डियर जिंदगी : जीवन के गाल पर डिठौना!
सुख के बीच दुख, असुविधा की आहट, अभ्यास भी बेहद जरूरी है. इसके बिना सुख की अनुभूति अधूरी है.
हम बस अक्सर जल, जंगल, जमीन को बचाने की बातें सुनते रहते हैं. पर्यावरण को बचाने के लिए किए गए ‘चिपको’ आंदोलन और राजस्थान में वन्य पशुओं के प्रति स्नेहिल प्रयास समय-समय हमारे सामने आते रहे हैं. इस तरह के प्रयास प्रकृति के साथ सह-जीवन को सुखद, सुंदर बनाने के लिए बेहद जरूरी हैं. लेकिन इस सारी चिंता के बीच मनुष्य के जीवन से जुड़ा एक प्रश्न हमारी चिंता से कुछ दूर छिटक गया लगता है. क्योंकि पर्यावरण के प्रश्न जहां सामूहिक चेतना के तौर पर उसे एकजुट करते हैं, वहीं जीवन के सवाल सामने आने पर वह कुछ अकेला हो जाता है.
इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि जब हम बड़ी चिंता से जूझ रहे होते हैं, तो सब मिलकर चीजों को साझा करते हैं, लेकिन जैसे ही चिंता व्यक्तिगत होती है. हम उसे ‘उसका’ सवाल कहकर अकेला छोड़ देते हैं.
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पहले गांव, फिर संयुक्त परिवार से ‘बिछड़ा’ मनुष्य हर दिन अकेला होता जा रहा है. बढ़ती ‘भौतिक’ महत्वाकांक्षा, सरकार की समाजिक दायित्वों से दूरी हमारे जीवन को हर दिन मुश्किल करती जा रही है.
हम ‘थोपे’ हुए सुख, जरूरत की ओर इतना बढ़ गए कि जीवन के मूल सुख, समझ और एक-दूसरे से स्नेह, प्रेम से मीलों दूर निकल गए. दुख, असुविधा का अभ्यास इतना कम हो गया है कि जरा सी कमी हमें ‘जड़’ से हिला देती है.
आपने घर में देखा होगा कि छोटे बच्चे को मां ‘नजर’ से बचाने के लिए अक्सर काला टीका लगाया करती हैं. हमारे गांव में इस तरह के टीके को ‘डिठौना’ कहते हैं. इसमें ‘नजर’ का अर्थ केवल दूषित भावना से बच्चे को बचाना ही नहीं, बल्कि यह भी है कि इससे बच्चे का सौंदर्य संतुलित होता है.
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प्रख्यात लेखक शिवाजी सावंत के कर्ण पर आधारित उपन्यास ‘मृत्युंजय’ में कुंती कहती हैं, 'अति सुख भी अच्छा नहीं होता. बच्चा अतिशय सुंदर है तो मां उसके गाल पर डिठौना लगा देती है. सुख के संबंध में भी यही बात है. इसका कोई न कोई भागीदार अवश्य होना चाहिए. कहीं डिठौना होना ही चाहिए.’
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सुख पर ‘डिठौने’ के जीवन के लिए अर्थ एकदम स्पष्ट हैं...
1. सुख के जितने भागीदार होंगे, उसकी यात्रा, समय उतना ही अधिक होगा.
2. सुख के बीच दुख, असुविधा की आहट, अभ्यास भी बेहद जरूरी है. इसके बिना सुख की अनुभूति अधूरी है.
3. पानी के महत्व को बिना प्यास समझना संभव नहीं. प्यास होने पर ही उसकी जरूरत के साथ उसके स्वाद को समझा जा सकता है.
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भारत में जिस तेजी से आत्महत्या के मामले बढ़े हैं. तनाव, उदासी और डिप्रेशन से बड़ा कोई संकट जीवन पर नहीं है. यह जिन सवालों से बड़ा हो रहा है, वह सवाल असल में उतने बड़े नहीं हैं कि जीवन पर भारी पड़ जाएं.
अंतर, केवल इससे पड़ रहा है कि हम जीवन को अकेलेपन की राह पर धकेलते जा रहे हैं. हम भीतर से ‘ठोस, गहरे और ठहरे’ होने की जगह निरंतर खोखले होते जा रहे हैं. हमारी सारी सोच, सुख केवल हमारे समीप सिमटकर रह गया.
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इसलिए, उसमें जैसे ही कोई असुविधा\बाधा उत्पन्न होती है. हम अपने ही बनाए चक्रव्यूह में उलझते जाते हैं. हम ज़रा सी असुविधा, थोड़े से तनाव को साझा करने में शर्म महसूस करने लगे हैं. यह जीवन की कैसी विडंबना है कि हम कथित रूप से ‘सोशल’ मीडिया पर सारे सुख-दुख का पुराण बांचते रहते हैं, लेकिन जीवन में कितने मित्र, परिजन से अपनी बातें साझा कर पाते हैं?
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यह हिचक, शर्म, दुविधा, संकोच हमें उस अकेलेपन की ओर धकेल रहे हैं, जिसे बचपन में हम ठहाकों की गूंज, बड़ों के स्नेह, आशीर्वाद से अपने पास भी नहीं फटकने देते थे.
हमें बचपन को याद करने की जगह, उन दिनों का जीवन में दुहराव करने की जरूरत है, जिनसे जीवन को शक्ति, ऊर्जा और स्नेह मिलता है.
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