Dogras In Jammu: जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते? सवाल से सियासी उबाल, कौन हैं राज्य के पूर्व शासक डोगरा
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Dogras In Jammu: जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते? सवाल से सियासी उबाल, कौन हैं राज्य के पूर्व शासक डोगरा

Jammu Kashmir Assembly Elections 2024: जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में प्रचार अभियान के दौरान भाजपा के एक उम्मीदवार ने पूछा कि 'जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते?' इस सवाल से आए सियासी उबाल को असरदार माना जा रहा है. आइए, जानते हैं कि साल 1846 से 1947 के बीच रियासत पर शासन करने वाले हिंदू डोगरा कैसे सत्ता में आए और उनके शासन को क्यों अलोकप्रिय माना गया.

Dogras In Jammu: जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते? सवाल से सियासी उबाल, कौन हैं राज्य के पूर्व शासक डोगरा

Jammu Kashmir Elections Phase 3 Polling: जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान से पहले ही भाजपा के जम्मू उत्तर सीट के उम्मीदवार शाम लाल शर्मा ने मतदाताओं से अपनी पार्टी को चुनने की अपील की. उन्होंने इसके पीछे केंद्र शासित प्रदेश को हिंदू डोगरा समुदाय से पहला मुख्यमंत्री मिल सकने की दलील दी. उन्होंने कहा, "जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते? हम यहां की आबादी का 32 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करते हैं."

भाजपा उम्मीदवार के बेबाक सवाल ने झकझोर दी ऐतिहासिक चेतना

शाम लाल शर्मा का यह बेबाक बयान प्रदेश में हिंदू डोगराओं के साल 1846 से 1947 के बीच के दौर के बारे में ऐतिहासिक चेतना की याद दिलाने वाला है. इस 99 साल की अवधि में डोगरा राजाओं ने जम्मू-कश्मीर रियासत पर शासन किया था. आइए, जानते हैं कि जम्मू कश्मीर के पूर्व शासक डोगरा वास्तव में कौन हैं और वे इस ऐतिहासिक घाटी में सत्ता में कैसे आए?

जम्मू कश्मीर में डोगरा राज का ऐतिहासिक संदर्भ क्या है?

19वीं सदी की शुरुआत में जब सिखों की शक्ति का विस्तार हुआ, तो  सिख राज्य के संस्थापक रणजीत सिंह ने लाहौर को राजधानी बनाकर अपना ध्यान जम्मू की ओर लगाया. साल 1808 में जनरल हुकम सिंह द्वारा सिखों के लिए इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के बाद सेना ने अपना अगला ध्यान कश्मीर की ओर लगाया, जिसे 1819 में कब्जे में ले लिया गया. इसके बाद, रणजीत सिंह ने सिखों के प्रभाव को लद्दाख तक बढ़ाने की कोशिश की. उस समय, जम्मू पर डोगराओं का शासन था.

राजस्थान से जम्मू और उसके आसपास पहुंचे सूर्यवंशी राजपूत डोगरा

इतिहासकार ए एच बिंगले ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ़ द डोगरा (2021) में डोगराओं को "सूर्यवंशी राजपूतों के रूप में बताया है, जो हजारों साल पहले राजस्थान के रेगिस्तानी मैदानों से पश्चिमी हिमालय में जम्मू और उसके आसपास की पहाड़ियों में चले गए थे." उनके नेता गुलाब सिंह ने शुरू में सिखों का विरोध किया, लेकिन आखिर में व्यावहारिक कारणों से उनके साथ गठबंधन करना चुना. अपने भाइयों ध्यान सिंह और सुचेत सिंह के साथ मिलकर उन्होंने लाहौर सरकार की सेवा करके परिवार की किस्मत को फिर से संवारने की कोशिश की.

रणजीत सिंह के संरक्षण में मजबूत हुए डोगरा सैनिक गुलाब सिंह

इस तरह, गुलाब सिंह 1809 में एक सैनिक के रूप में सिख सेना में शामिल हो गए. उनकी प्रतिभा जल्द ही स्पष्ट हो गई, और 1820 तक उन्हें जम्मू के पास 40,000 रुपये की जागीर दी गई. इसके तुरंत बाद, उन्हें अपनी सेना दी गई और 1822 में वे जम्मू के वंशानुगत राजा बन गए. इससे आसपास के पहाड़ी राज्यों पर उनका अधिकार मजबूत हो गया. जम्मू पर सिखों की विजय के दो दशकों के भीतर डोगरा भाइयों ने काफी प्रमुखता हासिल कर ली थी, जिसका मुख्य कारण रणजीत सिंह का संरक्षण था.

गुलाब सिंह ने लद्दाख में अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी और रणजीत सिंह के निधन के बाद कश्मीर को विरासत में पाने को लेकर वह बेहद आश्वस्त थे. इस बीच, अंग्रेजों ने दुर्जेय सिख सेनाओं का सामना करने में हिचकिचाहट के चलते यथास्थिति बनाए रखने का विकल्प चुना. 

जम्मू कश्मीर में डोगरा शासकों का उदय कैसे हुआ?

साल 1839 में रणजीत सिंह के निधन के तुरंत बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने पंजाब से सटे क्षेत्रों में अपनी सैन्य उपस्थिति को मजबूत करना शुरू कर दिया. इसके बाद अनिवार्य रूप से होने वाला मशहूर एंग्लो-सिख युद्ध हुआ. खालसा (सिख सेना) और अंग्रेजों के बीच संघर्ष वाला पहला एंग्लो-सिख युद्ध 1845 के अंत से 1846 की शुरुआत तक हुआ. इस संघर्ष के कारण सिख साम्राज्य की हार हुई और आंशिक रूप से गुलामी कबूल करनी रड़ा. जिसके चलते जम्मू और कश्मीर को ब्रिटिश वर्चस्व के तहत एक अलग रियासत के रूप में सौंप दिया गया.

ईस्ट इंडिया कंपनी ने 75 लाख रुपये में गुलाब सिंह को जम्मू और कश्मीर सौंपा

एक रणनीतिक कदम में गुलाब सिंह ने खुद को अंग्रेजों के लिए एक सहायक मध्यस्थ के रूप में स्थापित किया. 9 मार्च, 1846 को लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ, उन्हें लाहौर और ब्रिटिश दोनों सरकारों द्वारा एक स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता दी गई. नतीजतन, लाहौर के अधिकारियों ने कश्मीर और हजारा सहित व्यास और सिंधु नदियों के बीच के क्षेत्रों को अंग्रेजों को सौंप दिया. बदले में, कंपनी ने 75 लाख रुपये में गुलाब सिंह को जम्मू और कश्मीर सौंप दिया. 

गुलाब सिंह को मिला एक स्वतंत्र डोगरा राज्य, अंग्रेजों ने टाला मुश्किल संघर्ष

इसने गुलाब सिंह की एक स्वतंत्र डोगरा राज्य की महत्वाकांक्षा को साकार किया. जबकि अंग्रेजों को अपने संभावित कठिन संघर्ष को टाल देने में मदद मिली. हालांकि, ब्रिटिश सरकार और गुलाब सिंह के बीच लाहौर की संधि तब हुई जब गुलाब सिंह अभी भी सिखों के सामंत थे. नतीजतन, 16 मार्च को एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसे अमृतसर की संधि के रूप में जाना जाता है, ताकि औपचारिक रूप से उनके समझौते को रेखांकित किया जा सके. कंपनी ने राज्य की आंतरिक सुरक्षा की गारंटी नहीं दी, जिससे गुलाब सिंह को महत्वपूर्ण स्वायत्तता मिली.

1 नवंबर, 1846 को गुलाब सिंह की डोगरा महाराजा के रूप में कश्मीर में एंट्री

गुलाब सिंह को और उनके उत्तराधिकारियों को "सिंधु नदी के पूर्व और रावी नदी के पश्चिम में स्थित सभी पहाड़ी या पर्वतीय क्षेत्र, जिसमें चंबा और लाहुल शामिल नहीं है" की गारंटी दी गई थी. सिख 23 अक्टूबर, 1846 को श्रीनगर से वापस चले गए और 1 नवंबर, 1846 को गुलाब सिंह ने राज्य के पहले डोगरा महाराजा के रूप में कश्मीर में प्रवेश किया. यह भारत की सबसे बड़ी रियासतों में से एक की शुरुआत थी, जो 1947 तक गुलाब सिंह और उनके वंशजों के शासन में रही.

जम्मू कश्मीर में डोगरा काल (1846-1947) पर एक सरसरी नजर

जम्मू कश्मीर के इतिहास के विद्वानों का कहना है कि डोगरा शासन के दौरान कश्मीरियों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. जबकि बनिहाल कार्ट रोड, झेलम वैली कार्ट रोड और ज़ोजिला दर्रे जैसी परियोजनाओं के माध्यम से अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और बुनियादी ढांचे को बढ़ाने की पहल की गई थी, कठोर उपाय भी लागू किए गए थे. डोगरा शासन में दमनकारी कर लगाए गए, विशेष रूप से शॉल और रेशम उत्पादन में कुशल कारीगरों को प्रभावित किया.

साल 1924 के वसंत में कश्मीरी मजदूरों ने की पहली हड़ताल

कश्मीर: द केस फॉर फ्रीडम में, सह-लेखक तारिक अली ने जिक्र किया है कि कश्मीरी मजदूरों ने 1924 के वसंत में अपनी पहली हड़ताल की, जब राज्य के स्वामित्व वाली रेशम फैक्टरी के लगभग 5,000 कर्मचारियों ने वेतन बढ़ाने की मांग की थी. जबकि प्रबंधन ने मामूली वेतन वृद्धि को स्वीकार किया. उन्होंने विरोध करने वाले नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. शासकीय करों में ट्राकी (चावल पर कर), मालिकाना (ज़मींदार कर), सथराशाही (विवाह कर), रसूदार (घर कर) और यहां तक कि कब्रों, भेड़ों और फलों पर कर भी शामिल थे. इसने राज्य के शिल्प में गिरावट और जीवंत कलात्मक केंद्रों की गिरावट को बढ़ावा दिया.

मस्जिद में शुक्रवार के उपदेश को रोकने से मुस्लिमों की नाराजगी

तारिक अली ने अप्रैल 1931 में एक और उदाहरण का जिक्र किया, जब पुलिस ने जम्मू की एक मस्जिद में शुक्रवार के नमाज के बाद होने वाले उपदेश को रोक दिया. पुलिस ने यह दावा किया था कि उपदेशक द्वारा कुरान से मूसा और फिरौन का जिक्र करना राजद्रोहपूर्ण था. अली के अनुसार, इसने विरोध की एक नई लहर को जन्म दिया. जून तक, श्रीनगर अपनी सबसे बड़ी राजनीतिक रैली का गवाह बना, जहां मौजूद लोगों ने स्थानीय और औपनिवेशिक उत्पीड़न दोनों के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करने के लिए एक शॉल व्यापारी के बेटे शेख अब्दुल्ला सहित ग्यारह प्रतिनिधियों को चुना.

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घाटी में गहराया सांप्रदायिक विभाजन, शेख अब्दुल्ला की बढ़ी ताकत

शेख अब्दुल्ला ने अगले पचास वर्षों तक कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य को आकार दिया. क्षेत्र में सांप्रदायिक विभाजन गहरा गया क्योंकि जागीरें और अन्य अनुदान अक्सर कश्मीरियों से महाराजा के सह-धर्मियों और भरोसेमंद सहयोगियों को ट्रांसफर किए जाते थे. इससे सामाजिक स्थिति और भी जटिल हो गई. तारिक अली की किताब के मुताबिक, साल 1927 से 1929 तक जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री रहे एल्बियन राजकुमार बनर्जी ने परिस्थितियों को असहनीय माना. मामूली सुधारों को लागू करने में अपनी नाकामी से निराश होकर उन्होंने इस्तीफा देने का फैसला किया.

उन्होंने कहा, "बड़ी मुस्लिम आबादी बिल्कुल अशिक्षित है, गरीबी में जी रही है और गांवों में रहने की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है. व्यावहारिक रूप से वे खामोश मवेशियों की तरह शासित हैं." 

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