हर व्यक्ति उम्र के किसी ना किसी पड़ाव पर भगत सिंह (Bhagat Singh) से जरूर प्रभावित होता है, ये अलग बात है कि उसे भगत सिंह के बारे में बस दो ही बातें पता होती हैं कि कैसे सांडर्स को गोली मारी और कैसे सेंट्रल असेम्बली में बम फेंके.
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नई दिल्ली: हर व्यक्ति उम्र के किसी ना किसी पड़ाव पर भगत सिंह (Bhagat Singh) से जरूर प्रभावित होता है, ये अलग बात है कि उसे भगत सिंह के बारे में बस दो ही बातें पता होती हैं कि कैसे सांडर्स को गोली मारी और कैसे सेंट्रल असेम्बली में बम फेंके, जिसकी चलते उन्हें सुखदेव व राजगुरू के साथ फांसी पर लटका दिया गया. ऐसे में आज आप भगत सिंह की 114वीं जयंती पर उनके जीवन की कुछ और दिलचस्प व अनसुनी कहानियां जानेंगे.
किताबों के शौकीन थे भगत सिंह
जैसे ही भगत सिंह या सावरकर की जयंती या पुण्यतिथि आती है, तमाम लोग अपने अपने एजेंडे के चलते दोनों की तुलना शुरू कर देते हैं, लेकिन कोई ये बात नहीं करता कि दोनों एक दूसरे के बारे में क्या सोचते थे? भगत सिंह और सावरकर कभी मिले भी थे क्या? क्या भगत सिंह भी सावरकर से उतनी ही घृणा करते थे, जितनी उनके ये तथाकथित चाहने वाले करते हैं? तो आज जान लीजिए, भगत सिंह जब जेल में थे, तो वो कई किताबें पढ़ रहे थे, जिसमें 2 किताबें वीर सावरकर की लिखी हुई ही थीं. इनमें से एक थी, ‘हिंदू पद पादशाही’ और दूसरी थी ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’. दोनों किताबों से बनाए नोट्स भगत सिंह की जेल डायरी में देखे जा सकते हैं.
भगत सिंह का सावरकर कनेक्शन
भगत सिंह ने जब ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ को पढ़ा तो फौरन रत्नागिरी पहुंच गए, जहां सावरकर नजरबंद थे. ये 1928 की बात है, उनसे उस किताब का पंजाबी संस्करण छापने की इजाजत मांगी, ताकि युवा क्रांतिकारियों के बीच जोश जगाया जा सके. उस किताब का मूल्य उन्होंने थोड़ा ज्यादा भी रखा ताकि उस पैसे से एचआरएसए के लिए थोड़ा पैसा भी इकट्ठा हो सके. ये ध्यान रखिए, ना तो कभी भगत सिंह ने सावरकर के विषय में और ना ही सावरकर ने भगत सिंह के विषय में कभी भी कोई असम्मानजनक शब्द कहा. बल्कि जब भगत सिंह को फांसी हुई तो वीर सावरकर की मराठी में एक कविता भी सामने आई, जो फांसी के दिन रत्नागिरि में नौजवानों ने जुलूस निकालकर गाई, उसकी शुरूआती लाइनें ये थीं-
‘’हा भगतसिंह, हाय हा
जाशि आजि, फांसी आम्हांस्तवचि वीरा, हाय हा!
राजगुरू तूं, हाय हा!
राष्ट्र समरी, वीर कुमरा पडसि झुंजत, हाय हा!
हाय हा, जयजय अहा!
हाय हायचि आजची, उदयीकच्या जिंकी जया’’
भगत सिंह का गीता प्रेम
नास्तिक होने के बावजूद धर्म को समझने की कोशिश
यूं भगत सिंह सिख थे, लेकिन शुरूआत से ही विदेशी साहित्य पढ़ने के चलते उनके विचारों में कई तरह के परिवर्तन आ रहे थे. शुरूआत में वो पूरी तरह विदेशी क्रांतिकारियों से प्रभावित थे, बाद में उन्होंने तमाम भारतीय साहित्य पढ़ना शुरू किया, जिसमें सावरकर की दोनों किताबों हिंदू पदपादशाही, 1857 का स्वातंत्र्य समर के अलावा गांधीजी की ‘हिंद स्वराज’, लाला लाजपत राय की ‘मदर इंडिया का जवाब’, रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा, सचीन्द्र नाथ सान्याल की ‘बंदी जीवन’ आदि तमाम किताबें तो पढ़ ही रहे थे, उसमें से नोट्स भी बना रहे थे. यानी जो भी बातें उन्हें अच्छी लगीं, उनको अपनी डायरी में लिख रहे थे. खुद को नास्तिक बताने वाले भगत सिंह फिर धर्म को भी समझने
की कोशिश करने लगे रहे. जहां गुरु गोविंद सिंह पर लिखी एक किताब वो जेल में पढ़ रहे थे, वहीं ‘अकाली दर्शन’ को भी पढ़ रहे थे.
गीता रहस्य समझने के लिए जेल में मंगवाई पुस्तक
भागवद गीता पर लिखी बाल गंगाधर तिलक की टीका ‘गीता रहस्य’ को भी उन्होंने जेल में पढ़ने के लिए मंगवाया था. इतना ही नहीं नवांशहर (पंजाब) में उनके म्यूजियम में भी भागवद गीता की एक कॉपी रखी है, जिस पर खुद भगत सिंह के हस्ताक्षर हैं. बताया जाता है कि जेल के एक कर्मचारी ने उन्हें ये गीता की एक प्रति दी थी. वो गीता को समझने की लगातार कोशिश कर रहे थे. इसे ढंग से समझने के लिए उन्होंने तिलक की ‘गीता रहस्य’ भी मंगवाई थी. इतना ही नहीं सिख धर्म के दर्शन के अलावा हिंदू धर्म के दर्शन को भी समझ रहे थे.
हिंदू- सिखों के धार्मिक ग्रंथ पढ़ रहे थे
हमेशा क्रांतिकारियों मे जोश जगाने के लिए विदेशी क्रांतिकारियों से प्रेरणा लेने वाले भगत सिंह ने इसी काम के लिए सावरकर की किताब को सबसे बेहतरीन पाया. उन्होंने सावरकर की दूसरी किताब ‘हिंदू पदपादशाही’ से मराठों को जबरन धर्मांतरण करने वालों के खिलाफ समर्पण करने के बजाय लड़ते लड़ते जान देने की प्रेरणा देने वाले समर्थ गुरू रामदास की लाइनें भी अपनी डायरी में नोट की थीं, वो लाइनें थीं-‘धर्मान्तरित होने की बजाय मार डाले जाओ… (उस समय हिंदुओं के बीच यही पुकार प्रचलित थी) लेकिन रामदास उठ खड़े हुए और कहा कि इससे भी अच्छा ये प्रयास करना है कि न तो मारे ही जाओ और न ही धर्मान्तरित हो बल्कि स्वंय हिंसक शक्तियों को मार डालो. यदि मृत्यु
अनिवार्य हो तो मारे जाओ, लेकिन जीत हासिल करने के लिए मारते हुए मरो, धर्म के लिए जीत हासिल करो.
सनातन प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे थे भगत सिंह
इन लाइनों और गीता को समझने की ललक से आप समझ सकते हैं कि वे लगातार सनातन प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे थे. गीता और फिर गीता की टीका को जेल में मंगाकर पढ़ना, सावरकर की किताब से धर्मान्तरण से जुड़े नोट्स बनाना, (कुछ और भी नोट्स लिए थे, इस किताब से जो वीरों में जोश जगाने वाले थे) साबित करता है कि आपने भगत सिंह के बारे में जो पढ़ा, वो बेहद कम था, भगत सिंह की उम्र की तरह ही.
भगत सिंह ने रखी शोकसभा, अस्थियां भारत लाए मोदी
ये बेहद दिलचस्प कहानी है, कहां मोदी और कहां भगत सिंह, लेकिन एक क्रांतिकारी श्यामजी की कहानी में दोनों ही जुड़ गए. ये क्रांतिकारी दरअसल विदेश की धरती पर क्रांतिकारियों के सबसे बड़े मेंटर थे, उन्होंने जीवन भर की कमाई से लंदन के बीचोंबीच एक इमारत बनवाई और भारत के 25 क्रांतिकारियों के लिए फेलोशिप शुरू की, ताकि वो इंडिया हाउस लंदन में मुफ्त रहकर लंदन की यूनीवर्सिटी में पढ़ते हुए देश को आजाद करवाने की कोशिशों में जुटें, सावरकर को भी उन्हीं की शिवाजी फेलोशिप पर लंदन जाने का और इंडिया हाउस में रहने का मौका मिला. मदन लाल धींगरा भी वहीं रहे, इंडिया हाउस क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया था.
श्यामजी ने अपनी और पत्नी की अस्थियां बुक करवाई
लेकिन एक दिन श्यामजी को पेरिस निकलना पड़ा, ब्रिटिश सरकार उनके पीछे पड़ गई थी तो वो जर्मनी आदि होते हुए स्विटजरलैंड आ गए. सावरकर की गिरफ्तारी के बाद उनकी हिम्मत और जवाब दे गई. एक दिन पंडित नेहरू से उन्होंने स्विटजरलैंड में अपनी सारी सम्पत्ति लेने के लिए कहा ताकि देश के काम आ सके, लेकिन नेहरूजी ने कोई जवाब नहीं दिया. आखिरकार उन्होंने वहीं की एक अस्थि बैंक में अपनी और पत्नी भानुमति की अस्थियां बुक करवाईं कि देश आजाद होगा तो कोई ना कोई उन्हें आकर ले जाएगा.
नरेंद्र मोदी स्विटरजरलैंड से श्यामजी की अस्थियां वापस लाए
1930 में जब श्यामजी की मौत की खबर आई तो भगत सिंह लाहौर जेल में बंद थे. उन्होंने साथियों सहित जेल में श्यामजी के लिए शोकसभा रखी. देश आजाद हो गया, लेकिन लोग श्यामजी को भूल गए. श्याम जी गुजरात के मांडवी के रहने वाले थे. नरेंद्र मोदी को 2002 में श्यामजी की अस्थियों के बारे में बताया गया तो वे खुद स्विटरलैंड जाकर वे अस्थियां लेकर आए. इतनी ही नहीं श्यामजी के स्मारक के तौर पर मांडवी में इंडिया हाउस की हूबहू प्रतिकृति भी बनवाई.
भगत सिंह के गुरू थे करतार सिंह सराभा
करतार सिंह सराभा को भगत सिंह अपना गुरु मानते थे. करतार सिंह की कहानी भगत सिंह से कम नहीं है. भगत सिंह तो देश के लिए 23 साल की उम्र में फांसी चढ़े थे, लेकिन करतार सिंह सराभा तो केवल 19 साल की उम्र में ही फांसी चढ़ गए थे, तभी तो भगत उन्हें अपना गुरू मानते थे. हमेशा उनकी फोटो अपनी जेब में रखते थे. कौन थे करतार सिंह सराभा? 1912 में 15 साल के करतार को परिवार ने पंजाब से यूनीवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया बर्कले में पढ़ने भेजा था. वहां पहुंचते ही भारतीय होने के नाते उनका जो अपमान हुआ, उन्हें पहली बार गुलामी का अहसास हुआ.
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देश को आजाद कराने पिंगले के साथ वापस लौटे सराभा
वे पहले नालंदा क्लब ऑफ इंडियन स्टूडेंट्स से जुड़े, फिर गदर क्रांतिकारियों से जुड़ गए. सावरकर के शिष्य विष्णु गणेश पिंगले ने उनका साथ. 1914 में कई गदर क्रांतिकारियों को साथ लेकर करतार और पिंगले भारत आए. सबसे पहले कोलकाता में वे बाघा जतिन से मिले. इसके बाद जतिन का पत्र लेकर बनारसत में रास बिहारी बोस से मिले. योजना बनी कि एक साथ 26 सैन्य छावनियों में विद्रोह किया जाएगा और भारत को आजाद करवा दिया जाएगा. लेकिन एक गद्दार ने सारा कार्य़क्रम अंग्रेजों तक पहुंचा दिया और एक एक करके सभी गिरफ्तार हो गए. रासबिहारी तो किसी तरह बचकर जापान निकल गए लेकिन करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले को पकड़कर फांसी दे दी गई.
अपना नाम हमेशा के लिए अमर कर गए करतार सिंह सराभा
सोचिए करतार सिंह सराभा अमीर परिवार का बच्चा, अमेरिकी यूनीवर्सिटी से इंजीनियरिंग करके ऐशो आराम की जिंदगी जीता, लेकिन वो इतनी कम उम्र में विदेश से आकर देश को आजाद करने निकला था. दादाजी जेल में मिलने आए और करतार से कहा, बेटा सारे रिश्तेदार तुझे बेवकूफ बता रहे हैं तो करतार का जवाब था, कोई हैजे से मर जाएगा, कोई मलेरिया से, कोई प्लेग. मुझे ये मौत देश की खातिर मिल रही है, उनके ऐसे नसीब कहां’. दादाजी की आंखों में गर्व के आंसू थे. उसी गर्व से भगत सिंह क्रांतिकारियों की हर मीटिंग से पहले करतार के चित्र पर फूल चढ़ाते थे.
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