कर्नाटक ने राजनीतिक पार्टियों को दिखाए कई रास्ते
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कर्नाटक ने राजनीतिक पार्टियों को दिखाए कई रास्ते

सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद भाजपा के लिए भले ही अभी सरकार बनाने में थोडा समय लगे, लेकिन सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के लिए पूर्व मुख्य मंत्री सिद्धारमैया और पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी की मेहनत रंग न दिखा पाई.

कर्नाटक ने राजनीतिक पार्टियों को दिखाए कई रास्ते

आखिरकार कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी ने पांच साल पहले मिली हार का बदला ले ही लिया. पूर्व मुख्य मंत्री बी एस येदयुरप्पा पर भ्रष्टाचार का आरोप लगने और उनके जेल जाने के बाद ऐसा लगता था कि भाजपा का इस दक्षिण भारत के राज्य में दोबारा सत्ता में आना, या किसी भी तरह से मजबूत होना, आसान न होगा. लेकिन प्रधान मंत्री मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और स्वयं येदयुरप्पा के प्रचार ने अंततः भाजपा को फिर सत्ता तक पहुंचा ही दिया है. सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद भाजपा के लिए भले ही अभी सरकार बनाने में थोडा समय लगे, लेकिन सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के लिए पूर्व मुख्य मंत्री सिद्धारमैया और पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी की मेहनत रंग न दिखा पाई.

इन नतीजों में देश की राजनीति और 2019 के लोक सभा चुनाव के लिए संकेत ढूंढें जा रहे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के लिए संकेत स्पष्ट हैं जिन्हें ढूंढने की जरूरत नहीं है. उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के अलावा दो अन्य प्रमुख विपक्षी दलों ने भी कर्नाटक में अपनी भूमिका संवारने की कोशिश की थी. जहां समाजवादी पार्टी की ओर से पूर्व मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने पहले कांग्रेस के साथ हां-ना से उबरने के बाद कुछ जगहों पर प्रत्याशी खड़े किये थे, वहीं बहुजन समाज पार्टी की ओर से मायावती ने काफी पहले ही जनता दल (सेक्युलर) के साथ गठबंधन की घोषणा की थी.

सपा और बसपा के लिए भले ही कर्नाटक का अनुभव यादगार न रहा हो, लेकिन दोनों दलों के लिए अपने भविष्य के गठबंधन के लिए आधार जरूर मिल गए हैं. सपा और बसपा ने दो महीने पहले उप्र में लोकसभा के गोरखपुर और फूलपुर उप चुनाव में संयुक्त लड़ाई लड़ कर भाजपा को हराया था. लेकिन दोनों ही दल कर्नाटक में अपनी ताकत आजमाना चाहते थे, जिससे आगामी लोक सभा चुनाव के पहले सीट-वितरण, प्रचार रणनीति और घोषणा पत्र जैसे मुद्दों पर दोनों अपनी मजबूती का एहसास कर सकें. निश्चय ही कर्नाटक के नतीजों से से दोनों दलों के लिए उप्र में भावी गठबंधन से पहले कई मुद्दे विचार करने के लिए सामने आ गए हैं.

उत्तर प्रदेश में अपराध रोकने में कितनी सफल हुई योगी सरकार?

एक तो बसपा ने जेडीएस का साथ देकर कांग्रेस से दूरी बनाये रखने का संकेत दे दिया है, जब कि सपा को कांग्रेस का साथ देने के मुद्दे पर राय बनाना बाकी है – जबकि 2017 में सपा-कांग्रेस ने साथ मिल विधान सभा चुनाव लड़ा था. कर्नाटक में यदि भाजपा को सरकार बनाने के लिए जेडीएस का समर्थन लेना पड़ा तो बसपा के लिए असमंजस की स्थिति पैदा होगी. वह भाजपा का साथ देती नहीं दिखना चाहती, और यदि ऐसा होता है तो उप्र में सपा भी उससे किनारा कर ही लेगी.

सपा ने इस चुनाव में कर्नाटक के 24 उन क्षेत्रों में प्रत्याशी उतारे थे जहां पिछड़े वर्ग का प्रभाव अधिक है, लेकिन कोई सफलता न मिल पाने के कारण पार्टी के लिए इस प्रयास का कोई ख़ास मायने नहीं रह गया. 2013 के चुनाव में सपा की ओर से सीपी योगेश्वर चन्नपटना से जीत कर पार्टी के एकमात्र विधायक चुने गए थे.

इन परिणामों से उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ के भाजपा के स्टार प्रचारक होने पर एक और मोहर लग गई है. उन्होंने कर्नाटक में कई चरणों में चुनाव प्रचार किया था और उनके द्वारा की गई सभाएं अधिकतर दक्षिण कर्नाटक और तटीय कर्नाटक में थीं. यह क्षेत्र हिन्दुत्त्व-समर्थक तत्वों के लिए जाना जाता है और कुछ स्थानों पर उस संप्रदाय का भी प्रभाव है जिससे आदित्यनाथ जुड़े हैं. उन्होंने प्रदेश में कुल 24 सभाएं संबोधित की थीं जिनसे 133 चुनाव स्थान प्रभवित होते थे. इनमे से 74 पर भाजपा को जीत मिली है. इसके पहले त्रिपुरा में भी योगी आदित्यनाथ ने कई चुनाव सभाएं संबोधित की थीं, और वहां आज भाजपा की सरकार है. आखिरकार योगी के गेरुआ परिधान का अपेक्षित असर दिख ही रहा है. अब ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि उत्तर प्रदेश में शासन-प्रशासन की असफलताओं और लोगों में असंतोष के बावजूद योगी न केवल उप्र में बने रहेंगे बल्कि भाजपा के लिए आगामी चुनावों में भी प्रचार में बड़ी भूमिका निभाते नज़र आएंगे.

BJP की दक्षिण विजय की राह में आने वाले रोड़े!

कर्नाटक के उस क्षेत्र में जो तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से लगा हुआ है और जहां तेलुगु भाषी लोग बहुतायत में हैं, वहां भी भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा है. तो कर्नाटक के परिणाम का असर अब उत्तर प्रदेश ही क्यों, इन दोनों प्रदेशों में भी बहुत जल्द देखने को मिल सकता है.

सबसे महत्वपूर्ण संकेत तो यही है जिसकी ओर पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने इशारा किया – यदि कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा होता तो तस्वीर कुछ और ही होती. स्पष्ट है कि सपा और बसपा भी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे. यह आश्चर्यजनक न होगा कि आने वाले दिनों में भाजपा के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के प्रयासों को नई गति मिले, बल्कि रोचक यह होगा कि ऐसे मोर्चे में अब कोई दल कांग्रेस को शामिल किये जाने की पैरवी करेगा भी या नहीं. कांग्रेस के भीतर भी यदि राहुल गांधी के नेतृत्त्व पर सवाल उठने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

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(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार है)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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