66 साल का भारतीय गणतंत्र
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66 साल का भारतीय गणतंत्र

देश आज 66वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। कहते हैं कि कभी यह देश गणों का तंत्र था यानी शासन जनता के हाथों में होता था। आज हम सब तंत्र के गण बन चुके हैं यानी सत्ता के कल-पुर्जे। कहने को तो हम सब दुनिया के सबसे बड़े समझे जाने वाले लोकतंत्र के गण हैं पर यह सब दिखावटी बातें हैं। दरअसल हम वे मशीनी निर्जीव औजार हैं जो मिलकर एक विशालकाय मशीन तो बना लेते हैं पर उस मशीन मालिक जब चाहे अपनी जरूरत के मुताबिक उस पुर्जे को बदल सकता है।

66 साल का भारतीय गणतंत्र

देश आज 66वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। कहते हैं कि कभी यह देश गणों का तंत्र था यानी शासन जनता के हाथों में होता था। आज हम सब तंत्र के गण बन चुके हैं यानी सत्ता के कल-पुर्जे। कहने को तो हम सब दुनिया के सबसे बड़े समझे जाने वाले लोकतंत्र के गण हैं पर यह सब दिखावटी बातें हैं। दरअसल हम वे मशीनी निर्जीव औजार हैं जो मिलकर एक विशालकाय मशीन तो बना लेते हैं पर उस मशीन मालिक जब चाहे अपनी जरूरत के मुताबिक उस पुर्जे को बदल सकता है। लेकिन ये किसी सफल गणतंत्र के शर्त नहीं है।

गणतंत्र केवल राजनीतिक ढांचा ही नहीं होता जिसमें समय पर चुनाव द्वारा सरकार का गठन हो। गणतंत्र एक प्रक्रिया है जिसका आधार कानून की व्यवस्था है, साथ ही इसमें लोगों के अधिकारों का भी महत्व है। यदि किसी गणतंत्र में कानून की व्यवस्था लुप्त हो जाए या लोगों के अधिकारों पर राजनीतिक नियंत्रण थोपा जाए तो उसके गणतंत्र कहलाने पर सवालिया निशान लग जाता है।

आज जबकि हम सगर्व अपना 66वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं तो इस बात पर चिंतन-मंथन हो कि क्या हमने अपने सभी गण के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित कर लिया है? क्या आज सभी भारतीयों को हैसियत और अवसर की समानता उपलब्ध है? क्या सबको विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था एवं उपासना की संपूर्ण स्वतंत्रता मिली हुई है? और क्या हम अपने समाज में बंधुत्व की ऐसी भावना स्थापित करने में सफल हैं, जिससे हर व्यक्ति की गरिमा सुरक्षित हो सके?

छह दशक से अधिक के समय में हमने क्या खोया और क्या पाया? देश की आजादी तो ठीक है, लेकिन एक गणतंत्र के तौर पर सफलता की कसौटी पर हम कितना खरा उतर पाए? गणतंत्र दिवस पर हमने जो संविधान स्वीकार किया था, वह कितना सफल रहा? चिंतन इस बात पर भी होनी चाहिए कि केन्द्र-राज्यों के सम्बन्धों की जटिलता दूर करने की दिशा में क्या अड़चनें हैं और इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? संविधान ने तो आम जनता को बहुतेरे अधिकार दे रखे हैं लेकिन क्या हम इस देश के सभी नागरिकों को सही मायनों में आजादी दे पाए हैं?

दरअसल हमारा तंत्र इतना जटिल है कि आजादी के 65 साल बाद भी देश में बहुतेरे लोग यह कहते मिल जाते हैं कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का ही राज था। यानी आजादी और अपना संविधान मिलने के बावजूद कहीं ना कहीं खिन्नता का भाव देश में मौजूद है जो दर्शाता है कि तरक्की के तमाम दावों के बावजूद आमजन उपेक्षित महसूस करता है। शासन में बैठे लोगों को तो इस पर मनन करना ही चाहिए, लेकिन सबसे अधिक जिम्मेदारी गण की बनती है, तंत्र का नंबर बाद में आता है। गण को विचार करना होगा कि क्या वह अपनी जिम्मेदारी ढंग से निभा रहा है? हम अधिकारों की बात तो करते हैं लेकिन कर्तव्यों के निर्वहन की बात क्यों भूल जाते है?

हालांकि इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि बीते छह दशक से अधिक वर्षों में व्यापक विकास हुआ है। लेकिन दुर्भाग्य से जनहित का विचार व्यापक रूप से पीछे खिसकता गया है। जनहित की आवाज लगातार दबती चली गई। किसी भी कामयाब गणतंत्र के लिए जिन मूल्यों को आगे बढ़ाना जरूरी होता है और जिसकी व्याख्या संविधान में विशिष्ट रूप से की गई है, आज ये सारे मूल्य केवल कागजों पर रेखांकित कुछ शब्द भर रह गए हैं। आज हमारे गणतंत्र का आदर जन समर्थन पर आधारित नहीं है, सुरक्षा बलों द्वारा उनके दमन पर आधारित है। राष्ट्रवाद इस दमन की प्रक्रिया में एक ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।

सरकार, सियासी दलों और आम नागरिक को संसाधनों का देशहित में इस्तेमाल करने की आदत डालनी चाहिए। गणतंत्र दिवस पर ईमानदारी से ये चिंतन हो जाए और उसी के अनुरूप सोच भी ढल जाए, तभी गणतंत्र की सफलता मानी जाएगी। परेड और झांकियां गणतंत्र दिवस का एक अंग हो सकता है लेकिन बात तभी बनेगी जब हम सब मिलकर अपनी गलतियों से सबक लेते हुए उन्हें ना दोहराने का संकल्प लें। महिला सुरक्षा, भ्रष्टाचार, पर्यावरण संरक्षण, मौलिक अधिकारों की पूर्ति ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसपर गंभीरता से काम करना होगा। ऐसा करना कोई मुश्किल काम नहीं, जरूरत नीयत और इच्छाशक्ति की है। उन लोगों की नीयत और इच्छाशक्ति जिनके हाथों में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सत्ता की बागडोर है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी कई सफलताओं से दुनिया चकित है। बावजूद इसके यह निश्चिंत होकर बैठने का वक्त नहीं है। चुनौतियां हमेशा बनी रहती हैं, इसीलिए तो कहा गया है कि सतत जागरूकता ही स्वतंत्रता की गारंटी है। 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय दिवस हमें यही याद दिलाने के लिए तो आते हैं। गणतंत्र दिवस इसी संकल्प का अवसर है कि हमारे संविधान ने जो रास्ता तय किया, उसे सुरक्षित रखने और उसपर आगे बढ़ने के लिए हम निरंतर जागरूक और प्रयत्नशील रहेंगे।

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