यादों में : नीरज ने कहा था, 'जीवन का अध्यात्म गाया है मैंने गीतों में'
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यादों में : नीरज ने कहा था, 'जीवन का अध्यात्म गाया है मैंने गीतों में'

पीढ़ियां बदल गईं पर गोपालदास नीरज के गीतों को अपनी आत्मा में बसाने वाले उन्हें आज भी गौर से सुनते-गुनते हैं. भारत ही नहीं, सात समंदर पार बसी आबादी को भी गोपालास नीरज के गीतों का कारवां लुभाता रहा है.

यादों में : नीरज ने कहा था, 'जीवन का अध्यात्म गाया है मैंने गीतों में'

गोपालदास नीरज जैसे कवि का अवसान एक ऐसे शब्द-पुरुष का महाप्रयाण है जो अपने लिखे-कहे से सदियों तक रुहों में अपना वजूद बनाए रखेंगे. विनम्र श्रद्धांजलि के साथ पेश है कला आलोचक विनय उपाध्याय के साथ उनकी एक विरल वार्ता...यह संवाद इस बात की ताईद करता है कि नीरज अपने वक्त और हालातों से कितने गहरे बावस्ता थे.

चंद लोभी आलोचक कैसे करते दर्द पुरस्कृत मेरा
मैंने जो कुछ गाया उसमें करुणा थी श्रृंगार नहीं था

हिंदी की रसभीनी कविता के मंच पर गीतों की गंदुमी रंगत बिखेरने वाले कवि गोपालदास नीरज की इन पंक्तियों में उनकी आंतरिक वेदना का खरा स्वर है. प्रीत की पुलक और करुणा की कराह के सारथी बनकर जिंदगी की राहों पर नीरज ने चलना शुरू किया तो गीत के मीत से उंगली थामकर उनका कारवां आगे बढ़ता रहा. पीढ़ियां बदल गईं पर गोपालदास नीरज के गीतों को अपनी आत्मा में बसाने वाले उन्हें आज भी गौर से सुनते-गुनते हैं. भारत ही नहीं, सात समंदर पार बसी आबादी को भी गोपालास नीरज के गीतों का कारवां लुभाता रहा है. एक सूफी संत की तरह जीवन के गूढ़ सत्य को अपनी लेखनी में सहेजा है इस गीतकार ने. यह साक्षात्कार उन्होंने उम्र के नौवें दशक में दिया था...

विनय उपाध्याय: आधी शताब्दी से भी ज्यादा वक्त गुज़र गया. गीत की वल्गा थामे आप उम्र का सफर तय करते रहे हैं. गीत के बदलते तेवर और नए कूल-किनारों को लेकर आपकी प्रतिक्रिया बहुत मायने रखती है. क्या कहना है आपका?
नीरज: संसार में कोई चीज़ स्थिर नहीं है. परिवर्तनशील दुनिया है. हर चीज़ चल रही है यहां पर. अगर चले नहीं तो विकास का क्रम ही अवरुद्ध हो जाएगा. गीत ने भी कितने ही रूप बदले. कभी वह छायावादी गीत के रूप में रहा, कभी प्रगतिवादी गीत के रूप में रहा, कभी प्रयोगवादी. उसके बाद जनवादी. अब गीत के स्थान पर नवगीत भी आ गया और फिर अलगीत भी. तरह-तरह के गीत के स्वरूप बदलते चले गये. वे क्यों बदलते चले जाते हैं? संसार बदलता है तो परिवेश बदलता है. परिवेश के साथ-साथ आदमी की विचारधारा, उसकी चिन्तन पद्धति सबकुछ बदल जाती है.

इन परिवर्तनों के बीच चित्रपट के गीत को आप कैसा पाते हैं?
फिल्मी गीत मेरी नजर में लोकगीत जैसा है. फिल्म के गीत को आप सस्ता तो कहते हो पर है वह लोकगीत. क्योंकि जितनी प्रकार की परिस्थितियां आती हैं फिल्म में उन सबमें लिखना हर साहित्यकार के वश की बात नहीं है. आपको मंदिर का गीत लिखना है तो कोठे का भी गीत लिखना पड़ेगा. आपको जोकर का भी गीत लिखना पड़ेगा और उसको लिखने के लिए उसी स्तर पर आपको उतरना पड़ेगा. फिल्म के गीत को लोग नकारते हैं तो स्वीकारते भी हैं. आज फिल्मी गीतों का स्तर गिर रहा है तो उसके लिए दोषी हैं. निर्देशक और उसके प्रोड्यूसर और एक हद तक संगीतकार भी. क्योंकि इनके द्वारा गीतकार को कहा जा रहा है कि-ऐसा लिखो भाई. वह अगर वैसा न लिख सका तो दूसरे से लिखवा लेंगे. तो गीतकार को जैसा निर्देश दिया जायेगा वैसा वह लिखेगा और उसको लिखने के लिए उसे उस स्तर पर भी उतना पड़ता है जहां पर ‘चना जोर गरम’ वाले भी बैठे हैं.

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लेकिन नीरज जी, आपको सुनने के लिए हज़ारों-लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठा होती रही है?
पहले जैसी बात तो खैर अब नहीं रही. देखिये क्या होता है कि पहले जो हमको भीड़ नवाजती थी उसमें एक लाख में पचास हजार आदमी समझदार हुआ करते थे लेकिन अब पचास हजार की भीड़ में मुश्किल से पांच हजार आदमी समझदार मिलेंगे. और वो जो पांच हजार हमारे पुराने सुनने वाले लोग हैं वहीं हमारे प्रेमी बने हुए हैं. अब नई जनरेशन से अगर आप पूछोगे नीरज के बारे में कि कौन है तो उनको नीरज से कोई मतलब नहीं है. अमेरिका मैं गया. वहां हमारे सुनने वाले बहुत से थे लेकिन हमारा
ही भतीजा वहां हमें ठीक से जानता नहीं.

चरित्रहीनता के इस दौर में अपने आपको नीरज ने कैसे संभाल कर रखा?
दो-तीन चीजें हैं जिनके कारण आज भी मैं अपनी लोकप्रियता कायम किये हुए हूं. एवरेस्ट पर चढ़ जाना बहुत आसान बात है, वहां खड़ा रहना बहुत मुश्किल बात है. ऊंचाई पर ज्यादा देर तक खड़ा नहीं रह सकता आदमी लेकिन सौभाग्य है कि मैं खड़ा हुआ हूँ अभी तक. उसका कारण एक तो मेरी भाषा है. वह ऐसी भाषा है जो समझदार को भी आनन्द देती है और नासमझदार को भी. 'जब चले जायेंगे हम लौट के सावन की तरह याद आयेंगे प्रथम प्यार के चुन्बन की तरह.' अब यह पंक्ति नीचे वाली नई जनरेशन को बहुत अच्छी लगेगी. तो मेरी भाषा का सौन्दर्य उर्दू वाले भी पसन्द करते हैं. मुझसे उर्दू के कई नये लेखक अपनी किताबों की भूमिका लिखवाते हैं. तो मेरी भाषा जो है हिन्दी में भी चलती है उर्दू में भी चलती हैं. क्योंकि मैंने भाषा को वह संस्कार दिया है जो कि आम जन की भाषा है. दूसरी चीज़ क्या है कि मैंने सामान्य जीवन के प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही है. और उस मुहावरे का प्रयोग किया है जो तुरन्त आपके ओंठ पर बैठ जाये. 'कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे' यह क्यों लोकप्रिय हुआ? पहली बार हिन्दी भाषा में ही फ्रेज आया था. पहली बार जब मैंने 1955 में इसको पढ़ा था लखनऊ रेडियो से तब सारे देश में हिन्दी के कवि सम्मेलन सुने जाते थे. तो वह पाकिस्तान तक पहुंच गया. मैं जहां-जहां गया विदेश में, लोगों ने कहा कि साहब ‘कारवां गुज़र गया’ सुनाइए, अमेरिका गया तो वहां ‘कारवां गुजर गया’ की फरमाइश, कनाडा गया तो वहां भी यह फरमाइश....उर्दू वालों के पास भी फ्रेज नहीं था. आज भी उर्दू वाले उस फ्रेज को याद करते हैं. किसी कवि की शक्ति दो चीजों से देखी जाती है- भाषा और विशेषण. विशेषण का बड़ा महत्व है. हमने जिस प्रकार के विशेषण के प्रयोग किये और जिनका मानवीकरण किया, पहले लोग जानते नहीं थे उसको. हमने क्या फ्रेज बनाया- 'इस तरह तय हुआ सांस का ये सफर.' सांस का सफर फ्रेज बन गया है. ये न हिन्दीवादी के लिए कठिन है, न उर्दूवादी के लिए कठिन है, न पढ़े-लिखे के लिए कठिन है, न नासमझ के लिए कठिन है. 'सब रुके पर प्रीत की अर्थी लिये/आंसुओं का कारवां चलता रहा.' अब ‘आंसुओं का कारवां’ प्रयोग किसी ने नहीं किया है.

नीरज जी, विषय आपके गीतों के चाहे जो भी रहे हों पर रूमानी बिम्बों का इस्तेमाल उनमें जैसे अनिवार्य रहा है आपके लिए. ऐसा क्यों? 
करुणा मेरे गीत का मूल तत्व है. अब करुणा से मतलब क्या है? करुणा मनुष्य का सबसे बड़ा दैवीय गुण है. प्रेम दैवीय गुण नहीं है. क्योंकि प्रेम में क्या होता है कि मैं आपसे प्रेम करता हूं तो कामना होती है कि आप भी मुझसे प्रेम करें. है न. आदान-प्रदान की बात होती हैं लेकिन करुणा जिस पर आप करते हैं उससे कभी आप अपेक्षा ही नहीं करते. रास्ते में दस आदमी विकलांग पड़े है तो सबसे ज्यादा जो विकलांग होगा उस पर आपकी करुणा जागृत होगी और आप उससे यह अपेक्षा तो नहीं करेंगे कि मैं उससे कुछ प्राप्त करूं. तो करुणा मनुष्य के पास वह दैवीय गुण है जो दूसरे के पास अहेतुक भाव से आपको ले जाता है.

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नई कविता ने जो धरातल दिया, छन्द उन चीजों को पकड़कर क्यों नहीं बढ़ा?
नहीं, हर विषय कविता का विषय नहीं होता मित्र. याद रखना. अब आज विज्ञान को कहो कि तुम गीत में लिखो तो कविता का वह विषय नहीं है. गद्य का विषय है यह. आप गद्य में बात करिये इस पर. आप इस पर आलेख लिखिये. कोई जरूरी थोड़े ही है कि आप हर चीज़ को कविता में लिख दो. गीत की भी अपनी सीमाएं हैं. 

भारत नायकों का देश रहा है. क्या एक राष्ट्रनायक की आज आवश्यकता महसूस करते हैं आप?
आज इतने खलनायक हैं तो नायक कहां से आयेगा? नायक की आवश्यकता तो है ही. जिस दिन नायक मिल जायेगा उस दिन देश का वह उन्नायक बन जायेगा.
हम फिर गीत पर केन्द्रित होते हैं... आपकी गीत-यात्रा पर. 

आपने कहा है कि फिल्मों में तो कोठे का गीत भी लिखना पड़ता है और मंदिर का भी. यह कूबत आपमें तो हमने खूब देखी कि ‘प्रेम पुजारी’ में भी आपने लिखा और ‘मेरा नाम जोकर’ में भी आपके गीत रहे. फिल्मों से आपने-अपने को बाद में क्यों अलग कर दिया?
अभी नहीं, मुझे छोड़े बहुत दिन हो गये. 73 में छोड़कर आ गया हूं. कारण यह था कि एक तो जिन म्यूजिक डायरेक्टर्स के साथ मैं हिट हुआ था वो एक-एक करके सब चले गये इस दुनिया से. जैसे रोशन के साथ मेरे हिट हुए थे सारे गीत. उसकी वजह से मेरी पहचान बनी थी फिल्म में. फिल्म संसार में मेरी पहचान तो ‘नई उमर की नई फसल’ के गीत से हुई थी. उसके बाद शंकर जयकिशन के साथ जुड़ा. जयकिशन की डेथ हो गई. वह ग्रुप टूट गया. उसके बाद एस.डी. बर्मन से जुड़ा, वो भी बीमार
रहने लगे. मदन मोहन से जुड़ा, वो भी बीमार रहने लगे. अब क्या है जो बड़े-बड़े संगीतकार थे जिनसे मैं जुड़ा वे चले गये. हर गीतकार का संगीतकार का फिल्म में अपना एक जोड़ा होता है. अब मैं टैगोर भी बन जाता तो दूसरा आदमी मुझे नहीं लेता. यह समझने की बात है. अब जैसे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने आनन्द बख्शी और मजरूह को छोड़ किसी और को नहीं लिया. चाहे जितने बड़े होशियार आये. तो कहने का मतलब यह है कि जब आपके संगीतकार चले गये तो ग्रुप टूट गया और जब ग्रुप टूट गया तो मैं क्या करूं वहां पर? क्या मैं मांगता? और जब मांगने गये तो खत्म आपकी लाइफ. मुझे बड़ी आशा थी 'जोकर' से. इट वाज ए टर्निग प्वाइंट ऑफ फिल्म. यह लिखना बड़ी चुनौती थी मेरे लिए. गीत, गजल सब छोड़ कर ब्लैंकवर्स लिखी. और ब्लैकवर्स हिट हो गई. यह आसान बात नहीं थी. फिर मैंने ही कन्सेप्शन बनाया था, मैंने ही ट्यून बनायी थी. शंकर जयकिशन ने नहीं.

गोपालदास नीरज : गीतों के साथ सफरनामा

ब्लैंकवर्स के बारे में कृपया स्पष्ट करें?
देखो, गीत बने पहले, गजल बनी, कव्वाली, दोहा बने, धनाक्षरी बनी, रामायण बनी, चैपाई बनी, सब कुछ बने लेकिन ब्लैंकवर्स नहीं बनी थी. क्या था कि राजकपूर ने मुझे बुलाया. छुट्टी लेकर गया कॉलेज से तो बोले-यार जोकर पर गीत लिखना है. मैंने कहा कि क्या कह रहे हैं? जोकर पर गीत लिखवा रहे हैं? जोकर पर गीत लिखूंगा और जोकर गायेगा तो गवैया हो जायेगा. जोकर का केरेक्टर मर जायेगा. राजकपूर बोले कि बात तो सही कह रहे हो. लेकिन मुझे तो गाना है. और मुझे जोकर की एक्टिंग करना है. मैंने कहा कि बताइए कुछ आप. बोले- मुझे कुछ नहीं मालूम. अब आप जानो आपका काम जाने. अब दो तीन-दिन तक सोचते रहे, सोचते रहे. हम परेशान थे. रात के तीन बजे खाना खाते थे और रातभर शराब पीते थे. बैठे-बैठे हमने कहा कि राज साहब एक बात दिमाग में आ रही हैं ऐसा फार्म बनाया जाये कि जोकर गाये तो लगे कि जोकर गा नहीं रहा. बातचीत कर रहा, 'हटो ऐ दुनिया वालों' अंग्रेजों नहीं कह रहा है. 

नीरज जी अपना टर्निंग प्वाइंट किसे मानते हैं?
‘कारवां गुजर गया...’ जिस दिन मैंने पढ़ा था लखनऊ रेडियो स्टेशन से 1955 में, उसी दिन से विख्यात हो गया. पाकिस्तान में गाया यह गीत तो कहने लगे लोग कि उर्दू का कवि है ये. उर्दू के मंच पर भी जितना मेरा सम्मान है और मुझे उर्दू भाषा वाले जाते हैं उतना ही हिन्दी वाले जाते हैं. ‘कारवां’ के अलावा ‘धर्मयुग’ में लम्बी-लम्बी पूरे पृष्ठ की रचनाएं आयीं. उससे यह हुआ कि हमारे पाठक बन गये इस देश में. उस वक्त एक्चुअली क्या होता था कि कवि कविता से प्रेरणा लेता था. एक दूसरे से टक्कर थी कि हम बढि़या लिखेंगे. एक बार दिनकर जी ने लिखा था- 'जब गीतकार मर गया, चांद रोने आया, चांदनी मचलने लगी कफन बन जाने को. मलयागिरि ने शव को कंधों पर उठा लिया, वन ने भेजे चन्दन जलाने को.' मुझसे लोगों ने कहा कि देखो भाई, नीरज, गीतकार की मृत्यु लिखी है इन्होंने. आप कुछ नहीं लिखोगे. तो मैंने गीतकार का जन्म लिखा और फिर वह छपी पन्द्रह-बीस दिन के बाद. समर्पित भी मैंने दिनकर जी को किया वह गीत. 

'जब गीतकार जन्मा, धरती बन गयी गोद, हो उठा पवन चंचल झूला झुलाने को, भौरों ने विस्तृत गूंज बजायी शहनाई, आई सुहागिनी कोयल सोहर गाने को, शबनम ने स्नान कराया मोती के जल से, पहनाये आकर वस्त्र विपुल बहारों ने, निशि ने आंजा काजल, उषा ने हिलाये होंठ, पठवाये खील-खिलौने चांद सितारों ने, करुणा ने चूमा भाल, दिया आशीर्वाद पीड़ा ने. प्रेम ने धरा नाम, ‘जय हो वाणी के पुत्र’-नाद कर उठी धरा, अम्बर उतरा धरती पर करने को प्रणाम, कल्पना पकड़ कर हाथ साथ खेलने लगी, होने उन्मुक्त लगे रहस्य के दृढ़ कपाट, कांपने लगा आप बल, सिहरने लगा स्वग्र, न्यौछावर हो गयी मनुष्य संस्कृति विराट, फिर एक दिवस सोलह रत्नों का हार पहन, बांसुरी बजाता निकला वो गीतकार, तरूणियां ठगी रह गई गगरियां छलक पड़ी, ज्यों बूंद बहक जाये ज्यों पुरवाई बयार, तरुवर की डाली से बुलबुल बोलने लगी, उफ, कैसा सम्मोहन है इसके गाने में, जी करता है दे डालूं उम्र इसे अपनी, ऐसा गुलाब तो देखा नहीं जमाने में.'

कुछ बानगियां....
दोहे तो बहुत हैं. एक दोहे का सार है कि लोग अतीत में जीते हैं या भविष्य में जीते हैं, वर्तमान में नहीं जीते. तो मैं कहता हूं कि यह वर्तमान का क्षण है और यही सबसे ज्यादा इम्पारटेंट हैं. क्योंकि यही थोड़ी देर पहले भविष्य था और यही थोड़ी देर बाद अतीत बन जाएगा. तो प्रेजण्ट में लव करो. और इसको ऐसे करो कि जैसे ये चीज़ लास्ट मूवमेंट है. क्योंकि एक क्षण बाद बाहर निकलते ही क्या होगा कोई जानता नहीं 'चाय का प्याला होंठ पर आया रोशन, के वह खत्म हो गया.' पी नहीं सका. इसलिए कह रहा हूं दोहे में- 'मित्रों हर पल को जियो, अंतिम ही पल मान, अंतिम पल है कौन-सा, कौन सका है जान.' एक दोहा बड़ा सुन्दर सुनाया है मैंने मां के लिए- 'जिसमें खुद भगवान ने, खेले-खेले विचित्र, मां की गोदी से अधिक, तीरथ कौन पवित्र.’ एक और देखें- 'दोहा वहन है और है कविता बहू कुलीन, जब इनकी भंवर पड़ी, जनमें अर्थ नवीन. दोहे जैसे अधर हैं, गजल सरीखे नैन, बिना तुम्हें गाये मेरे, नहीं गीत को चैन. भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम, उसने आंखों के बिना, देख लिये घनश्याम.'

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