Raj Kapoor Film: हिंदी साहित्य की कहानियों पर चुनिंदा ऐसी फिल्में हैं, जो बनने के बाद लोगों को याद रही. इन फिल्मों तीसरी कसम को सबसे ऊपर रखा जा सकता है. लेकिन विडंबना है कि जो फिल्म अपने समय में नहीं चली, आगे चल कर उसे क्लासिक का दर्जा मिला.
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Classic Hindi Films: हिंदी के लोकप्रिय साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम पर बनी फिल्म तीसरी कसम (1966) क्लासिक फिल्मों की श्रेणी में रखी जाती है. लेकिन जब फिल्म रिलीज हुई थी तो बॉक्स ऑफिस पर नाकाम साबित हुई. शानदार गीतकार शैलेंद्र द्वारा प्रोड्यूस की गई यह पहली और आखरी फिल्म थी. राज कपूर और वहीदा रहमान फिल्म के मुख्य कलाकार थे और बासु भट्टाचार्य ने फिल्म को निर्देशित किया था. कहा जाता है कि इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप होने का सदमा शैलेंद्र सह नही सके और जल्दी ही दुनिया छोड़ कर चले गए.
लगा फिल्म का सदमा
शैलेंद्र को राज कपूर फिल्मों में लाए थे. शैलेंद्र ने राज कपूर की फिल्मों के लिए गाने ही नहीं लिखे बल्कि वह उनके बहुत अच्छे दोस्त भी थे. राज कपूर उन्हें कविराज कह कर बुलाते थे. जब तक शैलेंद्र जीवित रहे, राज कपूर की सारी फिल्मों के गाने उन्होंने ही लिखे. बरसात में हम से मिले तुम, आवारा हूं, मेरा जूता है जापानी जैसे एवरग्रीन गाने उन्होंने हिंदी फिल्मों को दिए. अपने समय के वह सबसे महंगे गीतकार थे और एक फिल्म के लिए उस जमाने में एक लाख रुपये लेते थे. गीतकार के रूप में नाम कमाने के बाद उन्होंने तीसरी कसम फिल्म प्रोड्यूस की, लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नहीं चल सकी. जिसके चलते शैलेंद्र इतने सदमें में आ गए कि बहुत ज्यादा शराब पीने लगे और सिर्फ 43 साल की उम्र में इस दुनिया से चल बसे. इसे संयोग कहिए कि जिस दिन राज कपूर का जन्मदिन था, उसी दिन उनके बहुत अच्छे दोस्त शैलेंद्र ने इस दुनिया को अलविदा कहा. इसके बाद राज कपूर ने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया.
दी थी राज कपूर ने सलाह
तीसरी कसम बैलगाड़ी चलाने वाले हीरामन की कहानी थी जो नौटंकी में नाचने वाली हीराबाई (वहीदा रहमान) के प्यार में पड़ जाता है. राज कपूर ने हीरामन और वहीदा रहमान ने हीराबाई का किरदार निभाया था. पहले इन भूमिकाओं के लिए महमूद और मीना कुमारी को लिया जा रहा था. लेकिन फिर राज कपूर ने अपने दोस्त शैलेंद्र के लिए यह फिल्म की. उन्होंने सिर्फ एक रुपये में यह फिल्म साइन की. राज कपूर ने शैलेंद्र को सलाह दी थी कि वह फिल्म को उसके साहित्यिक अंदाज से हट कर जरा कमर्शियल तरीके से बनाएं लेकिन शैलेंद्र नहीं माने और फिल्म अपने तरीके से ही बनाई, जिसका अंत दर्शकों को पसंद नहीं आया. अच्छे गाने, अच्छा डायरेक्शन होने के बावजूद यह फिल्म फ्लॉप रही लेकिन फिर समय के साथ दर्शकों पर इसका रंग चढ़ा और आगे यह क्लासिक फिल्म मानी गई. 1967 में इसे बेस्ट फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड मिला, लेकिन दुख की बात थी कि यह देखने के लिए शैलेंद्र जीवित नहीं थे.
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