासी नींद उड़ा दी है। हाशिए पर जा चुकी कांग्रेस और 5 सीटों से नीचे सिमट चुकी बीजेपी को दिल्ली की राजनीति में अपने जनाधार की पुख्ता बुनियाद को नए सिरे से बुनने और समेटने के लिए गंभीर और सार्थक सियासी कवायद करनी होगी।
ऐसा भारतीय राजनीति के इतिहास में पहले दो बार हुआ है जब एक पार्टी ने जीत का ऐसा शानदार और एकतरफा परचम लहराया हो। दिल्ली विधानसभा की 90 फीसदी पर जीत की यह अनोखी दास्तान इससे पहले ऐसा देश में केवल दो बार सिक्किम और बिहार में हुआ ।
दिल्ली में 'आप' की जबर्दस्त जीत सिक्किम संग्राम परिषद (एसएसपी) की जीत की याद ताजा करती है जब पार्टी ने सभी 32 सीटें जीती थी जबकि 2010 के विधानसभा चुनाव में बिहार में 243 सदस्यीय विधानसभा में जदयू-भाजपा गठबंधन ने 206 सीटें जीती थी। 1991 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में अन्नाद्रमुक-कांग्रेस गठबंधन ने 234 सीटों में से 225 पर जीत दर्ज की थी जबकि इसके बाद हुए राज्य विधानसभा चुनाव में द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन ने 234 में से 221 सीटें जीती थी।
यूं तो आम आदमी पार्टी की जीत के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन इस चुनाव में एक बात बिल्कुल साफ रही कि दिल्ली चुनाव में बीजेपी अति आत्मविश्वास और दंभ के साथ राजनीति कर रही थी जबकि अरविंद केजरीवाल की सियासत में सादगी का वह 'पुट' शामिल था जो जनता के विश्वास को पल-पल जीतता जा रहा था। यही विश्वास 7 फरवरी को भारी वोट में तब्दील हो गए और नतीजों में जिसका असर दिखा।
राजनीतिक समीक्षकों के मुताबिक दिल्ली चुनाव में एक तरफ बीजेपी ने नकारात्मक राजनीतिक कर अपनी लुटिया डुबो दी तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी ने ऐहतियात बरतते हुए बिना किसी मर्यादा को लांघते हुए सादगी और सीधी-सादी राजनीति की। इसकी तस्दीक उन राजनीतिक बयानों और बाणों से होती है जब बीजेपी के दिग्गज नेता आप पर आरोपों की बौछार कर रहे थे। नकारात्मक बयान बीजेपी की जीत की उम्मीद को धूमिल कर रहे थे लेकिन आप इस दौरान जनता से सीधा संपर्क साध एक सकारात्मक राजनीति कर रही थी। बीजेपी का निगेटिव कैंपेन उसकी हार की बड़ी वजहों में से एक रहा क्योंकि बीजेपी के चुनावी प्रचार में पूरी ताकत झोंकने के बावजूद वह जनता की नब्ज टटोलने में नाकाम रही । सियासी जानकारों ने यहां तक कह दिया कि बीजेपी ने ऐसी निगेटिव पॉलिटिक्स पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में भी नहीं की थी। लेकिन दूसरी तरफ आप ने इस बात का ख्याल रखा कि राजनीति ऐसी करनी ही नहीं है जिससे दांव उल्टा पड़ जाए। केजरीवाल की टीम पूरी तरह सतर्क थी और फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी।
बीजेपी की दूसरी सबसे बड़ी गलती चुनाव से ठीक दो हफ्ते पहले किरण बेदी को पार्टी में लाया जाना रहा। किरण बेदी को अरविंद केजरीवाल के खिलाफ पार्टी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा गया था, लेकिन यह कदम पूरी तरह नाकाम साबित हुआ। सीएम उम्मीदवार के तौर पर किरण ने पूरी ताकत लगाई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के सभी शीर्ष नेताओं ने उनके लिए प्रचार किया। पीएम ने ताबड़तोड़ छह रैलियां की। लेकिन बीजेपी का चुनाव प्रचार अभियान भाजपा के नेताओं की ओर से कथित तौर पर सहयोग नहीं मिलने के कारण फीका दिखा। यह कहना गलत नहीं होगा कि कार्यकर्ताओं में भी उत्साह की कमी देखी गई। हालात ऐसे बने की कार्यकर्ता कम नेता ज्यादा दिखते रहे। इस बीच दिल्ली भाजपा के कुछ नेता बेदी के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे थे और इसी क्रम में पार्टी के भीतर मतभेद भी उभरे। इन मतभेदों का उभरना और तथाकथित 'भीतरघात' से पार्टी को छवि को काफी नुकसान उठाना पड़ा।
किसी भी चुनाव में जनता इस बात पर ज्यादा ध्यान देती है कि सियासी पार्टियां क्या-क्या वादे कर रही है। उनके दावों की फेहरिस्त क्या है। उनका मैनिफेस्टो क्या है। एक तरफ बीजेपी के चुनावी प्रचार अभियान में दिल्ली को स्मार्ट सिटी बनाने का दावा किया जा रहा था तो दूसरी तरफ आप उन जमीनी मुद्दों के जरिए दिल्ली की जनता को राहत देने की बात कह रही थी जो पानी, बिजली, भ्रष्टाचार, झुग्गी जैसे बुनियादी पहलुओं से ताल्लुक रखते थे। दरअसल दिल्ली को स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद एक लंबे वक्त की कवायद है और जनता को यह काल्पनिक नजर आया। जबकि दिल्ली की जनता पानी और बिजली की समस्या का खत्म होना एक राहत भरी उम्मीद के रूप में देखती हैं। अपने 49 दिनों की पिछली सरकार में केजरीवाल ने दिल्ली की जनता को पानी और बिजली के मुद्दे पर राहत देने की एक कोशिश की थी। शायद इस चुनाव में जनता को यह बात याद रही जो आप को बेहतर वोट दिला गया।
जानकारों के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी जब महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में अपनी जीत के नशे में चूर थी, तब 'आप' दिल्ली की जनता से दोबारा संपर्क करने में जुटी थी। बीजेपी ने चुनाव प्रचार अभियान काफी देर से शुरू किया जबकि आम आदमी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के करारी हार के बाद ही दिल्ली के लिए चुनाव प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। केजरीवाल ने 2014 में दिल्ली सरकार छोड़ने पर बार-बार जनता से माफी मांगी। आप ने आम वर्ग को आकर्षित करने के लिए खास रणनीति बनाई जो कामयाब रही।
बीजेपी की नकारात्मक चुनावी मुहिम से भी 'आप' को जबरदस्त लाभ हुआ। भाजपा ने अपने विज्ञापनों में केजरीवाल पर व्यक्तिगत हमले किए जिसे जनता ने पसंद नहीं किया। इन विज्ञापनों में करोड़ों रुपए खर्च किए गए लेकिन इसका लाभ पार्टी को नहीं हुआ। बल्कि यह ऐसी ही बात हो गई कि सिर मुंडाते ही ओले पड़े।
कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि सबकुछ जनता होती है। वह जिसे चाहती हैं सर-आंखों पर बिठाती है। जिसे चाहती है नीचे गिरा देती है। आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत से जीत में जनता का यह संदेश भी उनके लिए एक दबाव के रूप में काम कर रहा होगा कि जनता को उनके वादों से उम्मीद है। जनता ने पूरी तरह से आप में विश्वास जताया है और अब टीम केजरीवाल के सामने उन उम्मीदों पर खरा उतरने की बारी है