नवरात्र विशेषः देवी के उन भक्तों की कथा, जिन्हें सबसे पहले प्राप्त हुई मां भगवती की कृपा

राजा सुरथ अपने प्रतिद्वंद्वी महाराज नंदि से हारकर वन में भटक रहे थे. वह पराजय को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे और मोह से विमुख नहीं हो पा रहे थे. उसी वन में एक धनी वैश्य अपनी संतान व पत्नी के तिरस्कार से दुखी होकर भटक रहा था. दोनों दुखी वन में मिले तो मित्र बन गए और साथ-साथ देवी की कृपा प्राप्त की, लेकिन कैसे, जानिए यह दिव्य कथा.

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Mar 28, 2020, 10:05 AM IST
    • राजा सुरथ को ऋषि मेधा ने सुनाया देवी का महात्म्य
    • देवी के पहले कृपापात्र बने राजा सुरथ और समाधि वैश्य
नवरात्र विशेषः देवी के उन भक्तों की कथा, जिन्हें सबसे पहले प्राप्त हुई मां भगवती की कृपा

नई दिल्लीः जैसे-जैसे अंधकार बढ़ता जाता था, हवा की सांय-सांय और डरावनी होती जाती थी. सूर्य की पहली किरण के साथ घोंसलों से निकले पंछी संध्या की आखिरी रेखा मिटने तक घोंसलों में लौट चुके थे. यह समय था हिंसक पशुओं के मांद से बाहर आने का और घु्प्प अंधेरे के चीरती उनकी गर्जना हृदय को बेध देती थीं.

कहीं-कहीं कोटरों से विषधरों की फुंफकार भी सुनाई पड़ जाती थी. किसी मानव मन के हाड़ को कंपा देने के लिए यह सभी बहुत थे, लेकिन न जाने किस उधेड़बुन में दो पग लगातार आगे ही बढ़ते चले जाते थे. 

...लेकिन इस सुनसान वन में वह अकेला नहीं था
मन में एक अन्जाना भय, आंखों में अपकीर्ति का भय और झुका हुआ मस्तक लेकर यह व्यक्ति चला जा रहा था. शरीर पर राजसी चिह्न जरूर थे, लेकिन तन की कांति मलिन हो चली थी. केश खुले हुए थे और चेहरे पर चिंताओं ने आकर असमय ही गाढ़ी लकीरें डाल दी थीं.

न जाने कितने कोस यूं ही चल लेने के बाद दिन निकल आया और व्यक्ति ने देखा कि किसी पेड़ के नीचे एक मानव आकृति सिर नीचे किए हुए बैठी है. पैदल ही चले आ रहे व्यक्ति ने अपनी चाल कुछ तेज की और इस निर्जन वन में किसी के यूं ही अकेले बैठे देखकर आश्चर्य समझा तो उसके पास पहुंच गए. 

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दो दुखियों में हुई मित्रता
पेड़ के नीचे बैठा व्यक्ति जैसे कई चिंताओं के बोझ तले दबा था. अनायास ही किसी अन्जान को सामने देखकर चौंका जरूर, लेकिन कुछ देर देखने के बाद उसे उसका भी हाल अपने जैसा लगा तो हृदय को संतोष हुआ. दुखी को दुखियारा मिल जाए तो दुख का अंत तो नहीं होता, लेकिन संतोष जरूर होता है.

इसी संतोष ने दोनों के हृदय में एक-दूसरे के प्रति मित्रता का भाव जगाया और अब इस निर्जन वन में भयाक्रांत वातावरण के बीच दो मनुष्य थे. दोनों ने एक-दूसरे को परिचय दिया, पहले व्यक्ति ने कहा मैं वैश्य हूं, मेरा नाम समाधि है. दूसरे ने कहा, मैं सुरथ हूं, राजा सुरथ. यह सुनकर पहला व्यक्ति हड़बड़ाया लेकिन राजन ने उसे संभाल लिया, कहा-घबराइए मत मित्र, इस निर्जन में हम दोनों केवल मनुष्य हैं. 

दोनों ने अपने-अपने हाल कह सुनाए
इसके बाद राजा ने समाधि वैश्य से उसकी चिंता का कारण पूछा. तब वैश्य ने कहा कि मैं धर्म पूर्वक व्यापार करके जो भी लाता उसे परिवार की सुख-सुविधाओं पर लुटा देता था. उन्हें कोई चिंता न हो इसकी मुझे हमेशा चिंता होती थी. इसके बाद भी मेरी स्त्री और मेरे पुत्र मेरे प्रति दुर्व्यवहारी हो गए.

अब जब मैं व्यापार नहीं कर सकता तो उन्होंने मेरा तिरस्कार व अपमान कर दिया. मैं तीन दिन से इस वन में अकेला हूं, फिर भी मेरा उनके प्रति मोह नहीं नष्ट हो रहा है. मैं इसीलिए चिंतित हूं. मेरे मोह को भंग करने का उपाय करें. हे राजन. इतना कहकर समाधि की आंखें भर आईं. 

राजा सुरथ ने भी अपनी चिंता बताई
इतना सुनकर राजा ने समाधि को ढांढस बंधाया और कहा, विलाप न करो मित्र, मेरी स्थिति भी तुमसे भिन्न नहीं है. ध्रुव के पौत्र तथा उत्कल के पुत्र बलवान नन्दि स्वयंभू मनु के वंश में उत्पन्न राजा हुए हैं. उन्होंने सौ अक्षौहिणी सेना लेकर मेरे राज्य को चारों ओर से घेर लिया.

हम दोनों के पक्षों में पूरे एक वर्ष तक निरन्तर युद्ध होता रहा, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला. अंत में मेरे सैनिक युद्ध में खेत होते गए और मैं अकेला पड़ने लगा. वैष्णव नरेश नन्दि ने मुझ पर विजय पाली और मुझे राज्य से बाहर कर दिया. इसी अपकीर्ति से मैं वन को चला आया. अब यही मेरी चिंता का कारण है. न तो मैं हार स्वीकार कर पा रहा हूं औऱ न ही राज्य के प्रति मोह त्याग कर पा रहा हूं. 

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दोनों ही ऋषि मेधा के आश्रम पहुंचे
अपनी जीवन कथा सुनाते-सुनाते दोनों भद्र पुरुषों ने 12 कोस का रास्ता तय कर लिया और अब जहां वह पहुंचे थे, वह किसी गांव के निकट का स्थान था. जंगल का निर्जन समाप्त हो रहा था और सामने थके हुए मन को शांति देने वाली हरियाली लहलहा रही थी.

बहुत ही शांत वातावरण में पंचगव्य की सुगंध घुली हुई थी तो अग्नि में पड़ी समिधा से सुरभित पवन उन्हें उसी ओर आगे बढ़ने का निमंत्रण दे रही थी, जहां से वह बहकर आ रही थी.

इस सुरभि के पीछे चलते हुए दोनों भद्र पुरुष एक ऋषि के आश्रम में पहुंच गए. एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे ऋषि अपने शिष्यों को सृष्टि के आरंभ का सूत्र समझा रहे थे. उन्होंने कहा- एकोअहं, बहुष्यामि. राजन को यह सूक्ति सुनकर शांति मिली, उन्हें यह आभास हो गया कि अब यही ऋषि उनके मोह के बंधन काट सकते हैं. 

ऋषि चरणों में पहुंचे राजा सुरथ और वैश्य
सूक्ति सुनते ही समाधि वैश्य और राजन ने दौड़कर ऋषि के चरण पकड़ लिए और त्राहिमाम कहते हुए विलाप करने लगे. शांतचित्त ऋषि ने दोनों को आशीष देते हुए उठाया और उन्हें उनकी चिंता दूर करने का आश्वासन देते हुए निकट बैठाया.

सांत्वना देने वाले वचन कहे, जल पिलाया और कहा कि अब आप दोनों बताइए, क्या चिंता है?  मैं हर संभव उसे दूर करने का प्रयास करूंगा. तब राजन सुरथ और समाधि ने अपनी-अपनी आप बीति महर्षि मेधा को बता दी. फिर कहा कि-हे देव हमारे ह्रदय में मोह क्यों बना हुआ है, इसका कारण क्या है?

तब महर्षि ने सुनाया देवी महात्म्य
महर्षि मेघा ने उन्हे समझाया कि मन शक्ति के आधीन होता है,और आदि शक्ति के अविद्या और विद्या दो रूप है, विद्या ज्ञान स्वरूप है और अविद्या अज्ञान स्वरूप. जो व्यक्ति अविद्या (अज्ञान) के रूप में उपासना करते है, उन्हें वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं.

इतना सुन राजा सुरथ ने प्रश्न किया- हे महर्षि ! देवी कौन है? उसका जन्म कैसे हुआ? वह कहां मिलेंगी? उनके महात्म्य के विषय में बताइए. हम उन्हें कैसे पुकारें?

महर्षि मेधा ने बनाया देवी का कृपापात्र
राजन ने एक स्वर में उत्सुकता वश सारे प्रश्न कर लिए. महर्षि ने उन्हें देवी का स्वरूप बताया. कहा कि राजन, देवी नित्य स्वरूपा और विश्वव्यापिनी है. वह आदि शक्ति हैं. उन्हें परमा की संज्ञा भी प्राप्त है. वह विष्णु की योगमाया शक्ति भी हैं और उनकी योगनिद्रा भी हैं.

उनका प्राकट्य हुआ, जन्म नहीं. वह अनादि हैं और अनंत भी. यह सत्य है कि वह संसार के कल्याण के लिए जन्म लेती रही हैं. फिर भी वह आदि स्वरूपा हैं. इस तरह उन्होंने देवी के प्राकट्य की कथा सुनकर राजा और वैश्य की चिंता दूर की. ऋषि कृपा से दोनों को ही तपस्या के फलस्वरूप भगवती की कृपा प्राप्त हुई. 

ऋषि मेधा ने राजन को क्या कथा सुनाई, जानिए  इस अगली कड़ी में   नवरात्रि विशेषः महर्षि मेधा और राजा सुरथ की कथा, जो श्रीदुर्गा सप्तशती का आधार बनी

 

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