‘डियर जिंदगी’ को पाठकों की ओर से मिल रहे ई-मेल, संदेश में सबसे प्रमुख बात सामने आ रही है, जीवन के प्रति घटता हौसला. मुश्किल से लड़ने का हुनर. किसी भी हाल में खुद के प्रति भरोसा. संकट के चक्रव्‍यूह के बीच जिंदगी की डोर को बुलंदी के साथ थामे रखना! जयपुर से सजग पाठक, निजी कंपनी में मैनेजर सुदेश चतुर्वेदी लिखते हैं कि अतीत की यादों से पीछा छुड़ाना आसान नहीं. तीस बरस के सुदेश लिखते हैं, ‘बचपन माता-पिता के झगड़ों के बीच बीता. निंरतर हिंसा, तनाव और डर का सामना करना पड़ा. अब जबकि जिंदगी बहुत हद तक मेरे अनुसार चल रही है, तब भी अतीत से आजादी नहीं मिल रही.’


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अतीत के धागे अक्‍सर हमारे मन को उलझाए रखते हैं. यह उलझन जिंदगी को प्रेम, आत्‍मीयता, स्‍नेह से दूर दूसरी गली में ले जाने का काम करती है!


डियर जिंदगी : बच्‍चों की गारंटी कौन लेगा!


सुदेश अतीत की पीड़ा से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. ऐसा करना अगर बहुत मुश्किल नहीं तो बहुत सरल भी नहीं. जिंदगी की बुनावट असल में स्‍वेटर की तरह होती है. बचपन में हम सबने अपने घर में स्‍वेटर बनते देखे हैं. अगर वहां एक फंदा भी गलत ले लिया जाता था तो कई बार ऐसा होता था कि स्‍वेटर बुनने की प्रक्रिया मां, चाची, ताई को दुबारा शुरू करनी पड़ती थी.


यह तो अतीत को समझने का एक पक्ष हुआ. दूसरा है, जुलाहों के काम करने का तरीका. कितनी सफाई से एक सिरा खत्‍म होते ही वह आगे का काम शुरू कर देते हैं. अगर कहीं गांठ लगानी भी पड़े तो ऐसे कि नजर में नहीं आती. और हम! हमें रिश्‍तों में कहीं गांठ लगानी ही पड़ जाए, कहीं कोई दूसरा तोड़कर नया ‘कुछ’ बुनना ही पड़ जाए तो हम बेचैन हो जाते हैं. नई शुरुआत आसान तो नहीं, लेकिन उतनी मुश्किल भी नहीं.


डियर जिंदगी: सुसाइड के भंवर से बचे बच्‍चे की चिट्ठी!


मशहूर पर्वतारोही अरुणिमा सिन्‍हा की कहानी शायद आप सुन चुके होंगे. अगर नहीं तो आज सुनिए! अरुणिमा के साथ 11 अप्रैल 2011 को एक ऐसा हादसा हुआ, जिसने उनकी जिंदगी पलटने की बहुत कोशिश की, लेकिन उनके अटूट हौसले के आगे मुश्किल हारती गईं. इस रात वह ट्रेन में सफर कर रही थीं. इसी दौरान ट्रेन में उनका सामान छीनने की कोशिश में उप्र के बरेली में बदमाशों ने उन्‍हें विरोध करने पर ट्रेन से नीचे फेंक दिया.


अरुणिमा की जिंदगी जैसे अचानक पटरी से उतर गई. उनका एक पैर कट चुका था. आंखों के सामने उसे चूहे कुतर रहे थे. उनका शरीर असहनीय दर्द में था. लेकिन दिमाग उनके साथ था. उसने कहा, अरुणिमा लड़ना है. जीतना है. हादसे के चार महीने बाद वह दिल्‍ली एम्‍स से निकलकर घर की जगह सीधे बछेंद्री पाल से मिलने गईं. इलाज के दौरान ही उनने तय कर लिया था कि जिंदगी को बोझ की तरह नहीं जीना है, बल्कि मुश्किलों को पर्वतों की तरह पार करते जाना है. अरुणिमा का एक पैर कृत्रिम (प्रोस्‍थेटिक) है. दूसरे पैर में रॉड लगी हुई है.


डियर जिंदगी: साथ रहते हुए ‘अकेले’ की स्‍वतंत्रता!


कहानी थोड़ी लंबी है. आप इंटरनेट पर आसानी से पढ़ सकते हैं. संक्षेप में इतना कि आज अरुणिमा अंटार्कटिका की 16000 फुट ऊंची चोटी माउंट विन्‍सन फतह करने वाली पहली दिव्‍यांग पर्वतारोही बन चुकी हैं. उनके पास मुश्किलों का एक ही जवाब है, लड़ना. हार नहीं मानना. जिंदगी के इस एक सूत्र से वह सारी मानसिक, शारीरिक कठ‍िनाइयों से लड़ सकीं.


मैं अतीत, वर्तमान की छोटी-छोटी परेशानी में घबराने वालों से बस यही कहता हूं, 'हम चुनौतियों को नहीं रोक सकते. वह तो आएंगी ही! हम केवल उनसे लड़ सकते हैं. हमें केवल यही करना है.' दुनिया के सभी धर्म, उनके उपदेश,शिक्षा का केवल यही अर्थ है कि हर मुश्किल का डटकर सामना करें. हर हाल में जिएं. दूसरों की जिंदगी आसान बनाने में जितनी मदद कर सकते हैं, करें. क्‍योंकि अपनी जिंदगी आसान बनाने का यही सबसे सरल तरीका है.


डियर जिंदगी: स्‍वयं को दूसरे की सजा कब तक!


जिंदगी कोई झील नहीं, जो हमारे नियंत्रण में रहे. तट से बंधी रहे. जिंदगी नदी है. बहती रहती है. इसके बहने में जितनी हिस्‍सेदारी 'बादल' की है, उतनी ही उनकी भी जो जगह-जगह इसमें छोटे-छोटे स्‍टॉप डेम बना देते हैं! नदी चुपके से वहां से भी रास्‍ता निकाल लेती है, उसका काम रुकना नहीं है. चलना है, जब तक सागर न मिल जाए. हर पड़ाव के बाद नई यात्रा. यही नदी की जिंदगी है.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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