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नई दिल्ली: डीएनए (DNA) में आज हमारे पास आपके लिए एक एक्स्ट्रा विचार भी है. इस बार दिवाली से ज्यादा चर्चा पटाखों और इनसे होने वाले प्रदूषण (Air Pollution on Diwali) की हो रही है. देश की अलग अलग अदालतों में इस बात पर बहस हो रही है कि पटाखों पर आंशिक प्रतिबंध होना चाहिए या पटाखों पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा देना चाहिए. हम इस मुद्दे पर सभी अदालतों के फैसलों का निष्कर्ष निकालें तो वो ये है कि जहां भी हवा की गुणवत्ता खराब है या सामान्य श्रेणी में भी है, वहां केवल दीवाली के त्योहार को देखते हुए पटाखों के इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी जा सकती और हमें भी इसमें कोई आपत्ति नहीं है.
अगर प्रदूषण का कारण सिर्फ पटाखे ही हैं तो जरूर इन पर बैन लगना चाहिए. लेकिन यहां हमारा एक सवाल भी है. दीवाली का त्योहार अभी तक आया नहीं है. पूरा देश कल दीवाली मनाएगा. लेकिन इससे 24 घंटे पहले ही उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में वायु प्रदूषण खतरनाक श्रेणी में पहुंच गया है. अकेले सिर्फ दिल्ली की बात करें तो आज यहां एयर क्वालिटी इंडेक्स (Air Quality Index) 213 रिकॉर्ड किया गया.
अगर AQI 200 से 250 के बीच हो तो हवा की गुणवत्ता खराब मानी जाती है. सोचिए अभी तक ना तो दीवाली आई है और ना ही पटाखे फोड़े गए हैं तो फिर ये प्रदूषण कहां से आ गया ?
अगर प्रदूषण का बड़ा कारण पटाखे ही हैं और सारी अदालतों का ध्यान इसी पर है तो फिर पिछले एक हफ्ते में उत्तर भारत की हवा इतनी ज्यादा प्रदूषित कैसे हो गई? असल में इस प्रदूषण के तीन बड़े कारण हैं, जिनके बारे में आपको ज्यादा बताया नहीं जाता. इनमें सबसे पहला कारण है किसानों द्वारा जलाई जाने वाली पराली. अभी दिल्ली की हवा में जितना प्रदूषण है, उसमें 40% पराली की वजह से है. वहीं 28% प्रदूषण वाहनों की वजह से है तो 30% Construction यानी निर्माण कार्यों की वजह से है और ऐसा नहीं है कि ये कारण पहले नहीं थे.
पिछले साल भी 3 नवम्बर को दिल्ली में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर था और इस प्रदूषण में भी पराली की हिस्सेदारी लगभग 50% के आसपास थी. यानी हमारे देश की अदालतें जितना ज़ोर पटाखों से होने वाले प्रदूषण पर देती हैं, अगर उतना जोर पराली को जलाने से रोकने पर दिया गया होता तो शायद आज उत्तर भारत की हवा थोड़ी साफ होती. लेकिन सच ये है कि दीवाली का त्योहार आते ही पटाखों की चिंता तो सबको होने लगती है लेकिन पराली से होने वाले प्रदूषण की कोई बात नहीं करता.
वैसे पिछले साल केंद्र सरकार एक अध्यादेश लाई थी, जिसके तहत पराली जलाने वाले लोगों पर अधिकतम एक करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया था. लेकिन दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों ने सरकार पर दबाव बनाया कि वो उन्हें इस कानून से छूट दे और केन्द्र सरकार ने भी उनकी ये बात मान ली. इसमें नोट करने वाली बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने तब इस पर कोई स्वत संज्ञान नहीं लिया. जबकि अगर पटाखों के मामले में सरकार ऐसा कोई फैसला लेती तो शायद अदालतों में इस पर अगले दिन ही सुनवाई शुरू हो जाती.
ये भी अजीब विडम्बना है कि हमारे देश में जब पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़े जाते हैं तो इन पटाखों के धुएं में अभिव्यक्त का विचार होता है. लेकिन जब दीवाली पर पटाखे जलाने की बात आती है तो इन पटाखों का धुआं साम्प्रदायिक रूप ले लेता है. और ऐसा किसी एक हिन्दू त्योहार पर नहीं होता. सभी हिन्दू त्योहारों पर एक मुहिम शुरू हो जाती है, जिसमें त्योहारों से जुड़ी परम्पराओं को सामाजिक बदलाव के नाम पर चुनौती दी जाती है.
जैसे होली पर ये कहा जाता है कि इस बार पानी की बर्बादी ना करें. और Organic रंगों का ही इस्तेमाल करें.
दीवाली पर कहा जाता है कि पटाखे ना फोड़ें क्योंकि इससे प्रदूषण होता है. Eco Friendly Diwali जैसे Slogan दिए जाते हैं.
गणेश चतुर्थी पर अपील की जाती है कि लोग इस बार अपने घर Eco Friendly मूर्तियां लाएं, ताकि विसर्जन के वक्त समुद्र का पानी दूषित ना हो.
नवरात्रि के त्योहार को महिला अपराधों से जोड़ दिया जाता है. और कुछ लोग इसकी आड़ में अपना एजेंडा चलाते हैं.
और इसी तरह की मुहिम राखी के त्योहार पर भी चलाई जाती है.
लेकिन अब सोचिए क्या आपने दूसरे धर्मों के त्योहारों के ख़िलाफ़ ऐसी कोई मुहिम देखी हैं? क्या जिस तरह दीवाली से पहले देश में पटाखों के इस्तेमाल पर बहस शुरू हो जाती है, क्या वैसी ही बहस ईद पर जानवरों की कुर्बानी को लेकर होती है? जबकि अमेरिका की नेशनल एकडमी ऑफ साइंस (National Academy of Sciences) की एक Study के मुताबिक प्रदूषण का एक कारण जानवरों को मारना भी है. लेकिन हमारे देश की अदालतें दीवाली से पहले पटाखों से होने वाले प्रदूषण की तो समीक्षा करती हैं लेकिन ईद से पहले इस तरह के मुद्दों का कोई जिक्र नहीं होता.
इन सभी त्योहारों पर आजकल एक और नई मुहिम शुरू हुई है, जिसमें लोगों को मिठाइयों की जगह चॉकलेट से मुंह मीठा कराने के लिए कहा जाता है. सोचिए जिस देश में होली पर घरों में गुझिया बनाने की परम्परा है, दीवाली पर लोग घरों में बेसन और मेवे की अलग अलग मिठाइयां बनाते हैं, गणेश चतुर्थी पर मोदक तैयार किए जाते हैं, उस देश में इन त्योहारों पर लोगों से कहा जाता है कि वो मिठाइयां ना खा कर इस बार चॉकलेट से एक दूसरे का मुंह मीठा कराए. और हमारे देश के बहुत सारे लोग इस तरह की मुहिम से प्रभावित भी हो जाते हैं.
लेकिन हमारा सवाल फिर वही है कि क्या आपने ईद के त्योहार पर किसी को ये कहते हुए सुना है कि इस बार सेवइयों की जगह चॉकलेट से मुंह मीठा होना चाहिए या क्रिसमस के त्योहार पर केक की जगह चॉकलेट खा कर सेलिब्रेट करना चाहिए. हमारा मानना है कि सभी धर्मों में त्योहारों से जुड़ी अलग अलग परम्पराएं हैं और इन सभी परम्पराओं का बराबरी से सम्मान होना चाहिए. जैसे ईद सेवइयों के बिना अधूरी है, क्रिसमस केक के बिना अधूरा है. वैसे ही होली और दीवाली के त्योहार भी मिठाइयों के बिना अधूरे हैं.
हो सकता है कि आज कुछ लोगों को हमारी ये बातें अच्छी ना लगें. और वो हम पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाएं. लेकिन सच ये है कि हम आपको वही बातें बता रहे हैं, जो इस देश में आजकल हो रही है. लेकिन समस्या ये है कि किसी में भी इस पर आवाज उठाने की हिम्मत नहीं है.