DNA Analysis: Taliban का खूंखार चेहरा, अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति को चौराहे पर लटकाया
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DNA Analysis: Taliban का खूंखार चेहरा, अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति को चौराहे पर लटकाया

Taliban Atrocities In Afghanistan: अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह ने कश्मीर के बारामुला से पढ़ाई की थी. बाद में उनकी तीन बेटियों ने भी भारत में राजनीतिक शरण ली थी.

अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की हत्या.

काबुल: जो देश इतिहास में हुई गलतियों से सीख नहीं लेते, इतिहास भी उन्हीं देशों में खुद को दोहराता है. अफगानिस्तान (Afghanistan) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. बस फर्क इतना है कि वर्ष 1989 में सोवियत संघ (USSR) ने अफगानिस्तान के लोगों के साथ विश्वासघात किया था और इस बार उसकी जगह अमेरिका (US) ने ली है. इन दोनों घटनाक्रमों में एक समानता ये भी है कि इनकी वजह से अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था पाताल लोक में पहुंच गई.

  1. नजीबुल्लाह को था सोवियत संघ का समर्थन
  2. कट्टरपंथी बने तालिबान के दुश्मन
  3. नजीबुल्लाह ने राष्ट्रपति के पद से दिया इस्तीफा

तालिबान से नहीं बच सके नजीबुल्लाह

जब सोवियत संघ अफगानिस्तान छोड़ कर भागा था तो वहां के राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह (Mohammad Najibullah) को कट्टरपंथियों के दबाव में राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देना पड़ा था और इस बार भी अमेरिका के जाने के बाद अशरफ गनी को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा. यानी स्थिति ज्यादा नहीं बदली है. अगर कुछ बदला है तो वो ये कि अशरफ गनी कट्टरपंथियों से अपनी जान बचाने में कामयाब रहे लेकिन नजीबुल्लाह चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाए थे.

नजीबुल्लाह को चौराहे पर लटकाया

27 सितंबर 1996 को तालिबान ने उनकी हत्या करके, उनकी लाश को चौराहे पर एक लैंप पोस्ट से लटका दिया था. इसलिए आज आपको उनके बारे में भी जानना चाहिए. अशरफ गनी का डर बिल्कुल सही है क्योंकि तालिबान ने मोहम्मद नजीबुल्लाह के साथ ऐसा ही किया था. नजीबुल्लाह वर्ष 1987 से 1992 तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति थे. उन्हीं के कार्यकाल में अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा मुजाहिदीन संगठन तैयार हुए. तालिबान भी इन्हीं में से एक था.

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वर्ष 1989 में जब सोवियत संघ ने अपनी सेना को अफगानिस्तान से वापस बुलाया तो नजीबुल्लाह की सरकार कमजोर होने लगी थी. नजीबुल्लाह वहां की People's Democratic Party के सुप्रीम लीडर थे, जो एक Communist Party थी और कट्टरपंथी मुजाहिदीन इसी बात से चिढ़ते थे.

आतंकी क्यों बने नजीबुल्लाह के दुश्मन?

मुजाहिदीन संगठनों का मानना था कि नजीबुल्लाह अल्लाह में विश्वास नहीं करने वाले Communist नेता हैं, जो एक मुस्लिम देश पर राज कर रहे हैं. इसकी वजह से कतर, सऊदी अरब और पाकिस्तान जैसे देश भी उनसे नफरत करते थे. अमेरिका भी मुजाहिदीन संगठनों का साथ दे रहा था. भारत उस समय भी अकेला ऐसा देश था, जिसने कट्टरपंथियों का साथ ना देकर लोकतांत्रिक सरकार पर भरोसा किया. 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने नजीबुल्लाह को भारत दौरे पर बुलाया और उन्हें अपना समर्थन दिया.

भारत चाहता था कि अफगानिस्तान में कट्टरपंथी ताकतें मजबूत ना हों और इसका फायदा पाकिस्तान को ना मिले. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वर्ष 1992 तक 15 अलग-अलग मुजाहिदीन संगठन काबुल के नजदीक पहुंच गए और नजीबुल्लाह को समझ आ गया कि अब उनकी सरकार वहां नहीं रहेगी. इसी साल उन्होंने ये घोषणा की कि जब उन्हें उनका विकल्प मिल जाएगा तो वो राष्ट्रपति पद से हट जाएंगे.

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लेकिन इसके बाद भी मुजाहिदीन संगठन उनकी जान के प्यासे थे. नजीबुल्लाह ने कश्मीर के बारामुला से पढ़ाई की थी और उनके भारत से अच्छे रिश्ते थे, इसलिए उन्होंने इसी साल अपनी पत्नी और तीन बेटियों को राजनीतिक शरण के लिए भारत भेज दिया.

इसके दो हफ्तों के बाद नजीबुल्लाह भी अपनी जान बचाने के लिए भारत आने वाले थे. अफगानिस्तान में United Nations के अधिकारी रहे Phillip Corwin अपनी पुस्तक, Doomed in Afghanistan में लिखते हैं कि 17 अप्रैल 1992 को नजीबुल्लाह ने भारत जाने की सारी तैयारियां कर ली थीं. वो रात करीब 2 बजे Indian Ambassador की गाड़ी में काबुल एयरपोर्ट के लिए निकले और उन्हें एक Code Word दिया गया था.

इस Code Word को बता कर उन्होंने तीन चेक पोस्ट पार कर लीं लेकिन काबुल एयरपोर्ट से कुछ दूर चौथी चेक पोस्ट पर Code Word बताने के बाद भी उनकी गाड़ी को रोक लिया गया. उसी समय नजीबुल्लाह को ये खबर भी मिली कि मुजाहिदीन संगठन के नेता अब्दुल रशीद दोस्तम ने काबुल एयरपोर्ट को घेर लिया है, जहां भारत जाने के लिए एक विमान उनका इंतजार कर रहा था. अब्दुल रशी दोस्तम वही नेता हैं, जो इस समय उत्तरी अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ अपने लड़ाकों के साथ हमले कर रहे हैं.

उस दिन दोस्तम की वजह से नजीबुल्लाह भारत नहीं आ पाए और उन्हें जान बचाने के लिए काबुल में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में जाना पड़ा. यहां वो लगभग चार वर्षों तक रहे और 27 सितम्बर 1996 को तालिबान ने काबुल पर अपने कब्जे के बाद उन्हें संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर से निकाल कर उनकी हत्या कर दी. इससे पता चलता है कि संयुक्त राष्ट्र लोकतंत्र, सुरक्षा और मानव अधिकारों को बचाने में ज्यादा कुछ नहीं कर पाया है.

मशहूर पत्रकार डेनिस जॉन्सन एक लेख में बताते हैं कि उस दिन नजीबुल्लाह को खींच कर उनके कमरे से निकाला गया. उन्हें बुरी तरह से पीटा गया, उनके शरीर के अंगों को काट दिया गया और सिर में गोली मार कर पहले क्रेन पर लटकाया गया और फिर राजमहल के पास चौराहे पर एक लैंप पोस्ट से लटका दिया गया.

कहा जाता है कि जब लोगों की नजर उन पर पड़ी तो उनके मृत शरीर की आंखे सूजी हुई थीं और उनके मुंह में जबरदस्ती सिगरेट ठूस दी गई थी. इसके अलावा उनकी जेबों में भरे गए नोट भी साफ दिखाई दे रहे थे. नजीबुल्लाह की ये तस्वीर हमारे देश के उस खास वर्ग को जरूर देखनी चाहिए, जो तालिबान की तारीफ कर रहा है.

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