प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने माना कि 2013 के फैसले को रद्द करते हुए 2018 में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने जो फैसला सुनाया था
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नई दिल्लीः उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को समलैंगिकता से संबंधित 2013 के अपने फैसले के खिलाफ दायर गैर सरकारी संगठन नाज फाउंडेशन ट्रस्ट की उपचारात्मक याचिका को उसे वापस लेने की अनुमति दे दी. उच्चतम न्यायालय ने 2013 में दो वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंध को एक बार फिर गैरकानूनी घोषित किया था, जिसके खिलाफ इस संगठन ने उपचारात्मक याचिका दायर की थी. लेकिन 2018 में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने अपने इस फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था. प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने माना कि 2013 के फैसले को रद्द करते हुए 2018 में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने जो फैसला सुनाया था, उसे देखते हुए अब इस संगठन की उपचारात्मक याचिका निष्प्रभावी हो गयी है.
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ट्रस्ट ने पहले 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी. उच्च न्यायालय के फैसले के बाद यह मामला उच्चतम न्यायालय पहुंच गया था. शीर्ष अदालत 2013 के फैसले के बाद उच्चतम न्यायालय ने पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया था जिससे उपचारात्मक याचिका दायर करने का रास्ता साफ हुआ. हालांकि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सहमति से समलैंगिक संबंध को अपराधमुक्त घोषित करने के अनुरोध वाली नयी याचिकाओं पर सुनवाई की.
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एनजीओ ने कहा कि 2018 के फैसले में पहले ही पूर्व के फैसले को रद्द कर दिया गया और इसलिए उसे अपनी उपचारात्मक याचिका वापस लेने की अनुमति दी जाये. शीर्ष अदालत ने इसकी अनुमति दे दी. पिछले साल छह सितंबर को संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से ब्रिटिश कालीन कानून के कुछ पहलुओं को पलटते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को ''अतार्किक, अनिश्चित और स्पष्ट रूप से मनमाना'' बताया था. पीठ ने माना कि लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर एवं क्वीर (एलजीबीट) समुदाय के लोगों को भी किसी भी आम नागरिक की तरह समान संवैधानिक अधिकार हैं और समान लिंग के दो वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध को अपराध बताने वाली धारा 377 के ये हिस्से समानता एवं प्रतिष्ठा के साथ जीने के अधिकार का हनन है.
(इनपुट भाषा)