सबको साथ लेकर चलने की क्षमता अटलजी में: लालजी टंडन
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सबको साथ लेकर चलने की क्षमता अटलजी में: लालजी टंडन

लालजी टंडन बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं में हैं, और इसके साथ ही उनकी पहचान अटल बिहारी वाजपेयी जी के करीबियों में भी की जाती है, उनसे अटल जी के जीवन के खास पहलुओं को जानने की कोशिश की ज़ी रीजनल चैनल्स (हिंदी) के संपादक वासिंद्र मिश्र ने हमारे खास कार्यक्रम `सियासत की बात` में। पेश हैं उसके मुख्‍य अंश:-

लालजी टंडन बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं में हैं और इसके साथ ही उनकी पहचान अटल बिहारी वाजपेयी जी के करीबियों में भी की जाती है, उनसे अटल जी के जीवन के खास पहलुओं को जानने की कोशिश की ज़ी रीजनल चैनल्स (हिंदी) के संपादक वासिंद्र मिश्र ने हमारे खास कार्यक्रम `सियासत की बात` में। पेश हैं उसके मुख्‍य अंश:-
वासिंद्र मिश्र: टंडन जी आपका बहुत-बहुत स्वागत है और अटल जी के पूरे व्यक्तित्व पर हम बात करें या जो नई पीढ़ी है उसको हम बताना चाहें, अटल जी की विदेश नीति अटल जी की जो पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते रहे, अटल जी की जो समाज के सभी वर्गों के साथ चलने का जो उनका जज़्बा रहा, जो उनकी काबिलियत रही इस पर तो ढेर सारे किताबें उपलब्ध हैं और जो मॉर्डन पीढ़ी है उसने देखा भी है। अटल जी को एक प्रधानमंत्री के रुप में हम ये जानना चाहते हैं कि आपकी याद्दाश्त में ऐसी उन घटनाओं के बारे में आप बताइये जो कि अटल जी एक कवि के रुप में, एक लेखक के रुप में या एक पत्रकार के रुप में या एक समाज में अपने दोस्तों के प्रति एक समर्पित इंसान के रुप में उनकी कोई इस तरह की घटनाएं हुई हों सार्वजनिक जीवन की जो कि सबसे ज्यादा आपको उनके साथ बांधे रखने में या उनके साथ बने रहने में प्रभावित करती हों।
लालजी टंडन: एक आम आदमी के साथ और एक कार्यकर्ता का जो संबंध है वो अटूट होता है, अगर वो किसी वैचारिक और किसी संस्कार से बंधा हुआ हो, और मैं समझता हूं कि अटल जी को समझने के लिए उनकी कविताएं जो हैं, जो अटल जी के बैकग्राउंड को जानते हैं, वो एक दो लाइनों में ही उनकी बात समझ जाएंगे, जैसे वो कभी कहते रहे कि छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे तन से कोई खड़ा नहीं होता, अब दो शब्दों में आप समझ लें यानि राजनीति में या सार्वजनिक जीवन में संकुचित विचार रखने वाले कभी सफल नहीं हो सकते और ये उनके जीवन का सूत्र है विचार का, सबको समेट कर लेके चलने की क्षमता ये अटल जी को शुरू से थी।
वासिंद्र मिश्र: शायद यही कारण रहा कि एनडीए के गठन से ले के सफलता पूर्वक संचालन तक में अटल जी के जीवन की जो फिलॉसफी थी वो काफी मददगार थी?
लालजी टंडन: अटल जी का जो व्यक्तित्व है स्वयं अगर उसमें अपना कुछ नहीं होता तो दूसरों से आयातित करके नहीं होता लेकिन अपने में कुछ होता है तो दूसरों का योगदान उसे बहुत विकसित कर देता है, तो डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पं. दीन दयाल उपाध्याय, और बहुत कुछ मैं कह सकता हूं नारायण देशमुख जी, और इन सबको कहीं ना कहीं अगर एक शक्ल देने की कोशिश की है तो भाऊराव देवरस, मतलब मुझे याद है एक बार, वो राष्ट्र धर्म के संपादक पहले रहे, तो राष्ट्र धर्म की स्वर्ण जयंति थी भाऊराव जी उसमें मौजूद थे, राजमाता सिधिंया थी, लखनऊ में एक कार्यक्रम हुआ था राष्ट्रधर्म का अटल जी भी थे, तो भाऊराव ने कहा भई अटल जी इसके पहले संपादक रहे, अटल जी जब बोलने खड़े हुए तो उन्होंने कहा कि भाऊराव मुझे कहीं से पकड़ लाए थे और ला के बिठाल दिया कि लिखो, जब कुछ आता नहीं था पत्रकारिता में, लेकिन भाऊराव की ही गाइडंस में आज इस पत्रकारिता का मैं संपादक बना फिर पत्रकारिता के क्षेत्र में बढ़ता चला गया, दीनदयाल जी के वैचारिक संस्कार, भाऊराव के व्यक्ति निर्माण की जो क्षमता थी, और नानाजी का जो एक बहुआयामी व्यक्तित्व था इन तीन लोगों ने मिल के और डॉ मुखर्जी जैसा जब नेतृत्व मिला तो अटल जी का ये व्यक्तित्व निकल के आया, और सबसे बड़ी बात की। कोई नेता जिनके साथ वो या जिनके मार्गदर्शन में बढ़ा है अगर उनकी नीतियों को सर्वोच्च स्तर पर पहुंच के कोई लागू कर सकता था तो अटल बिहारी वाजपेयी, यानि आज देश एक राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहा है, दो दलीय राजनीति दल यहां बन नहीं पाए, जो बने थे वो बिखर गए, आज गठबंधन की राजनीति की शुरुआत हुई, अगर हम देखें तो ये गठबंधन की राजनीति की शुरुआत इस देश में सबसे पहले डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी, जब वो नेता प्रतिपक्ष बने तो उनके मेंबर तो बहुत कम थे जो भी और लोग थे उनको सबको उनका गठबंधन बना के उन्होंने नेहरू जी को एक सशक्त चुनौती दी, वैचारिक भी और उनकी नीतियों के खिलाफ भी।
वासिंद्र मिश्र: हम लोग अभी चर्चा कर रहे थे कि अटल जी का जो व्यक्तित्व रहा है उसमें इन तमाम महापुरुषों के जो कार्य शैली रही, जो जीवन दर्शन रहा है, जो जीवन पद्धति रही है, उसका समावेश दिखाई देता है। एक तरह से कहें तो पूरा मिश्रण है अटल जी का व्यक्तित्व। एक और आपने बहुत अच्छी कविता सुनाई अटल जी की कि वो अक्सर कहा करते थे कि टूटे तन और छोटे मन से कोई बड़ा नहीं बनता, आखिर क्या वजह रही कि वह सामाजिक परिवेश, वह वैचारिक परिवेश, वह वैचारिक प्रतिबद्धता, वैचारिक प्रशिक्षण तो जनसंघ से लेके बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं को भी मिला, अवसर भी मिला, अटल जी ही क्यों?

लालजी टंडन: एक स्तंभ होता है, उसके उपर एक छत होती है, और जब मंदिर बनता है तो उसके ऊपर एक शिखर होता है, तो किसका महत्व ज्यादा है, वो जो जमीन में पत्थर है उसका, जो स्तंभ है जो रोके हुए है उसका जो सबको छाया दे रहा है उसका, या जो ऊपर से उसकी सुंदरता को दिखा रहा है, पूरे संपूर्ण स्वरुप को दिखा रहा है उस कलश का, जो उनके साथ थे वो अटल जी से किसी मायने में कम लोग नहीं थे, जो शुरुआती दौर में आए, बाद में आडवाणी जी भी उसमें शामिल हुए लेकिन जिसे कहते हैं कि एक राष्ट्रवादी स्ट्रक्चर खड़ा हुआ था इस देश में। उसका शिखर अटल बिहारी वाजपेयी बन गए और उनको बनाने में सभी का योगदान रहा। अटल जी की प्रतिभा, गोलवलकर जी और भाऊराव जी की और दीनदयाल जी की विचारधारा। इन सबको मिलकर जो एक समूह बना था। उसमें तीन बातें कि एक वैचारिक प्रतिबद्धता, नैतिक साहस, संगठन की कला और निस्वार्थ देश को समर्पित जीवन। ऐसे लोगों का एक समूह था। जिसने अपनी-अपनी जगह के ऊपर उन्होंने कमाल करके दिखाया और आख़िर में एक ऊपर। उन्हीं में से सबने मिलकर, जो आवाज़ थी देश की। जो आवश्यकता थी देश की। डॉक्टर मुखर्जी के जाने के बाद जो एक नेतृत्व का अभाव पैदा हो गया था। उसको पूरा करने के लिए अटल जी को एक, उनका प्रोजेक्शन इस तरह से हुआ और स्वभाविक है कि जो कवि होगा, पत्रकार होगा। वो विचारवान भी होगा। उनकी वाणी में जो शक्ति थी। उससे जो अभिव्यक्ति हुई। उस अनुभूति की जो उन्होंने जीवन में की, उसने देश में एक क्रांति की बुनियाद डाल दी।
वासिंद्र मिश्र: बस यही जो सबसे बड़ा सूत्रवाद कि अभी आपने बताया जो कि अटल जी को या अटलजी की पीढ़ी के आप जैसे नेताओं को, जो मौजूदा जमात है। उससे अलग करती है कि निस्वार्थ भावना से काम करना, समाज के हित में, देश के हित में संगठन के हित में, पार्टी के हित में। आपको नहीं लगता है कि जिस गुरु गोलवलकर जी से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल जी, अटलजी और आप जैसे लोगों ने, जो अपना पूरा जीवन लगा दिया। यह लक्ष्य कभी नहीं रहा कि शायद कभी सत्ता आएगी। कभी मंत्री बनेंगे, कभी प्रधानमंत्री बनेंगे, कभी मुख्यमंत्री बनेंगे। आज का जो दौर है, उसमें आपके ही जो विचारधारा को कथित रुप से पालन करने का दावा करने वाले लोग हैं। गुरुजी की विचारधारा, आपकी विचारधारा, अटलजी की विचारधारा, उनका मुख्य एजेंडा अब निहित स्वार्थ पहले हो गया है। बाकी चीजें पीछे हो गई हैं और उस निहित स्वार्थ को लक्ष्य बनाकर विचारधारा की कभी बातें कही जाती है। कभी समरसता की बात कही जाती है। कभी त्याग की बात कही जाती है। शायद इसलिए वह जो एक धार, एक जो प्रभाव, एक जो कमिटेड फोर्स बननी चाहिए, वो नहीं बन पा रही है?
लालजी टंडन: बहुत सी चीजें परिस्थितिजन्य भी होती हैं और यह एक प्रकृति का भी नियम है कि कोई एक व्यक्ति किसी परिवार में, किसी समाज में ज़िम्मेदारियां संभालता है और वो प्रकृति के शिखर तक पहुंचता है और उसके एकदम से सीन से हट जाने के बाद, जो एक वैक्यूम होता है, उसको भरने की जो प्रक्रिया होती है। उसमें कहीं न कहीं जिन गुणों से अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों का निर्माण हुआ था। वो डाल्यूट होना स्वाभाविक है और वो सब जगह दिखाई देता है। गांधी से राहुल गांधी से देख डालो। इसी तरह जब पूरे देश को चलाना होता है तो कई जगह जो मेरे विचार हैं। अपने विचारों को दूसरों के साथ चलने के लिए कहीं न कहीं समझौता भी करना पड़ता है। व्यक्तित्व और विचार नहीं बदलते लेकिन परिस्तिथियां बदल जाती हैं।
वासिंद्र मिश्र: एक आम मान्यता है और एक धारणा है, हम लोग बचपन से अटलजी के बारे में पढ़ते रहे हैं। आपके बारे में जानते हैं, लखनऊ के हम लोग बचपन से आपको देखते रहे हैं। आपके ज़रिये अटलजी को भी देखते रहे हैं। ऐसा कौन सा खास सूत्र है जो कि आपके जीवन में रहा। जो कि अटलजी के जीवन में रहा। आप लोगों के बारे में एक आम चर्चा है कि जितने अच्छे रिश्ते आपके अपने दल में हैं उससे ज़्यादा अच्चे रिश्ते आपके दूसरे दल के नेताओं से रहते हैं। इस सूत्र को आप लोगों ने किस तरह से पिरो के रखा कि इतने साल हो गए, आज तक आप लोगों के रिश्तों में कहीं कोई कटुता, कड़वाहट नहीं दिखी। चाहे वो नारायण दत्त तिवारी हों या आज की तारीख में मुलायम सिंह हों या और भी तमाम बड़े नेता डॉ. लोहिया थे।
लालजी टंडन: मैंने तो ये कहा कि जब गांधी जी के बाद जो राजनीतिक दलों का ध्रुवीकरण हुआ। उसमें जो विचारधाराएं अलग-अलग आईं। उसमें जो राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग थे। तो संघ से लेकर और जनसंघ के गठन तक का वो एक दौर की बात हमने कुछ व्यक्तित्व का उल्लेख करके बताईं लेकिन उसी समय बहुत से ऐसे लोग थे कि जिन्होंने इस देश में बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया। लेकिन सत्ता में नेहरु जी के प्रभावी होने के बाद जो सारी देश की राजनीति थी वो सत्तान्मुख हो गई।
वासिंद्र मिश्र: आपके बारे में और अटलजी के बारे में जो नौजवान पीढ़ी है आज की, वो सोशल मीडिया के ज़रिये फेसबुक के ज़रिये कभी-कभी इस तरह की ख़बरें बीच में चलाई जाती हैं कि अटलजी को या टंडनजी को राजनीति में और संगठन में और सरकार में बहुत सारे महत्वपूर्ण पद बगैर किसी संघर्ष के मिल गए। नौजवान पीढ़ी में इस तरह की चीजें अक्सर प्रचारित की जाती हैं। आप थोड़ा सा इसको एक्सप्लेन करेंगे कि इस तरह की धारणा क्यों बनी? कहा जाता है कि अटलजी बेस्ट खाना खाने के शौकीन थे। बेस्ट कंफर्ट चाहिए उनको। बेस्ट लाइफस्टाइल चाहिए।
लालजी टंडन: मैंने कहा कि एक आदमी का जीवन जो है, हमने जिया और गांव में कहावत है, कभी घी घना और कभी मुट्ठी भर चना और हम सब अपने जीवन में इन सब परिस्थितियों से गुजरते रहे हैं। कहीं जो दिन भर ऐसा भी होता था कि खाना नहीं मिलता था लेकिन जो राजनीति में एक कुंठा और एक जो कटुता और एक जो मन में विद्वेषभाव की बात होती है, वो नहीं थी। एक मस्ती थी। किसी के पास कुछ नहीं था। न मेरे पास था और न उनके पास था लेकिन जब मन आया दिनभर गांव-गांव घूमे। जो आदमी ये कहते हैं कि अटलजी ने संघर्ष नहीं किया, वो मूर्ख हैं, उन्हें कभी ज्ञान नहीं है, एकमात्र वो व्यक्ति ऐसे हैं जो गांव-गांव पैदल गए। आज मैं जब उन दूर गांव में जाता हूं तो कोई न कोई बूढ़ा मिल जाता है। जो कहता है कि अटलजी आए रहे हैं इत्ते बरस हो गए और वो ई चारपाई पे बैठे रहे, ये नेहरू के बारे में कोई नहीं कहता, ये किसी के बारे में नहीं कहता, छोटी सी छोटी बात पर भी अगर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करके और निर्णयों को प्रभावित कर सकता था, तो वो शक्ति अटलजी में शुरू से थी।
वासिंद्र मिश्र: टंडन जी जब अटलजी प्रधानमंत्री थे देश के तो कहा जाता है कि अब उसमें ऐतिहासिक प्रमाण है कि नहीं, कितनी सच्चाई है ये तो आप लोग जानते होंगे, लेकिन ये कहा जाता है कि पंडित नेहरु जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने बहुत पहले कहा था कि अटलजी एक दिन देश का नेतृत्व करेंगे और अटलजी प्रधानमंत्री रहते हुए जिस तरह से सोनिया गांधी द्वारा लिखित हर पत्रों का सही तरीके से जवाब देना, विपक्ष की नेत्री के रुप में जो भी उनकी तरफ से सुझाव जाता था। उसकी बिना ये परवाह किए कि इसका पॉलिटिकल माइलेज या राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिलेगा। उन सुझावों को तुरंत लागू करवाने की कोशिश करना। इसके पीछे क्या मकसद था, क्या ये वही व्यक्तित्व दर्शाता है कि वो अपने को निहित स्वार्थ, निजता से ऊपर रखकर चलते थे?
लालजी टंडन: चूंकि बहुत से तथ्य ऐसे हैं कि जो उसके सबस्टेंस तो लोगों के सामने आते हैं लेकिन शुरुआत कैसे हुई ये उन्हें मालूम नहीं होता। अटलजी से अक्सर इस तरह की बातों पर चर्चा होती थी तो अटलजी जब पहली बार पार्लियामेंट में गए तो स्वाभाविक है कि पार्लियामेंट की कार्यशैली वहां के नियम समझने में कुछ समय लगेगा। ये बात अटलजी ने कई बार अपनी गोष्ठियों में और चर्चाओं में सार्वजनिक रुप से भी कही कि जब मैं पहली बार चुनकर गया तो मेरे दल कि भी ऐसी संख्या नहीं थी और बिल्कुल नया, युवा और पहले ही दिन विदेशनीति पर चर्चा थी, उसमें मेरा नाम दे दिया गया। ये अटलजी के शब्द हैं। जहां जवाहरलाल जी जैसे, बड़े-बड़े दिग्गज वहां पर बैठे हुए हैं, उनके सामने विदेश नीति पर पहली बार और संसद में मैं क्या बोलूंगा। मैं तैयारी से भी नहीं आया था। लेकिन उन्होंने कहा कि जब मैं बोला तो जितना समय निर्धारित था। उससे ज़्यादा समय मैं बोला और सारे सदन ने और स्वयं जवाहरलाल जी ने स्पीकर से अनुरोध किया कि बोलने दीजिए। संसद की कार्यवाही स्थगित हुई तो जवाहरलाल जी मेरे पास आकर मेरी पीठ ठोंकी। उसमें विदेश नीति की कड़ी आलोचना थी और नेहरु जी विदेशमंत्री थे, तब भी उन्होंने आकर पीठ ठोंकी और कहा कि तुम एक दिन बहुत बड़े नेता बनेंगे। कभी उन्होंने ये भी कहा था कि किसी विदेशी मेहमान से परिचय करवाने के दौरान कहा कि ये भारतीय राजनीति के उदयीमान नेता हैं। एक दिन ये प्रधानमंत्री बनेंगे। मतलब नेहरु जी, जो उनके बाद की पीढ़ी थी। उस समय इस बात का अपने आप में प्रमाण है कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रतिभा को पहचाना था। सभी से उनके मधुर संबंध थे। क्योंकि जो उनकी धार थी भाषण की। वो एक विचार के ऊपर आधारित थी। व्यक्ति पर नहीं थी। इसलिए जो कटु से कटु आलोचना होती थी तो उन नीतियों की होती थी। जो वहां पर बैठे हुए लागू कर रहे हैं। जब विदेश नीति की आलोचना की थी तो उसमें जवाहरलाल जी नहीं थे। पूरे सरकार की जो विदेश नीति थी। उसके ऊपर जो विपक्ष के एक नेता की हैसियत से हमला होना चाहिए था, वो था। बहुत नज़दीकी से उन्होंने देश की राजनीति को देखा है। एक बार इसी विषय पर उनका एक व्याख्यान था तो उन्होंने कहा था कि मैं देख रहा हूं कि हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण कैसे हो रहा है। परंपरा टूट रही है, सहनशीलता घट रही है और उन्होंने नेहरु जी का उदाहरण दिया था कि उन्होंने सबके साथ काम किया। तो नेहरुजी के समय में जो मैंने अभी आपको बताया तो उन्होंने बताया, बोले उसके बाद इंदिरा गांधी जी हुईं। तो जब मैंने उनकी विदेश नीति की आलोचना की तो देखा कि इंदिरा जी का चेहरा तमतमा गया और जिस बात पर मुझे नेहरु जी ने प्रोत्साहित किया था। उन्हीं परिस्थितियों, उन्हीं बातों को लेकर इंदिरा जी में इतना रिएक्शन पैदा हुआ कि वो मेरे सामने से बड़ी तमतमाईं हुईं निकलकर चली गईं। बस नेहरु जी के काल में मेरी शुरुआत थी और इंदिरा जी के समय में मेरी एक पहचान बन गई थी। उसमें मैं बुलाया गया था। तब भी कोई विदेशी मेहमान आए थे तो मेरे सामने से इंदिरा गांधी निकलकर चली गईं और उन्होंने इस शिष्टाचार का पालन नहीं किया।
वासिंद्र मिश्र: अटल जी के लखनऊ से रिश्ते के बारे में थोड़ी बात करेंगे कि अटलजी मध्य प्रदेश, ग्वालियर देश के तमाम हिस्सों में भी अटलजी के चाहने वाले काफी थे। उनकी पॉपुलेरिटी काफी थी। क्या कारण रहा कि उन्होंने शुरू से लेकर आज तक लखनऊ से ही अपना सरोकार बनाए रखा। ऐसी कौन सी वो मैग्नैटिकी शक्ति है लखनऊ में या लखनऊ की तहजीब में और रवायत में जो कि अटलजी को बांधे रही।
लालजी टंडन: जन्म भी उनका उत्तर प्रदेश में ही हुआ। उनकी कर्मभूमि भी लखनऊ शुरू से हुई, कानपुर में उनकी शिक्षा और फिर जब वो संघ के प्रचारक बने तो लखनऊ में शुरुआत हुई उनकी पत्रकारिता में। तब से वो लखनऊ में, जब जनसंघ बना, तब भी लखनऊ से ही डॉक्टर मुखर्जी ने उन्हें अपने साथ रखा। अपने सहयोगी के रुप में उन्हीं का चयन किया था और आगे का इतिहास बताता है कि जब मुखर्जी जी बहुत जल्दी चले गए थे, नहीं कर सके थे, वो अटलजी ने करके दिखाया। गठबंधन की राजनीति का जैसे मैंने कहा शुरुआत हुई थी और जनसंघ की स्थापना इस देश के आधुनिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण घटना था जहां मार्क्सवाद और समाजवाद की एक ऐसी खिचड़ी थी कि दिशाविहीन हो रही थी राजनीति, कि इतना बड़ा देश, जो सांस्कृतिक रुप से जोड़ा है, इसके पहले भी तो था लेकिन कितने राज्य थे, कितने रजवाड़े थे, सबको कोई जोड़ नहीं पाया। तो अटलजी का शुरू से ये था कि इस बड़े देश की विभिन्नता को हमें ध्यान रखना होगा और लोकतंत्र ही वो माध्यम है जिससे हम जनता को वाणी दे सकते हैं।
वासिंद्र मिश्र: अगर हम कहें तो लखनऊ ही पूरे देश की जो यूनिटी इन डायवर्सिटी का जो चरित्र है। उसका एक बेमिसाल नमूना है। इसको आप मानते हैं। हर मजहब, हर विचारधारा, हर संस्कृति की एक समरसता जो सदभाव लखनऊ में दिखता है वो कहीं और देखने को नहीं मिलता है। शायद यही एक सबसे बड़ा कारण रहा होगा अटलजी को सबसे ज़्यादा लखनऊ से जोड़े रखने का?
लालजी टंडन:ज़रुर
वासिंद्र मिश्र: बहुत-बहुत धन्यवाद टंडन जी आपको इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए और अटल जी के व्यक्तित्व से जुड़े तमाम उन पहलुओं को सार्वजनिक करने के लिए धन्यवाद।

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