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नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने आज मौत की सजा का सामना कर रहे कैदियों से निपटने के लिए अधिकारियों के लिए 12 दिशा-निर्देश तय किए। न्यायालय ने कहा कि उनका एकांत कारावास असंवैधानिक है और उनकी दया याचिका को खारिज किए जाने की सूचना उन्हें और उनके रिश्तेदारों को लिखित में अवश्य दी जानी चाहिए। प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने मौत की सजा का सामना कर रहे कैदियों से कैसे बर्ताव किया जाना चाहिए इस बारे में जेल नियमावली में ‘विषमता’ पर गौर करते हुए दिशा-निर्देश तैयार किए।
न्यायालय ने कहा, ‘‘हमने पहले ही विभिन्न राज्यों की जेल नियमावली के प्रावधानों और दया याचिकाओं और दोषियों को फांसी देने से निपटने के लिए वास्तव में क्या प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए इसको देखा है। पहले से ही मौजूद कानूनों को लागू करने में विषमताओं के मद्देनजर हमारी मंशा मौत की सजा के दोषियों के हितों की रक्षा करने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने की है।’’ दिशा-निर्देश में कहा गया कि दया याचिका को राष्ट्रपति के पास पेश किए जाने से पहले सारे जरूरी दस्तावेज और रिकॉर्ड गृह मंत्रालय को टुकड़ों-टुकड़ों में भेजने की बजाय एकबार में भेजा जाना चाहिए। उसमें यह भी कहा गया है कि सारे विवरण मिलने के बाद गृह मंत्रालय को अपनी अनुशंसाओं को राष्ट्रपति को एक तर्कसंगत अवधि के भीतर बतानी चाहिए और राष्ट्रपति के कार्यालय से कोई जवाब नहीं मिलने पर समय-समय पर रिमाइंडर भेजना चाहिए।
शीर्ष अदालत ने गौर किया कि ज्यादातर जेल नियमावलियों में मौत की सजा का सामना कर रहे कैदियों और उनके परिवार को राष्ट्रपति द्वारा उनकी दया याचिका खारिज किए जाने के बारे में सूचित किए जाने का प्रावधान है लेकिन लिखित में उन्हें सूचित नहीं किया जाता है और दया याचिका खारिज किए जाने की सूचना उन्हें लिखित में दी जानी चाहिए। पीठ ने यह भी कहा कि किसी भी जेल नियमावली में राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने की सूचना दिए जाने का प्रावधान नहीं है और चूंकि दोषी के पास अपनी दया याचिका राज्यपाल को भेजने का अधिकार है इसलिए ‘‘वह फैसले की लिखित में सूचना दिए जाने का हकदार है।’’ अदालत ने यह भी कहा कि मौत की सजा के दोषी राष्ट्रपति और राज्यपाल से दया याचिका खारिज किए जाने की प्रति हासिल करने के हकदार हैं।
दया याचिका खारिज किए जाने का पत्र मिलने और फांसी की तारीख के बीच 14 दिन का अंतर होने पर न्यायालय ने कहा कि यह दोषी को ‘‘फांसी के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार करने में मदद करेगा’’ और ‘‘कैदी को अपने परिवार के सदस्यों से आखिरी बार मिलने की अनुमति देगा।’’ पीठ ने कहा, ‘‘फांसी की निर्धारित तारीख का पर्याप्त नोटिस दिए बिना कैदी न्यायिक उपचार हासिल करने के अधिकार से वंचित होगा और वह आखिरी बार अपने परिवार से नहीं मिल पाएंगे।’’ न्यायालय ने गौर किया कि कैदियों और उनके परिवार के बीच आखिरी मुलाकात का प्रावधान अनेक जेल नियमावलियों में नहीं है और ‘‘इस तरह की प्रक्रिया मानवता और न्याय के लिए मूलभूत है और सभी जेल अधिकारियों को उसका पालन करना चाहिए।’’ मौत की सजा के कुछ मामलों में लंबे समय तक चिंता और मौत की सजा की वजह से कष्ट के कारण कुछ दोषियों के मानसिक संतुलन खो देने पर गौर करते हुए न्यायालय ने कहा कि मौत की सजा के सभी दोषियों के मानसिक स्वास्थ्य का नियमित मूल्यांकन होना चाहिए और जिन्हें आवश्यकता हो उनका उचित चिकित्सीय उपचार किया जाना चाहिए। (एजेंसी)