प्रेमचंद पुण्यतिथि : 'जो गाय के पीछे जान देते हैं, वही अपने मां-बाप को रोटियां नहीं दे सकते'
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प्रेमचंद पुण्यतिथि : 'जो गाय के पीछे जान देते हैं, वही अपने मां-बाप को रोटियां नहीं दे सकते'

प्रेमचंद गोरक्षा के लिए हिंसा का समर्थन नहीं करते थे, लेकिन एक मौके पर वह गाय की रक्षा के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार हो गए थे. वो गोरक्षा के लिए जान लेने में नहीं, बल्कि जान देने में यकीन रखते थे.

फाइल फोटो

नई दिल्ली: आज देश भर में गोरक्षा पर बहुत चर्चा हो रही है. इसे लेकर हिंंसा भी हो रही है, ऐसे में 'गोदान' का लेखक गोरक्षा के बारे में क्या सोचता था, ये सवाल मन में आना स्वाभाविक है. गोदान को मुंशी प्रेमचंद का सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है. उपन्यास की कहानी में बार-बार घूम फिरकर गाय आ ही जाती है. जीवन में प्रेमचंद गाय और गोरक्षा के बारे में क्या सोचते थे, इस बारे में प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने उनकी जीवनी  'प्रेमचंद घर में' में लिखा है. प्रेमचंद गोरक्षा के लिए हिंसा का समर्थन नहीं करते थे, लेकिन एक मौके पर वह गाय की रक्षा के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार हो गए थे. वो गोरक्षा के लिए जान लेने में नहीं, बल्कि जान देने में यकीन रखते थे.

  1. मुंशी प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था. 
  2. वो गोरक्षा के नाम पर हिंसा के समर्थक नहीं थे.
  3. उनका कहना था कि गाय हिंदू और मुसलमानों दोनों की है.

गोरक्षा के एक प्रसंग में शिवरानी देवी से प्रेमचंद कहते हैं, 'जो गाय के पीछे जान देते हैं, वही हिंदू अपने मां-बाप को रोटियां नहीं दे सकते हैं. वही हिंदू घर की बेटी-बहन को निकाल देते हैं. क्या यह इंसानियत से दूर करने वाली बातें नहीं हैं? फिर भी लोग नाज से कहते हैं, गऊ हमारे पूजने की चीज है. जो मां को रोटी न दे सके, वह गाय को क्या चारा देगा?'

प्रेमचंद ने आगे कहा, 'गाय तुम्हारी और मुसलमानों दोनों की है. वह भी इसी जगह पैदा होते हैं और मरते हैं. जिस चीज से उनका हानि-लाभ होगा, उससे तुम्हारा भी होगा.' प्रेमचंद के मुताबिक 'पंडा, मुल्ला और नेता' की रोजी इन्हीं झगड़ों पर चलती है. वही इसमें शरीक रहते हैं. इस पर शिवरानी देवी पूछती हैं, 'आप किस मजहब को अच्छा समझते हैं?' प्रेमचंद जवाब देते हैं, 'मेरा कोई खास मजहब नहीं है. सबको मानता भी हूं. धर्म के नाम पर हिंसा करने वालों से मुझे कोई मुहब्बत नहीं. यही मेरा धर्म है.'

जोर-जबरदस्ती का समर्थन नहीं

दरअसल प्रेमचंद के दौर में हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ रहा था और दोनों समुदायों के बीच हिंसा भड़काने का सबसे आसान जरिया था, गाय या सुअर को काटकर मंदिर या मस्जिद के सामने फेंक देना. प्रेमचंद  इस सियासत को समझ रहे थे. 

प्रेमचंद गोरक्षा के पक्ष में तो हैं, लेकिन इसके लिए जोर-जबरदस्ती को सही नहीं मानते. वो कहते हैं, 'अंग्रेजों के यहां हजारों बछड़े काट-काटकर भेज दिए जाते हैं. उनसे तो कोई कुछ नहीं कहता. जहां लड़ना है, वहां नहीं लड़ेंगे.' प्रेमचंद के अनुसार गोरक्षा के लिए समझाना चाहिए, लेकिन अगर वो नहीं मानें, तो फिर छोड़ देना चाहिए. वो कहते हैं, 'जिन्हें झगड़ा करने की बीमारी है, वही गोरक्षा का मुद्दा उठाते हैं.'

गोरक्षा के लिए जान देने को तैयार 
प्रेमचंद गोरक्षा के लिए जान लेने में नहीं, जान देने में यकीन रखते हैं. ऐसा उन्होंने अपने जीवन में करके भी दिखाया. बात उन दिनों की है जब वह गोरखपुर में तैनात थे. तभी अंग्रेज कलेक्टर के हाते में उनकी गाय चली गई. अंग्रेज कलेक्टर बहुत गुस्से में आ गया और अपनी बंदूक से गाय को मारने के लिए तैयार हो गया. तभी प्रेमचंद वहां पहुंचे. उन्होंने कलेक्टर से गाय को छोड़ देने की विनती की, लेकिन कलेक्टर नहीं माना. इस पर प्रेमचंद गाय के आगे खड़े हो गए और बोले कि ठीक है तो पहली गोली मुझे मारो और फिर दूसरी गाय को. कलेक्टर के होश उड़ गए. उसने गाय को छोड़ दिया.

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