सैम मानेकशॉ: भारत का वो वीर जिससे दुश्मन खाते थे 'खौफ', 1971 की जंग के रहे हीरो
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सैम मानेकशॉ: भारत का वो वीर जिससे दुश्मन खाते थे 'खौफ', 1971 की जंग के रहे हीरो

Sam Manekshaw: फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को सैम बहादुर के नाम से भी जाना जाता है. भारतीय थल सेना के पहले अध्यक्ष सैम मानेकशॉ का निधन 27 जून, 2008 को 94 वर्ष की उम्र में हुआ.

 

सैम मानेकशॉ: भारत का वो वीर जिससे दुश्मन खाते थे 'खौफ',  1971 की जंग के रहे हीरो

Zee News Special Series Shaurya: देश के सबसे लोकप्रिय न्यूज चैनल Zee News की खास सीरीज शौर्य में आज हम बात करेंगे भारतीय सेना के उस जांबाज की जिसने वीरता की कई मिसालें पेश की. वह भारतीय सेना के पहले अधिकारी थे जो फील्ड मार्शल की रैंक तक पहुंचे. उनका सैन्य करियर चार दशकों का रहा. जी हां हम बात कर रहे हैं फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की, जिन्हें सैम बहादुर के नाम से भी जाना जाता है. भारतीय थल सेना के पहले अध्यक्ष सैम मानेकशॉ का निधन 27 जून, 2008 को 94 वर्ष की उम्र में हुआ.

पहले प्रयास में ही पास किया टेस्ट

3 अप्रैल, 1914 को अमृतसर में डॉक्टर होर्मुसजी मानेकशॉ और हीराबाई के घर जन्मे सैम मानेकशॉ ने पंजाब और शेरवुड कॉलेज, नैनीताल में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. सैम जब 15 साल के थे तो उन्होंने अपने पिता से स्त्री रोग विशेषज्ञ की पढ़ाई करने के लिए लंदन भेजने के लिए कहा. हालांकि, उनके पिता ने मना कर दिया.  बाद में मानेकशॉ देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) की प्रवेश परीक्षा का एग्जाम दिए और पहले प्रयास में इसे पास कर लिया.

यह उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट था. वर्षों बाद, सैम मानेकशॉ 1969 में अपने अल्मा मेटर शेरवुड कॉलेज में एक समारोह में IMA के अपने दिनों को याद करते हुए कहा, IMA ने मुझे युद्ध के लिए तैयार किया. मुझे अकेले और स्वतंत्र रूप से जीना सिखाया. IMA ने मुझे भूख को सहन करना सिखाया.

IMA से स्नातक होने के बाद सैम मानेकशॉ को 1934 में ब्रिटिश भारतीय सेना में सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त किया गया था. अंग्रेजों के लिए मानेकशॉ ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा और भारत-चीन सीमा पर लड़ाई लड़ी. 1946 में उन्हें लेफ्टिनेंट-कर्नल बनाया गया. बाद में विभाजन के बाद मानेकशॉ का अपनी पैरेंट यूनिट  12वीं फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के साथ संबंध समाप्त हो गया, क्योंकि उस रेजिमेंट पर पाकिस्तानी सेना ने अधिग्रहण कर लिया. मानेकशॉ को 16वीं पंजाब रेजिमेंट में फिर से नियुक्त किया गया.

1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान मानेकशॉ ने भारतीय सीमा की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.  हालांकि, उनकी ईमानदारी को कुछ मंत्रियों ने अच्छी तरह से नहीं लिया.  तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन ने 1950 के दशक के अंत में उनके खिलाफ जांच का आदेश दिया था, हालांकि, उन्हें बरी कर दिया गया था.

मानेकशॉ के अनुसार, 'यस मैन' एक खतरनाक आदमी होता है. उन्होंने कहा - एक 'यस मैन' मंत्री, सचिव या फील्ड मार्शल बन सकता है, लेकिन वह कभी लीडर नहीं बन सकता और न ही कभी सम्मान किया जा सकता है. वह अपने वरिष्ठों द्वारा इस्तेमाल किया जाएगा, उसके सहयोगियों द्वारा नापसंद किया जाएगा और उसके अधीनस्थों द्वारा तिरस्कृत किया जाएगा.

लगभग उसी समय भारत-चीन युद्ध छिड़ गया. परिस्थितियों को देखते हुए मानेकशॉ को लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर पदोन्नत किया गया और तेजपुर स्थानांतरित कर दिया गया. बाद में 1963 में उन्हें फिर से सेना कमांडर के रूप में पदोन्नत किया गया और पश्चिमी कमान की बागडोर दी गई.  1968 में असाधारण सेवा के लिए उन्हें पद्म भूषण दिया गया था. एक साल बाद वह आठवें सेनाध्यक्ष बने.

1971 जंग के हीरो

सैम मानेकशॉ का सबसे सफल सैन्य अभियान 1971 के अंत में आया, जब उनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने 90,000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ. यह सर्वविदित है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें ढाका जाने और पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण को स्वीकार करने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया. पूर्व में सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को उनके स्थान पर भेजा गया.

1972 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. उसी वर्ष नेपाल ने मानेकशॉ को नेपाली सेना के मानद जनरल के रूप में नियुक्त किया. अगले वर्ष, मानेकशॉ सक्रिय सेवा से सेवानिवृत्त हुए और अपनी पत्नी के साथ तमिलनाडु के वेलिंगटन कैंट के बगल में कुन्नूर में बस गए.

मानेकशॉ के निजी जीवन की बात करें तो उन्होंने 1939 में सिल्लू बोडे से शादी की. सिल्लू मुंबई के सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट की पूर्व छात्रा थीं. वह एक कलाकार और चित्रकार थे. उनकी दो बेटियां हैं.

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