Presidential Election: जी न्यूज की स्पेशल सीरीज महामहिम में आज जानिए फखरुद्दीन अली अहमद की कहानी, जिन्होंने बतौर राष्ट्रपति इमरजेंसी पर दस्तखत किए थे. इस फैसले के बाद उनकी आलोचना हुई, जिसे लेकर बाद में उन्हें गलती का अहसास हुआ लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
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Presidential Election: रात के 11 बजकर 15 मिनट हो रहे थे. दौर था 1975 का और तारीख थी 25 जून. राष्ट्रपति भवन उस रात दोराहे पर खड़ा था. रायसीना हिल्स पर देश के पांचवें महामहिम फखरुद्दीन अली अहमद अपने निजी कमरे में थे. उन्होंने अपने सेक्रेटरी के. बालचंद्रन को बुलाया. राष्ट्रपति ने अपने सेक्रेटरी को एक पन्ने का खत दिया, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लिखा था. इस खत पर लिखा था 'टॉप सीक्रेट'. उसी दिन फखरुद्दीन अली अहमद और इंदिरा गांधी के बीच बातचीत भी हुई थी. ये वो रात थी, जिसने भारतीय इतिहास के सुनहरे पन्नों पर एक बदनुमा दाग हमेशा के लिए छोड़ दिया.
इंदिरा गांधी के भेजे खत में लिखा था, 'मुझे यह सूचना मिली है कि अनियंत्रित आंतरिक स्थितियों के कारण देश की अंदरूनी सुरक्षा को खतरा है. अगर राष्ट्रपति संतुष्ट हैं तो आर्टिकल 352 (1) के तहत देश में इमरजेंसी घोषित की जाए. इस मामले में पहले कैबिनेट से सलाह लेनी चाहिए थी लेकिन वक्त गंवाया नहीं जा सकता.' राष्ट्रपति ने इस खत पर अपने सेक्रेटरी की राय पूछी. इस खत में प्रस्तावित घोषणा भी अटैच नहीं थी. बालचंद्रन ने कहा कि ऐसी घोषणा एक से ज्यादा आधारों पर संवैधानिक रूप से नाजायज है.
इस पर राष्ट्रपति ने कहा कि वह संविधान देखकर राय बनाना चाहते हैं. बालचंद्रन संविधान की एक कॉपी खोजने के लिए अपने कार्यालय वापस चले गए. इस दौरान राष्ट्रपति सचिवालय में डिप्टी सेक्रेटरी भी पहुंच गए. राष्ट्रपति अहमद के पास संविधान की कॉपी लेकर लौटने से पहले दोनों अफसरों ने प्रधानमंत्री के प्रस्ताव की संवैधानिकता के बारे में चर्चा की. बालचंद्रन ने समझाया कि अगर राष्ट्रपति की व्यक्तिगत संतुष्टि ये है कि आंतरिक स्थितियां गृह सुरक्षा के लिए खतरा हैं तो ये संवैधानिक रूप से बेतुकी बात है. संविधान के मुताबिक इसके लिए पहले कैबिनेट से सलाह जरूरी है.
बालचंद्रन वापस राष्ट्रपति अहमद के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा कि वह प्रधानमंत्री से बात करना चाहते हैं. इसके बाद बालचंद्रन वापस चले गए. जब 10 मिनट बाद वह फिर से कमरे में आए, तो राष्ट्रपति अहमद ने उन्हें बताया कि आरके धवन (इंदिरा गांधी के करीबी) इमरजेंसी की घोषणा का मसौदा लेकर आए थे, जिस पर उन्होंने दस्तखत कर दिए हैं. इसके बाद उन्होंने ट्रैंक्विलाइज़र खाई और सोने चले गए. इमरजेंसी क्रॉनिकल्स: इंदिरा गांधी एंड डेमोक्रेसी टर्निंग पॉइंट नाम की अपनी किताब में इतिहासकार ज्ञान प्रकाश ने उस रात का जिक्र किया है.
जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम में हम आज जानेंगे उस राष्ट्रपति के बारे में, जिनका कार्यकाल तो महज दो साल 171 दिन का रहा लेकिन एक दस्तखत ने देश को आपातकाल की खाई में धकेल दिया. ये कहानी है देश के दूसरे मुस्लिम राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की, जो 1974 से 1977 तक देश के पांचवें महामहिम रहे. जाकिर हुसैन के बाद वे दूसरे ऐसे राष्ट्रपति थे, जिनका पद पर रहते हुए निधन हुआ था.
पुरानी दिल्ली में हुआ था जन्म
13 मई 1905 को पुरानी दिल्ली के हौज काजी इलाके में कर्नल ज़लनूर अली और साहिबजादी रुकैया सुल्तान के यहां एक लड़के का नाम हुआ. नाम रखा गया फखरुद्दीन अली अहमद. बड़ा रसूखदार खानदान था. पिता असमी मुसलमान थे और असम के पहले ऐसे शख्स थे, जिनके पास डॉक्टर ऑफ मेडिसिन (एमडी) की डिग्री थी. उनकी माता लोहारू (हरियाणा) के नवाब की बेटी थीं. अहमद के दादा खलीलुद्दीन अहमद, असमिया गोरिया जातीय समुदाय के पारसी पोरिया परिवार से थे.
खलीलुद्दीन अहमद के पूर्वजों को मध्यकालीन अहोम शासक दिल्ली से असम लाया था ताकि फारसी भाषा में मुगल शासकों से जो खत मिलें, उनका अनुवाद कराया जा सके और इसी भाषा में जवाब मुगल दरबार भेजा जा सके. इसलिए असम के इतिहास में उनके परिवार को पारसी पोरिया कहा गया.
पहले दिल्ली फिर कैम्ब्रिज से की पढ़ाई
फखरुद्दीन अली अहमद की पढ़ाई दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से हुई. इसके बाद उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के सेंट कैथरीन कॉलेज में दाखिला लिया और कानून की पढ़ाई की. इंग्लैंड में रहते हुए वह 1925 में जवाहरलाल नेहरू से मिले और दोनों की दोस्ती हो गई. जवाहरलाल नेहरू के विचारों से अहमद काफी प्रभावित हुए.
1928 में उन्होंने लाहौर हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की. तब देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाजें और तेज हो गई थीं. 1931 में वे कांग्रेस का हिस्सा बने और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. 1942 में उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया और साढ़े तीन साल कैद की सजा मिली.
ऐसा रहा राजनीतिक करियर
स्वतंत्रता के बाद वे राज्यसभा (1952-53) के लिए चुने गए और बाद में असम सरकार में एडवोकेट जनरल बने. वह दो बार (1957-1962) और (1962-1967) में कांग्रेस के टिकट पर असम विधानसभा के लिए जानिया निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए. इसके बाद, वह 1967 में और फिर 1971 में असम के बारपेटा से लोकसभा के लिए चुने गए. केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें फूड एंड एग्रीकल्चर, को-ऑपरेशन, एजुकेशन, इंडस्ट्रियल डेवेलपमेंट और कंपनी कानूनों से संबंधित महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो दिए गए.
वीवी गिरि के बाद बने राष्ट्रपति
जब वीवी गिरि का कार्यकाल खत्म हुआ तो इंदिरा गांधी ने फखरुद्दीन अली अहमद को बतौर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को तौर पर मैदान में उतारा. उनके प्रतिद्वंदी थे त्रिदिब चौधरी. इस चुनाव में फखरुद्दीन अली अहमद को 7,65,587 वोट मिले जबकि त्रिदिब चौधरी को 189,196 वोट. 24 अगस्त 1974 को उन्होंने राष्ट्रपति पद की शपथ ली.
उनके कार्यकाल को साल से कम ही समय बीता होगा कि उन्होंने आधी रात को सबसे स्याह धब्बे पर दस्तखत कर दिए और अगली सुबह पूरे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में यह संदेश सुना- 'भाइयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की हैं, इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है, लेकिन स्वतंत्र भारत में आपातकाल की घोषणा के साथ ही स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के साथ मौलिक अधिकारों को भी कुचला गया. प्रेस की सेंसरशिप और विपक्ष के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के साथ देश में अराजकता का माहौल व्याप्त हो गया.'
फैसले की चौतरफा आलोचना
इस फैसले के बाद उनकी चौतरफा आलोचना हुई और इमरजेंसी नाम के लोकतंत्र के काले अध्याय का जब भी जिक्र होता है, तो फखरुद्दीन अली अहमद का नाम भी जरूर आता है. बाद में उनको अपनी गलती का अहसास हुआ लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था. उनके और इंदिरा गांधी के रिश्तों में भी कड़वाहट आ गई थी. साल 1977 में 11 फरवरी को जब वह नमाज पर जाने की तैयारी कर रहे थे तभी अचानक गिर पड़े और हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया. उनके निधन के एक महीने बाद यानी 21 मार्च 1977 को देश से इमरजेंसी हटाई गई. लेकिन वो दिन देखने से पहले ही अहमद दुनिया से रुखसत हो गए.
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