Rajasthan News: राजस्थान के शख्स की UN में चर्चा, इस वजह से मिला 'लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड', जानिए क्या किया अनोखा
Advertisement
trendingNow1/india/rajasthan/rajasthan2289211

Rajasthan News: राजस्थान के शख्स की UN में चर्चा, इस वजह से मिला 'लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड', जानिए क्या किया अनोखा

Rajasthan News: पेशे से  श्यामसुंदर ज्याणी बीकानेर के डूंगर कॉलेज के प्रोफेसर हैं. उन्होंने अपने निजी जीवन में निस्वार्थ भाव से वो कर दिखाया है जो शायद ही कभी किसी ने किया होगा. 

Rajasthan News: राजस्थान के शख्स की UN में चर्चा, इस वजह से मिला 'लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड', जानिए क्या किया अनोखा

Bikaner News: बीकानेर के रहने वाले श्यामसुंदर ज्याणी ने एक दो नहीं बल्कि पूरे 40 लाख प्लांट्स लगातार दुनिया को एक ऐसा संदेश दिया है जो ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में मानव जाति के साथ पर्यावरण के लिए वरदान साबित हो रहा है.

पेशे से  श्यामसुंदर ज्याणी बीकानेर के डूंगर कॉलेज के प्रोफेसर हैं. उन्होंने अपने निजी जीवन में निस्वार्थ भाव से वो कर दिखाया है जो शायद ही कभी किसी ने किया होगा. उन्होंने एक दो लाख नहीं बल्कि पिछले 2 दशक में देश में 40 लाख प्लांट्स लगाकर सभी को हैरत में डाल दिया है. ज्याणी के इसी जज्बे को देखते हुए उन्हें UN से लेकर अपने देश में कई बार सम्मान भी मिला है.

कौन हैं श्यामसुंदर ज्याणी

राजकीय डूंगर महाविद्यालय बीकानेर में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर श्यामसुंदर ज्याणी एक शिक्षक के साथ-साथ वनीकरण की अनूठी अवधारणा पारिवरिक वानिकी के तौर पर उभर कर आये हैं. ज्याणी ने पिछले 20 साल से अध्यापन के साथ-साथ अपना शेष समय और संसाधन वृक्षारोपण व पर्यावरण संरक्षण के लिए खर्च किया. 22 साल की युवाअवस्था में सरकारी कॉलेज में  उनकी प्रोफेसर की नौकरी लगी.

सामुदायिक स्तर पर भूमि संरक्षण व जलवायु सशक्तिकरण के लिए ज्याणी ने साल 2006 में पारिवारिक वानिकी अवधारणा को विकसित किया. साल 2020 में COVID-19 की भयानक अवधि के दौरान ज्याणी ने पारिवारिक वानिकी कार्यकर्ताओं व हजारों स्कूली शिक्षकों को साथ लेकर राजस्थान में 14 लाख सहजन के पेड़ों को परिवारों से जोड़ा. 

2021 में फिर से इसे दोहराते हुए 10 लाख सहजन रोपित करवा दिए. पारिवारिक वानिकी जन -पौधशाला ज्याणी का एक और पर्यावरणीय योगदान है, ये पौधशालाएं प्रत्येक व्यक्ति को गुणवत्तापूर्ण पौधे मुफ्त में उपलब्ध करवा रही हैं. राष्ट्रपति द्वारा ज्याणी को वर्ष 2021 में पारिवारिक वानिकी की अपनी अनूठी अवधारणा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के लैंड फॉर लाइफ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड भूमि संरक्षण और बहाली के लिए दुनिया का सर्वोच्च पुरस्कार है. इसे संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (UNCCD) द्वारा द्विवार्षिक आधार पर दिया जाता है.

UNCCD संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमि बहाली और संरक्षण से सम्बंधित सर्वोच्च संस्था है. लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड को ऐसे प्रभावशाली समग्र दृष्टिकोण और प्रथाओं को पुरस्कृत करने के लिए डिजाइन किया गया है जो अनुकरणीय और अभिनव प्रयासों के माध्यम से भूमि बहाली और संरक्षण में योगदान करते हैं और विशेष रूप से मानवता और प्रकृति के बीच महत्वपूर्ण अंतरसंबंध को उजागर करते हैं. संयुक्त राष्ट्र की आठ सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय जूरी, प्रोफेसर ज्याणी द्वारा विकसित पारिवारिक वानिकी के विचार से बेहद प्रभावित हुई. खासकर इस बात से कि यह कैसे एक पेड़ को परिवार से जोड़ती है और परिवार उसे हरित सदस्य के रूप में मानता है.

वर्ष 2006 से आज तक पारिवारिक वानिकी की अवधारणा ने 20 लाख से अधिक परिवारों को उत्तर-पश्चिमी राजस्थान की रेगिस्तानी भूमि में लगभग 40 लाख पेड़ों और 200 से अधिक संस्थागत वनों के रोपण से जोड़ा है.

ज्याणी द्वारा विकसित जन पौधशालाएं रेगिस्तान में रहने वालों को मुफ्त में स्थानीय जलवायु के अनुकूल पौधे उपलब्ध कराती है. राजस्थान की शुष्क मरुस्थलीय परिस्थितियों के कारण यहां बड़े वनों को विकसित करना बहुत महंगा और चुनौतीपूर्ण है. ऐसे में परिवार से लेकर गांव, खेत, शैक्षिक व अन्य संस्थाओं को पारिवारिक वानिकी से जोड़कर संस्थागत वनों का विकास करके, रिक्त सार्वजनिक भूमि पर पारिस्थितिकी तंत्र के छोटे-छोटे नेटवर्क विकसित कर राजस्थान की मरू पारिस्थितिकी को बचाने में जुटे ज्याणी और उनकी पत्नी कविता के लिए यही उनके जीवन का सबसे बड़ा मिशन है.

संस्थागत वन के एक मॉडल के रूप में ज्याणी ने सर्वप्रथम राजकीय डूंगर कॉलेज परिसर में ही एक जंगल विकसित किया और अपने छात्रों की भागीदारी के माध्यम से जन पौधशाला स्थापित की. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 150 वें जन्म वर्ष पर बीकानेर संभाग के 150 से अधिक गांवों के राजकीय विद्यालयों के पर्यावरण प्रेमी शिक्षकों की सहभागिता से ज्याणी ने 150 संस्थागत वनों का विकास कराया.

इन 150 गांधी वनों को फलों के बगीचों के रूप में विकसित करने के लिए जामुन, अनार, आंवला, बील पत्र , शहतूत, सहजन, इमली, अमरूद, सीताफल, रामफल, अर्जुन, करी पत्ते, लसोड़ा, बेर के पौधे रोपित किए गए साथ ही जाल, खेजड़ी, शीशम, नीम, बकायन, मालाबार नीम रोहिड़ा, चुरेल, करंज, गुलमोहर, अमलताश जैसे छायादार पेड़ भी इन वनों में लहलहा रहे हैं .

 उन्होंने इन विद्यालयों को न केवल नि:शुल्क पौधे उपलब्ध कराए बल्कि व्यक्तिगत रूप से जाकर पौधे लगवाए , इन विद्यालयों के शिक्षकों ने भी इन पौधों की सुरक्षा और पानी के उचित प्रबंधन के लिए अपने स्तर पर व्यवस्था की. कई स्कूलों में शिक्षक पौधों की सुरक्षा और पानी के टैंकरों की सुरक्षा के लिए उचित उपाय करने के लिए वह अपनी जेब से पैसा लगा रहे हैं. अब इन वनों की संख्या 200 पहुंच चुकी है. चूरु जिले के तारानगर ब्लॉक में 2021 में ज्याणी के मार्गदर्शन में तत्कालीन विकास अधिकारी संत कुमार मीणा ने सभी 33 ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर मनरेगा के ज़रिए संस्थागत वनों का सफल विकास कराया.

गौर करने वाली बात यह है कि ज्याणी सिर्फ पेड़ नहीं लगाते बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल देसज पेड़ों पर जोर देते हैं. साथ ही घास, झाड़ियां , जंगली फूलों के पौधे, वन्य जीव, तालाब-पोखर और पर्यावरण अनुकूल जीवन के सूक्ष्म पहलुओं को एकसाथ रखकर काम करते हैं.

बीकानेर शहर से करीब 50 किमी दूर स्थित डाबला तालाब की 207 एकड़ भूमि को अवैध खनन से मुक्त करवाकर इसे मरू पारिस्थितिकी के प्रमुख केंद्र के रूप में आकार देने की ज्याणी की कवायद पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनकी समावेशी कार्य शैली का बेहतरीन उदाहरण रही. इस भूमि की बहाली में राजस्थान का पूरा जसनाथी समाज ज्याणी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जुटा हुआ है.

वृक्ष व वन्य जीवन विहीन हो चुकी इस भूमि पर आज कई संकटग्रस्त प्रजातियों के पौधे व जीव फल -फूल रहे हैं,लेकिन ज्याणी व उनके परिवार के लिए ये सब करना कोई आसान काम नहीं था. जहां उनके साथी प्रोफेसर आलीशान मकानों में रहते हैं और अपनी आर्थिक सुरक्षा का माकूल बंदोबस्त भी करके रखा हुआ है वहीं ज्याणी 23 साल की प्रोफेसर की उच्च वेतन वाली सरकारी नौकरी के बाद भी सरकारी मकान में मामूली सुविधाओं के साथ रह रहे हैं क्योंकि उनके वेतन का बड़ा हिस्सा तो हर महीने पेड़ और पर्यावरण संरक्षण में खर्च हो जाता है.

साल 2021 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ज्याणी के जमीनी कार्यों को पहचाना और उन्हें भूमि संरक्षण का सर्वोच्च सम्मान “लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड” प्रदान किया. तब पहली बार दुनिया का ध्यान इसी जमीनी काम और उनकी अनूठी अवधारणा पर गया. देश और दुनिया के मीडिया ने इसे कवर किया. भारत की संसद में भी पारिवारिक वानिकी पर चर्चा हुई. हालांकि ये अलग बात है कि ज्याणी को आज तक कभी ब्लॉक स्तरीय पर्यावरण समिति का भी सदस्य नहीं बनाया गया, लेकिन ज्याणी व उनकी पत्नी कविता तमाम मुश्किलों के बावजूद अपनी धुन में लगे हुए हैं.

प्रोफेसर ज्याणी अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग डिजिटल पर्यावरण पाठशाला के रूप में करते हैं. वह अपने 84 हजार से अधिक फॉलोवर्स को पर्यावरण और पारिस्थितिकी के विभिन्न मुद्दों के बारे में नियमित रूप से पर शिक्षित करते हैं. उनकी पारिवारिक वानिकी तकनीक से किए गए वृक्षारोपण से पौधों की मृत्यु दर में कमी आती है.

 पारिवारिक वानिकी तेजी से स्थानीय धार्मिक मेलों का एक अनिवार्य हिस्सा बनती जा रही है. अनुष्ठानों और त्योहारों में रूख प्रसाद के रूप में पौधे वितरित किए जा रहे हैं. राम रुख अभियान के रूप में धार्मिक आयोजनों से स्थानीय किस्मों के पेड़ों को व्यापक पैमाने पर जोड़ चुके ज्याणी अब आगामी पांच जून को पर्यावरण दिवस पर “मैं भी भगत सिंह” नाम से एक नई पर्यावरण यात्रा की शुरुआत करने जा रहे हैं. जिसके तहत स्कूली शिक्षकों, विद्यार्थियों और युवाओं के ज़रिए साल 2030 तक 10 करोड़ पेड़ पनपाने का लक्ष्य है ताकि 23 मार्च 2031 को इन दस करोड़ पेड़ों के साथ भगत सिंह के सौवें शहादत दिवस पर उन्हें अनूठी हरित श्रद्धांजलि देते हुए पूरी दुनिया में पारिवारिक वानिकी के हरित जिम्मेदारी के संदेश को बुलंद किया जा सके

ज्याणी का ये ऐसे सफर हुआ शुरू

वैसे देखा जाये तो ज्याणी डूंगर महाविद्यालय बीकानेर में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं लेकिन पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी जिलों में इनकी पहचान मरू पारिस्थितिकी को बचाने में जुटे जुझारू पर्यावरणविद्ध के तौर पर ज्यादा है. साल 2003 में जब बीकानेर के डूंगर कॉलेज में स्थानांतरित होकर आए तब उन्होंने देखा कि नीम के कुछ बड़े पेड़ ऊपर से नीचे की ओर सूखकर ठूंठ बन रहे थे उन्होंने प्राचार्य से निवेदन किया कि इन्हें बचाने हेतु तुरंत कुछ किया जाए लेकिन प्राचार्य की तरफ से जब संतोषजनक जवाब नहीं मिला तो किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले ज्याणी ने अगले ही दिन गांव से फावड़ा मंगाया और एम ए के अपने विद्यार्थियों को साथ लेकर उन पेड़ों को बचाने में जुट गए.
महीने भर में जब वे सारे पेड़ फिर से हरे होने लगे तब ज्याणी को खुशी तो हुई लेकिन कॉलेज के प्राचार्य व साथी शिक्षकों की उदासीनता ने उन्हें बैचेन कर दिया.

क्या इनकी तरह बाकी समाज भी अपने पर्यावरण के प्रति उदासीन है ? इस सवाल का उत्तर जानने हेतु ज्याणी ने आस -पास के इलाके में घूमना शुरू किया साथ ही सरकार की वृक्षारोपण संबंधी योजनाओं की भी जानकारी जुटाई. 23 साल के युवा लड़के की बैचेनी तब और बढ़ गई जब उसने पाया कि उसके कॉलेज के साथी शिक्षकों की ही तरह अधिकांश लोगों को पर्यावरण के संरक्षण से कोई खास मतलब नहीं है.

अब सवाल यह था कि लोगों को पर्यावरण के प्रति जिम्मेदार कैसे बनाया जाए ? तीन साल की जद्दोजहद के बाद साल 2006 में ज्याणी ने “पारिवारिक वानिकी “ की अवधारणा का विकास किया और बीकानेर से कोई 15 किमी दूर स्थित गांव हिमतासर में इस अवधारणा को जमीन पर उतारते हुए परिवारों को पेड़ों से जोड़ना शुरू किया. नारा यह दिया कि “पेड़ को पेड़ मत मानो उसे अपने घर का हरित सदस्य बनाओ”.

मई 2006 में हिमतासर गांव से शुरू हुआ यह सिलसिला आज राजस्थान के 18 हजार से अधिक गांवों के करीब 20  लाख परिवारों तक जा पहुंचा है. नतीजतन 40 लाख पेड़ पनपाए जा चुके हैं और 200 सौ संस्थागत वन खंड खड़े हो गए हैं .

ज्याणी सिर्फ पेड़ नहीं लगाते बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल देसज पेड़ों पर जोर देते हैं साथ ही घास, झाड़ियां , जंगली फूलों के पौधे, वन्य जीव, तालाब-पोखर और पर्यावरण अनुकूल जीवन के सूक्ष्म पहलुओं को एकसाथ रखकर काम करते हैं. लोगों को बिना पैसा खर्च किए देशज पौधे मिलें इसके लिए जन पौधशालाओं का एक नेटवर्क खड़ा कर दिया है.

साल 2021 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ज्याणी के जमीनी कार्यों को पहचाना और उन्हें भूमि संरक्षण का सर्वोच्च सम्मान “लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड” प्रदान किया. खास बात यह भी है कि इस प्रतिष्ठित पुरस्कार हेतु दुनियाभर से 12 लोगों / संगठनों को शॉर्ट लिस्ट किया गया था और इनमें से किसी एक को विजेता के रूप में अंतिम तौर पर चुना जाना था. इन 12 फाइनलिस्ट में भारत से दो लोग थे एक प्रोफेसर ज्याणी और दूसरे सद्गुरू जग्गी वासुदैव. सूची को देखकर हर कोई यही अनुमान लगा रहा था कि सद्गुरू ही विजेता होंगे लेकिन अंतरराष्ट्रीय ज्यूरी में सबको चौंकाते हुए जब प्रोफेसर ज्याणी को विजेता घोषित किया तब पहली बार दुनिया का ध्यान इसी जमीनी काम और उनकी अनूठी अवधारणा पर गया.

भारत की संसद में भी पारिवारिक वानिकी पर चर्चा हुई. हालांकि ये अलग बात है कि ज्याणी को आज तक कभी ब्लॉक स्तरीय पर्यावरण समिति का भी सदस्य नहीं बनाया गया. 

Trending news