भारत की निरंतरता और स्थिरता का नेहरू दर्शन नहीं समझ पाए नामवर
Advertisement
trendingNow1429460

भारत की निरंतरता और स्थिरता का नेहरू दर्शन नहीं समझ पाए नामवर

प्राचीन विदेशी यात्रियों की किताबों में लिखे वर्णन शायद अतिरंजित और कल्पना पर आधारित ही अधिक लगते, अगर भारत की धरती से सदियों बाद उनके पुरातात्विक ढांचे न निकल आए होते, उन विवरणों से हूबहू मिलते.

भारत की निरंतरता और स्थिरता का नेहरू दर्शन नहीं समझ पाए नामवर

पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया पर लगभग 30 साल पुराना नामवर सिंह का आलेख पढ़ने को मिला. इस आलेख में आज भी महत्वपूर्ण कई बिंदुओं को छुआ गया है. दरअसल नेहरू की यह विश्वविख्यात किताब 1946 में लिखी गई थी, परंतु 72 साल बाद भी इसमें जो मुद्दे उठे हैं, वे आज भी इस देश के लिए जरूरी हैं. यह किताब आज के भारत को समझने के लिए भी एक नजरिया देती है.

अगर यह इतिहास की कोई साधारण अच्छी किताब होती तो शायद समय इसे भुला भी देता. अगर यह किसी राजनेता की लिखी किताब होती, जिसके उसके वक्त में काफी चर्चे रहे हों, तो उसके गुजरने के 54 साल बाद भी इस किताब के होने का कोई मानी बचता नहीं. परंतु यह किताब शायद इस देश के बाशिंदों के अतीत ही नहीं बल्कि वर्तमान और भविष्य से एक रिश्ता बनाने में कामयाब रही. यही कारण है कि इसके लगभग हर बिंदु पर सोचा जाना चाहिए. खुद को और इस देश को जानने के लिए यह इतिहास की सबसे जरूरी किताब है.

फिलहाल नामवर सिंह के लेख में उठे सिर्फ एक मसले की ओर. नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भारतीय सभ्यता की विशेषता बताते हुए लिखा है कि इसमें निरंतरता और स्थिरता रही है. पांच हजार साल से अधिक अरसे से यह सभ्यता बनी रही है और इसमें एक तरह की कंटीन्यूटी मिलती है. नेहरू भारतीय सभ्यता के इस गुण को लेकर कुछ मोहित से हैं.

दरअसल उनकी यह पुस्तक भारतीय सभ्यता की इसी निरंतरता की खोज करती है. उसकी स्थिरता से शक्ति पाती है. वर्तमान की गतिशीलता का नया आयाम भी यह किताब खोजती है. नेहरू भारत में 19 वीं सदी के आरंभ से शुरू हुए सामाजिक परिवर्तन और 20वीं सदी में आरंभ हुए राजनीतिक आंदोलन को भारत की इस निरंतरता और स्थैर्य के साथ जोड़ पाने में सफल होते हैं.

परंतु यदि पूरी किताब जिस मकसद से लिखी गई, यानी भारत को खोजने की कोशिश, उसे अलग कर दें तो नेहरू का यह कहना कि निरंतरता और स्थिरता इस सभ्यता का एक बड़ा गुण रहा है, बहुत मानी नहीं रखता. बल्कि इसका अर्थ प्रतिगामी दिशाओं की ओर जाता है. नामवर सिंह ने अपने आलेख में इसकी आलोचना की है.

उन्होंने लिखा है कि भारत की इतिहास की निरंतरता का आलम यह था कि महान गुप्त और महान मौर्य-युग के बारे में हमें अंग्रेजों ने पुरातात्विक खोजें कर बताया न होता, तो हमें पता भी न चलता. नामवर सिंह के कहने का आशय यह है कि भारतीय सभ्यता की जिस निरंतरता को नेहरू गुण कह रहे हैं, भारतवासियों को अंग्रेजों के आने तक तो उसका बोध ही न था. इसके बाद वे स्थिरता को भारतीय समाज-व्यवस्था से जोड़ते हुए इसकी जाति-व्यवस्था और रूढ़िग्रस्तता की आलोचना करते हैं.

नामवर सिंह का कहना यह है भारत की इस स्थिरता की जड़ में यहां की जाति-व्यवस्था नामक एक ऐसी संस्था है जो कालांतर में भारत के पतन का कारण बनी. अतः भारत की यह पांच हजार साल पुरानी स्थिरता कोई सराहे जाने लायक गुण नहीं है.

निरंतरता और स्थिरता के बारे में यह नेहरू का गलत पाठ होगा. नेहरू यह नहीं कहना चाह रहे हैं कि भारतीय जनता को भारत के पांच हजार साल के इतिहास का बोध और ज्ञान था या इस लंबे दौर के इतिहास की उसे कोई चेतना थी. यह जनता तो बहुत बड़े पैमाने पर अनपढ़ थी. और लगभग दो हजार साल से समाज का शिक्षित और पढ़ा-लिखा वर्ग शास्त्रों में उलझ कर रह गया था.

नालंदा से लेकर अजंता तक उन सब पुरातात्विक साक्ष्यों पर मिट्टी के टीले जम गए थे. सदियों के अनंतर उनकी पहचान ही लुप्त हो गई थी. कुछ बहुपठित अंग्रेजों ने चीनी यात्रियों के विवरण में पढ़े मौर्य और गुप्त काल के विवरण के आधार पर इन स्थानों को लोकेट किया और खुदाई करवाई. बहुत बार तो इत्तफाकन ब्रिटिश अश्वरोही किसी जंगल में जा निकले और वहां के सामान्य भूगोल से अलग बड़े ढूहों को देखा तो उनकी सूचनाओं पर वे ढूह खोदे गए और सदियों से सोया इतिहास जाग उठा. यह सचमुच एक भव्य इतिहास था.

प्राचीन विदेशी यात्रियों की किताबों में लिखे वर्णन शायद अतिरंजित और कल्पना पर आधारित ही अधिक लगते अगर भारत की धरती से सदियों बाद उनके पुरातात्विक ढांचे न निकल आए होते, उन विवरणों से हूबहू मिलते. नालंदा की लाल ईंटों में बहुत विस्तार के साथ बसा विश्वविद्यालय आज अपने खंडहर रूप में भी हैरत पैदा करता है.

अजंता की चित्रकारी के रंग हजारों साल पुराने भारत की कला के गौरव तो हैं ही वे यह भी सूचित करते हैं कि तकनीक और विज्ञान के स्तर पर भारत कहां था. भारत के प्राचीन इतिहास की खोज एक लंबी और बड़ी कहानी है. इस इतिहास से प्राप्त वाजिब गौरव-बोध और पराजय-बोध का भी एक इतिहास अब है. पुरातन युगों में जब इतिहास के अवशेष ही लुप्त हो गए और लिखित इतिहास था ही नहीं तो भारत के जन में इसकी निरंतरता का ज्ञान होता कैसे?

पर निरंतरता से नेहरू का अभीष्ट इतिहास की जानकारी से नहीं है. यह एक गहरी बात का सतही पाठ होगा. नेहरू यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं. यहां निरंतरता से आशय कुछ और है. समय के थपेड़ों में सभ्यताएं मिट जाती हैं या उनका स्वरूप इस कदर बदल जाता है कि वे अपनी जड़ों से कटती चली जाती हैं. इतिहास के स्मृतिचिंह खो गए. राजवंशों की पीढ़ियां विलुप्त हो गईं. सदियों हमले का दौर चला. पर भारत हमेशा रहा.

भारत के ग्रामीण जन उसी भांति हल-बैलों वाली अपनी सभ्यता को सींचते रहे. जीवनधारा बहती रही. इस विराट भारतीय जीवनधारा में हमलावर आकर विलीन हो जाते रहे. यह सभ्यता अपनी समावेशी विशिष्टता के कारण निरंतरता को जी सकी. इस निरंतरता के अनेक आख्यान हैं. नेहरू इस निरंतरता को भारत की समावेशी विशिष्टता के रूप में रेखांकित करना चाह रहे हैं. और इस विशेषता को वे भारत के भविष्य के लिए एक जरूरी मूल्य समझते हैं. आजादी के बाद भारत की इस निरंतरता को ये मूल्य ही सुनिश्चित करेंगे.
नेहरू के पूरे दृष्टिकोण और प्रस्तुत पुस्तक के समस्त रुझान इस ‘निरंतरता’ की मनमानी व्याख्या की इजाजत नहीं देते. भारत की इस निरंतरता का एक आख्यान इस्लाम के रूपांतरण का है. एक उत्तर के जनपदों में घूमते बुद्ध का है. एक शंकराचार्य के भारत के भूगोल नापने का है. नेहरू यहां सांस्कृतिक निरंतरता की बात कर रहे हैं, जो इतिहास का ही एक गहरा आयाम होती है.

यह निरंतरता रही ही इस कारण कि भारत सांस्कृतिक रूप से एक गतिशील उपमहाद्वीप रहा. राजनीति के समांतर उसने अपना एक सांस्कृतिक आख्यान रचा. इस संस्कृति ने दुनिया की संस्कृतियों से अपने समय में, अपनी तरह से संवाद भी किया, उन्हें अपने में समाविष्ट भी किया. यह निरंतरता बुद्ध के वचनों, रामायण, महाभारत, उपनिषद की कथाओं, पंचतंत्र-हितोपदेश की कहानियों आदि से भारत के अनपढ़ जन का मनोविज्ञान रचती रही. उसके स्वभाव और हृदय का निर्माण करती रही.
यह भारत का जन-साहित्य था. भारत ने विपुल मात्रा में सदियों तक जन-साहित्य का निर्माण किया. इस साहित्य का निहित स्वार्थों के लिए इस्तेमाल भी किया गया. इनके शोषणपरक स्वरूप भी निर्मित किए गए. परंतु भारत ने बहुत बड़ी मात्रा में पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रहने वाले जिस विशाल लिखित और मौखिक साहित्य का सृजन किया था उसकी ही एक फलश्रुति सूफी-काव्य और भक्ति-आंदोलन का काव्य था. भारतीय साहित्य की इस शक्ति ने ही मध्ययुग में देश के दलित वंचित समुदायों से विलक्षण मेधा वाले कवि खड़े कर दिए थे. गंगा की निरंतरता इस देश की सभ्यता की निरंतरता का एक रूपक बन सकती है. क्योंकि इस सभ्यता का उत्तरी अंश इस निरंतरता के समांतर ही गढ़ा गया.

निश्चित ही इतिहास की इस निरंतरता में अनेक दोष भी थे. इन दोषों को इस देश ने संचित किया. इन दोषों की उसने मनमानी व्याख्याएं कीं, उनके जस्टीफिकेशन ढूंढ़े. इन दोषों का पूरा एक जीवन-दर्शन ही बन गया, जो भारतीय जनता को दरिद्र-वंचित और हर तरह से परतंत्र बनाता गया. इस निरंतरता को एक नई उछाल की जरूरत थी, एक नए मोड़ और एक नई दिशा की जरूरत थी. यह जरूरत कई सदियों से थी.

नेहरू 19 वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण और 20 वीं सदी के स्वतंत्रता-आंदोलन को इस उछाल और मोड़ के रूप में चिंहित कर रहे थे. इसी संदर्भ में उन्होंने इतिहास की इस निरंतरता की शिनाख्त की थी. इसके सकारात्मक पहलुओं को वे खोज सके थे. अगर हम भारत के इतिहास की इस निरंतरता को आज सचेत रूप से जान-समझ सकें, उसे पिछली एक सदी में पैदा हुई हिंदुत्व की राजनीति और अपने कई सदियों से बनी औपनिवेशिक आधुनिकता से अलग कर, अपने लिए उसकी पहचान कर सकें, नई व तर्कसंगत व्याख्या कर सकें तो इस निरंतरता का एक भविष्य है.

नेहरू उन शक्तियों की निर्मिति थे, जो अपने युग में भारत के भविष्य को रच रही थीं, इसलिए उनकी शक्ति का यह एक स्रोत था कि वे भारत को पहचान सकें. और भारत को पहचानने का मानी था, उसके हजारों साल के इतिहास की निरंतरता की ताकतों और खामियों तक पहुंच सकें. उसकी शक्तियों को अपनी शक्ति बना सकें. नेहरू ने किसी रूढ़ अकादमिक अभिव्यक्ति के रूप में इस निरंतरता को वर्णित नहीं किया, अपितु एक ऐसे स्रोत के रूप में इसे पहचाना जो बहुत अर्थपूर्ण था, जिसमें भविष्य के इशारे थे. नए भारत के निर्माण के सूत्र थे. लोकतांत्रिक-आधुनिक भारत के लिए जिसमें एक प्रेरणा और एक दिशा-निर्देश था.

निरंतरता की ही तरह स्थिरता की भी प्रायः गलत व्याख्या की गई है. भारतीय समाज की स्थिरता को सीधे जाति-व्यवस्था से जोड़ कर और एक शोषण-आधारित समाज-रचना मानकर इस समूचे इतिहास को हिकारत से देखा गया है. मनुस्मृति वर्ण-व्यवस्था का प्रमाण तो है, पर वह इस बात का सबसे बड़ा साक्ष्य भी है, कि समाज उसके अनुसार कभी नहीं चला.

शक्ति और सत्ता होने पर राजाओं के ही नहीं समूहों के वर्ण भी बदलते रहे. यही नहीं एक लंबी अवधि तक उस समाज ने अपनी तरह की समरसता भी जी. यह जाति-व्यवस्था निश्चय ही आरंभ से ही उत्पीड़क नहीं रही. यह सदी-दर-सदी उत्पीड़क होती गई. हमारा समय इसका बड़ा उदाहरण है कि तमाम कानूनों और आधुनिकता के बावजूद यह पिछली सदी में अधिक उत्पीड़क हुई है. समाज का ढांचा बदल रहा है, पर मानसिकता और नजरिए में बदलाव ढांचे की गति से नहीं बदल पाता.
भारत की स्थिरता भारत के ग्राम-समाजों की स्थिरता थी. ये ग्राम-समाज सामंती उत्पीड़न की इकाई थे. पर यह हालत समूचे देश की न थी. दरअसल भारत ढेरों किस्म के उत्पादनों, खेतियों, व्यापारों का विराट अजायघर जैसा था. कई अर्थ-व्यवस्थाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में विद्यमान थीं. अगर पुराने ढंग की खेती पर टिका समाज था, तो ढाका का बहुप्रसिद्ध मलमल वस्त्रों का उद्योग भी था और केरल के तट से सुदूर देशों को जाते और आते व्यापारिक जहाज भी थे.

दरअसल विराट भारत विराट और विविध अर्थव्यवस्थाओं के साथ इतिहास के उस मुकाम की ओर बढ़ रहा था, जब यहां प्रबोधन, औद्योगिक क्रांति, विकसित पूंजीवाद का बड़ा परिवर्तन होता. परंतु इसी मुकाम पर भारत की सारी व्यवथा जैसे ठहर कर रह गई. एक भीषण गतिरोध का शिकार हो गई. इतिहास प्रगति और रूपांतरण की ओर न मुड़ साम्राज्यवाद की गुलामी का शिकार हो गया.
नेहरू ने इस पूरी पुस्तक में भारत की पड़ताल इन समस्त तथ्यों को रखते हुए की है. यह किताब इस बात का प्रमाण ही है कि भारत एक स्थिर समाज नहीं था. यह एक गतिशील समाज था. पर इसकी भी अपनी एक स्थिरता थी. ठीक घूमते चक्र को संभाले रखने वाली धुरी की स्थिरता. नेहरू विशेष रूप से भारत की इस स्थिरता को ही रेखांकित करते हुए पूरी पुस्तक में दिखते हैं. यह स्थिरता और गतिशीलता का एक द्वंद्व है, जो जीवन को आगे बढ़ाता है. देश और सभ्यताएं जिसका अनुगमन करते हैं.

चूंकि नेहरू इतिहास पर न पाठ्यपुस्तक लिख रहे हैं, न अकादमिक अनुसंधान उनका लक्ष्य है. वे इतिहास-निर्माण की प्रक्रिया में लगे एक देश और उसकी जनता और उसकी ही एक सक्रिय ईकाई के रूप में इस इतिहास के उन-उन बिंदुओं की शिनाख्त कर रहे हैं, जिनसे इस निर्मित होते हुए इतिहास को सकारात्मक गति और प्रेरणा सौंपी जा सके. इसी संदर्भ में और इसी उद्देश्य से भारत की उस विशिष्ट स्थिरता को भी उन्होंने रेखांकित किया है जो बहु स्तरीय है. बहुआयामी है. और यह इस देश की एक बड़ी शक्ति है.

स्थिरता का एक और आयाम था. दक्षिण में समुद्र, उत्तर में हिमालय भारत को एक ऐसा भूगोल देते थे कि तमाम आक्रमणों, आंतरिक युद्धों, प्राकृतिक आपदाओं के बाद भी उपमहाद्वीप में एक स्थिर सभ्यता पनप सकी. इस स्थिरता का एक आयाम बेशक जाति-व्यवस्था और शोषण है. पर वह इस देश के विशाल और जटिल इतिहास की समस्त फलश्रुति नहीं है. इस स्थिरता के अन्य कई आयाम भी हैं, जिन्होंने भारत को विशिष्टता दी. यहां की ऋतुओं, नदियों, प्राकृतिक संसाधनों, और उसके द्वारा रचे गए सामान्यतः शांत-संतोषी मानव-स्वभाव, ज्ञान और संस्कृति के विविध रूपों का बिल्कुल अनपढ़-असंस्कृत जन तक पहुंच कर उसका बोध बन जाना, ये सब भी इस भारतीय स्थिरता के आयाम थे.

नेहरू अपनी पुस्तक में भारत की स्थिरता के इन दोनों स्वरूपों की पड़ताल बहुत तथ्यात्मक हो कर करते हैं और बहुत जीवंत भी. उनका सारा राजनीतिक संघर्ष और वैयक्तिक संघर्ष भी जिस मोड़ पर आकर ठहरता था, वह यही स्थिरता का मसला था. इस स्थिरता के शोषण-परक आयामों से भारत मुक्त हो. इसके लिए भारत को अपनी आधुनिकता रचनी होगी.

नेहरू इस आधुनिक भारत के इकलौते स्वप्नदर्शी और शिल्पकार थे. इस स्थिरता के ज्ञान-संस्कृति व सौंदर्यबोधपरक आयामों को बचाने और परिवर्धित करने की जरूरत को सबसे मौलिक ढंग से नेहरू ने ही समझा था. यह भारतीय सभ्यता को उनका मौलिक और अत्यधिक मूल्यवान अवदान है. कई राजनीतिक विफलताओं के बावजूद यह उनका ही योगदान है कि एक देश जिसे 1947 के बाद लगातार बिखरते ही जाना था, एक नए वर्तमान की ओर अपनी यात्रा जारी रख सका.

भारत की निरंतरता और स्थिरता को नेहरू ने जिस तरह समझा था, उसे जानना उनके पूरे मानस को समझने जैसा है. इसी में उनकी मौलिकता, उनके वैचारिक संघर्ष का सौंदर्य और उनके कर्मशील जीवन के सूत्र छिपे हैं.

(आलोक श्रीवास्तव सुपरिचित कवि और लेखक हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news