लंबे चुनाव से उपजी बोरियत बड़े काम की है, इसे कुछ नया करने में झोंक दीजिए
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लंबे चुनाव से उपजी बोरियत बड़े काम की है, इसे कुछ नया करने में झोंक दीजिए

सरकारी अफसर, ऊंचे दफ्तरों में बैठे प्रोफेशनल्स से लेकर धूप में रिक्शा चलाते आदमी और गांव में नीम के नीचे ताश की फड़ पर जमे लोग तक राजनीति का इतना चिंतन करते हैं कि लगता है कि देश में बड़े पैमाने पर मानसिक बेरोजगारी का आलम है.

लोकसभा चुनावों के चार चरण हो पूरे हो चुके हैं. कुल सातों चरणों में चुनाव होना है.(फाइल फोटो)

नई दिल्ली: महात्मा गांधी के बारे में एक बात यह भी कही जाती है कि अपने अहिंसक आंदोलन के जरिए उन्होंने देश के गांव-गांव तक राजनीति की जो बाढ़ पैदा की थी, देश आजाद होने के बाद जब वह बाढ़ उतरी, तो अपने पीछे काफी कुछ सियासी सड़ांध छोड़ गई. इस राय पर मत-विमत हो सकते हैं, लेकिन इतना तो हम देखते ही हैं कि देश में न सिर्फ चुनाव के समय, बल्कि जब चुनाव (lok sabha elections 2019) नहीं भी होते तब भी घनघोर राजनैतिक चिंतन चलता रहता है.

जहां तक हम पत्रकारों का सवाल है तो राजनीति की निरंतर चिंता करते रहना हमारी रोजी-रोटी का अनिवार्य हिस्सा है. लेकिन सरकारी अफसर, ऊंचे दफ्तरों में बैठे प्रोफेशनल्स से लेकर धूप में रिक्शा चलाते आदमी और गांव में नीम के नीचे ताश की फड़ पर जमे लोग तक राजनीति का इतना चिंतन करते हैं कि लगता है कि देश में बड़े पैमाने पर मानसिक बेरोजगारी का आलम है.

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क्योंकि अगर मानसिक बेरोजगारी नहीं है तो अफसर को अपने काम को और बेहतर और पारदर्शी बनाने के बारे में सोचना चाहिए, इंजीनियर को नई तकनीक के हिसाब से खुद को अपडेट करने के बारे में सोचना चाहिए, रिक्शे वाले को अपनी सेवा के बेहतर मूल्य के बारे में सोचना चाहिए और ताश की फड़ पर जमे आदमी को खेल में होने वाली बेईमानी पर नजर रखनी चाहिए. और इन सब लोगों से अलग अकेडमिक जगत को सभा सेमिनार शोध और नव ज्ञान सृजन के बारे में सोचना चाहिए. लेकिन लोगों को लगता है कि अपने इस मूल काम में उन्हें वाकई मानसिक श्रम करना पड़ेगा, इसलिए बेहतर है कि राजनीति की चर्चा करते हुए आसानी से वक्त काटा जाए.

लेकिन लोगों का यही जेहनी टाइमपास अब नए संकट पैदा कर रहा है. आजकल सोशल मीडिया, टेलिविजन मीडिया, व्हाट्सअप ग्रुप, सार्वजनिक जगहों के संवाद और यहां तक कि दोस्तों की वीकेंड पार्टी में भी राजनीति की घनघोर चर्चा हो रही है. इन चर्चाओं में अब नेता विशेष के पक्ष-विपक्ष में लोगों की ऐसी लामबंदी दिखती है कि संवाद के आक्रामक होने में ज्यादा देर नहीं लग रही. बहुत से ऐसे मामले देखने में आते हैं जहां रिश्तेदारों के बीच संवाद की गर्माहट सिर्फ इसलिए खत्म हो रही है कि एक नेता या पार्टी को लेकर उनकी राय अलग है. राय हमेशा से अलग रही हैं, लेकिन पहले राय के जुदा होने से लोगों के रिश्ते नहीं चटखते थे. लेकिन यह सब अब हो रहा है.

इसकी क्या वजह हो सकती है. एक वजह तो यह है कि पहले हमारे पास यह छूट थी कि हम मुंह देखी बात कर लेते थे. अगर किसी प्रियजन को कोई बात पसंद नहीं है तो वहां उसे नहीं किया जाता था. एक दूसरे की उम्र, पद और रिश्ते का लिहाज किया जाता था. ऐसे में मुलाकातों में राजनैतिक कटुता के बजाय और दीन-दुनिया की बातें हो जाया करती थीं. लेकिन फेसबुक और व्हाट्सअप के आने के बाद से स्थिति बदली है. जब कोई व्यक्ति फेसबुक पोस्ट डालता है तो वह सैकड़ों व्यक्तियों के सामने एक विचार को स्वीकार करता है. एक तरह से वह अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता का हलफनामा दे देता है. ऐसे में अगर कोई मित्र उससे असहमत होता है और वहीं कमेंट करके उसका विरोध कर देता है तो वह भी अपने मतभेद का बा-हलफ बयान कर देता है.

इस तरह दो लोगों के बीच का निजी संवाद पूरी तरह से सार्वजनिक संवाद बन जाता है. यह वैसे ही है जैसे दो दोस्त एक कमरे में झगड़ने के बजाय शहर के चौराहे पर एक दूसरे से गाली गलौच करने लगें. जाहिर है चौराहे पर हुई यह फजीहत दोनों के लिए न सिर्फ कष्टकारी होती है, बल्कि सार्वजनिक अपमान भी होती है. अब दोनों के पास पीछे हटने या मुंहदेखी कहने का रास्ता नहीं बचता. वह किसी पार्टी या विचारधारा या वाद का दगा हुआ कार्यकर्ता हो जाता है.

यही हाल व्हाट्सअप ग्रुप का होता है. इन दिनों चाहे पुराने दोस्तों के ग्रुप हों, सहकर्मियों के ग्रुप हों, कॉलोनी या मुहल्ले के ग्रुप हों, वहां ग्रुप बनते ही पहली घोषण की जाती है कि यहां राजनैतिक पोस्ट नहीं डाली जाएगी. लेकिन मुश्किल से घंटे भर के भीतर राजनैतिक चकल्लस शुरू हो जाती है. इसकी वजह हमारी दूसरे निकम्मेपन में छिपी है. ज्यादातर लोग अपना मौलिक कमेंट या मैसेज नहीं लिखते हैं. वे कहीं से उनके पास आए मैसेज को ही फारवर्ड करते हैं. हो सकता है कि अगर वे खुद अपने हाथ से मैसेज लिखते तो अपना राजनैतिक बयान सामने रखते समय वे कुछ लिहाज कर लेते, लेकिन फॉरवर्ड मैसेज इसकी गुंजाइश नहीं देते. इस तरह के मैसेज ग्रुप में आते ही सामने से इसका जवाब और ज्यादा आक्रामक फॉरवर्ड मैसेज से दिया जाता है.

संवाद जल्द ही वाद-विवाद की शक्ल लेता है. और बहुत से मामले में निजी झगड़े में बदल जाता है. चूंकि निंदा और वीभत्स रस भी हमारे अंतरमन को बड़े प्रिय होते हैं, इसलिए हम झगड़े का पूरी सामर्थ्य से निर्वाह करते हैं. ग्रुप के खामोश सदस्य भी चुपचाप इस झगड़े को देखकर या इसमें थोड़ा तेल डालकर डिजिटल वार का आनंद लेते हैं. यह भी हमारी निठल्ली मानसिक मनोविकृति का पेट भरता है.

नतीजा यह निकलता है कि समाज के पास संवाद के तुरत और तेज साधन के तौर पर उभरा सोशल मीडिया असामाजिक ढंग से काम करने लगता है. और जो ग्रुप रिश्तों में गर्माहट लाने के लिए बनाया गया था वह रिश्तों की मैयत उठाने का काम करने लगता है.

यहां तक जो बातें कही गईं हैं, वे बहुत अनोखी या नई नहीं हैं. हममें से ज्यादातर लोग इसके निरंतर भुक्तभोगी हैं. मेरे जैसे लोगों ने इससे बचने का एक तरीका यह निकाल रखा है कि मैं सूचना के लिहाज से महत्वपूर्ण व्हाट्सअप ग्रुप को छोड़कर बाकी किसी ग्रुप को देखता ही नहीं हूं. मित्रों से निवेदन करता हूं कि कोई काम की बात मुझे बतानी है तो सीधे बता देना, ग्रुप में इसकी अपेक्षा न रखना.

फेसबुक पर बहुत से लोगों ने नियम बना लिया है कि किसी दूसरे की वाल पर जाकर नागिन डांस नहीं करना है. अपनी वाल पर भी जितना हो सकेगा कमेंट के जवाब देने से बचना है. मित्रों के सैर सपाटे और पारिवारिक फोटो को लपककर लाइक और अच्छा बताना है. लेकिन इन सब चीजों के बावजूद विवाद से स्थायी रूप से बच पाना नामुमकिन है.

जब देश लोकसभा चुनाव 2019 की तरफ बढ़ा तो ये खतरे और ज्यादा बढ़ गए. बढ़ क्या गए विकट हो गए. लेकिन अब जब चुनाव के चार चरण हो चुके हैं तो एक विचित्र सुखद बात सामने आई. देखने में यह आने लगा कि राजनैतिक हिंसा की यह बाढ़ इतनी बढ़ी कि लोग लड़-लड़कर बोर होने लगे.

वे जिस नेता को पसंद करते हैं वह नेता 2 महीने लगातार भाषण दे-देकर थका गया. वे जिस नेता को नापसंद करते हैं वह भी पसीना पोंछ रहा है. न कोई नया नारा बचा है और न कोई नई गाली. हर तरफ से या तो सब हथियार चल चुके हैं या फिर हथियारों का दुहराव हो रहा है. फॉरवर्ड मैसेज की फैक्टरी तक कुछ नया छापने में लाचार हो गई है. नेता सोच रहे हैं कि किसी तरह चुनाव खत्म हो तो चुनाव प्रचार से उनकी जान छूटे.

यही बात आम आदमी तक लौटी है. जिन जगहों पर वोटिंग हो चुकी है वहां के बहुत से लोक अब सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि 23 मई तक कोई राजनैतिक टिप्पणी नहीं.

कुछ लोग व्हाट्सएप मैसेज में फिर से जोड़ों के दर्द और ब्लड प्रेशर की दवाई बताने लगे हैं. ज्यादा अंतरग ग्रुपों में नॉनवेज चुटकुलों की वापसी हो रही है. लोग भी सोच रहे हैं कि कहां तक लड़ें, जैसे तैसे चुनाव निपट जाए.

यानी बाढ़ एक बार फिर उतर रही है. गांधी जी ने जो राजनैतिक बाढ़ गांव-गांव तक पहुंचाई थी उसकी अच्‍छाइयों के अलावा बची रह गई सड़ांध को नियंत्रित करने में उनके बाद के नेतृत्व ने काफी हद तक काबू पा लिया था. अब अगर इस सोशल युद्ध की बाढ़ उतर रही है तो इसका इलाज भी होना चाहिए. शास्त्र सम्मत एक इलाज तो यह है जिसमें कहा गया है: ‘साहित्य संगीत कला विहीना, साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीना.’ यानी साहित्य, संगीत और कला से रहित मनुष्य बिना सींग और पूंछ वाला सांड़ है. यानी लोगों को अपनी रचनात्मकता पर ध्यान देना चाहिए. हर मनुष्य के अंदर एक चितेरा बैठा है. वैसे भी गर्मी की छुट्टी आ रही हैं.

ऐसे में अपने भीतर के सृजन को जगह दी जाए. कुछ नया रचा जाए, खुद न रच पाएं तो बच्चों को ही रचना के लिए प्रेरित करें. कुछ वक्त सैर सपाटे और खेल कूद के लिए निकालें. जब आप कुछ रचेंगे तो आपके मन की हिंसा खुद ही कम होने लगेगी. आप अपने काम पर मोहित हों और दूसरे के काम को सराहें. यह काम जल्दी से जल्दी शुरू करना पड़ेगा, क्योंकि 23 मई के बाद राजनीति हमारे मन पर नए सिरे से डोरे डालने लगेगी. और यह तो आपको पता ही है कि राजनीति की यह डोर हमारे सामाजिक रिश्तों के लिए अक्सर फांसी का फंदा बन जाती है.

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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