अतीत के आंगन में थोड़ा उतरेंगे तो याद आएगा कि जब कभी हम गांव जाते, तो वहां हमारी दादी, नानी, बुजुर्गों की फौज हमारी बलइयां लेने को बेकरार रहती. उनकी आंखों की कोर से निकला काजल, दिल से निकली दुआ में मिल जाता, हमारी उमर कई गुना बढ़ती रहती. वक्‍त की करवट के साथ वह बलइयां लेने वाले हाथ, बलइयां वाली मखमली आवाज हमसे जुदा होती गई.


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बलइयां लेने का अर्थ जो न समझ रहे हों, उनके लिए बस इतना ही कि हमसे बड़े, हमारे हितकारी ऐसे लोग जो हमें हर बला (मुसीबत) से दूर रखने का काम करते थे. बलइयां लेना एक प्रतीकात्‍मक क्रिया थी, जिसके मायने यह थे कि ‘मैं हूं ना’. तुम चिंता क्‍यों करते हो! बलइयां लेने वाले अक्‍सर हमसे बड़े (मां, दादी, नानी, बड़ी बहन) होते थे.


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वह हमारी कमजोरी\ताकत के साथ हमें स्‍वीकार किया करते थे. एक बच्‍चे की कमजोरी बड़े लंबे-चौड़े परिवार को पता रहती थी, लेकिन उसके बाद भी सब उस बच्‍चे को सांत्‍वना देते. उसकी भी बलइयां बड़े वैसे ही लेते, जैसे दूसरे की ली जाती थीं.


कुल मिलाकर ऐसे समझिए कि हमें स्‍नेह की ऐसी चादर में लपेटा जाता था, जहां तक तनाव का पहुंचना मुश्किल ही नहीं असंभव जैसा होता था. अगर कभी भूले-भटके तनाव, उदासी की छाया वहां तक पहुंचती भी, तो उसे डिप्रेशन की ओर मुड़ने से पहले ही कब्‍जे में कर लिया जाता.


वह वातावरण, माहौल अब गायब हो गया है. मुझे याद नहीं आता कि कभी मेरे दोस्‍तों ने मुझे याद दिलाया हो कि गणित में जरा मामला कमजोर है. बल्कि मेरे दोस्‍त मेरा हौसला बढ़ाते रहे कि सामाजिक विज्ञान, हिंदी और विज्ञान मिलकर गणित से निपट लेंगे.


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इस देखभाल, हौसला बढ़ाने को सरल भाषा में कहते हैं, स्‍नेह. और ‘डियर जिंदगी’ की भाषा में यह है,‘बलइयां’ लेना!


कुछ दोस्‍त मानते हैं कि स्‍नेह की कमी, ‘देखभाल’ में बुजुर्गों की भूमिका कम होने का कारण शहरीकरण है. पलायन है. लेकिन मेरी अपनी राय में यह सब छोटे कारण हैं.


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सबसे बड़ा कारण जीवन से ऐसे लोगों, बुजुर्गों की भूमिका का खत्‍म होना है, जो हमारी बलइयां लेने को एक पग बढ़ाए खड़े रहते थे. आधा तनाव तो उनसे बात करके ही खत्‍म हो जाता है. बुजुर्गियत के पास हर मर्ज का अनुभव है. बशर्ते ‘नई’ पीढ़ी के पास थोड़ा धैर्य हो. चीजों के साथ तालमेल का.


इसकी एक छोटी सी मिसाल क्रिकेट से समझते हैं...


विराट कोहली के पास दुनिया के सबसे अच्‍छे तेज गेंदबाजों की फौज है. बल्‍लेबाज भी बुरे नहीं हैं. लेकिन उनके पास 'बलइयां' लेने वाले खिलाड़ी नहीं हैं, इससे भी आगे की बात यह कि वह ऐसे लोगों को अपने आसपास ही नहीं रखते. लोगों को यह अधिकार भी आपको ही देना है कि वह आपकी ‘बलइयां’ ले सकें. बलइयां लेने वालों को सुनना पड़ता है, उनके आशीष, दुलार से पहले उनको बर्दाश्‍त करना भी सीखना होता है.


विराट ‘घराने’ के पास तमाम ‘साज’ हैं, लेकिन ‘राग’ बलइयां नहीं है. इसलिए सारे हुनर होकर भी वह भटके-भटके राजा हैं.


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इसलिए, अपने समीप ऐसे ‘बलइयां’ लेने वालों की दीवार जरूर खड़ी करें, जो बड़ी से बड़ी मुश्किल में आपका माथा चूमकर कह सकें, कोई बात नहीं, हम फिर खड़े होंगे. तुम दिल छोटा न करो.’


डिस्क्लेमर: बलइयां लेने वालों को बैंक बैलेंस, सामाजिक हैसियत से जोड़कर न देखें! लेखक के पास जितने बलइयां लेने वाले हैं, बस फकीर हैं, लेकिन हैं, खूब सारे!


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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