भारत में वर्ष 2008 से 2015 के बीच आठ साल में 62.40 लाख नवजात शिशु मृत्यु का शिकार हुए हैं. जन्म के 28 दिन के अंदर मरने वाले इन बच्चों की यह संख्या थोड़ी नहीं है.
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फादर्स डे पर बधाई देने-लेने वाले मेरे ब्लॉग को पढ़ कर बिलकुल भी निराश न हों, यह नकारात्मकता नहीं है. बल्कि इस दिन के बहाने पितृत्व की चुनौतियों की एक अलग नजरिये से समीक्षा भर है. वह जो साहित्य में समाया हुआ पिता है, वह जो खूबसूरत सेल्फियों में सोशल मीडिया में इस कोने से उस कोने तक अपनी मधुर मुस्कान के साथ प्रवाहमान है, वह जो होटल और रेस्तरां में केक काटकर खुशियाँ बाँट रहा है, पिता केवल वही तो नहीं है. पिता वह भी तो है जो पलायन पर है, पिता वह भी तो है जिसके पास जिंदगी टुकड़ों-टुकड़ों में बीनने के अलावा ऐसे दिन का कोई बहुत अर्थ नहीं है. उसके लिए हर दिन सी वही सुबह है वही शाम है, दिन एक इकाई है, हर पिछले दिन की तरह, हर होने वाले अगले दिन की तरह.
पिछले दिनों जब मैं अपने दोस्त के साथ मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में घूम रहा था, तो यहां पलायन फिर शाश्वत समस्या की तरह सामने आया. यह कोई नई बात तो नहीं, लेकिन क्या कारण है कि स्थिति वहीं की वहीं है, कई सालों बाद भी. पन्ना टाइगर रिजर्व के जिस मनकी गांव में हमने लोगों से बात की, वहां तकरीबन 70 प्रतिशत घरों में कोई न कोई काम के लिए बाहर गया है. कोई जयपुर में है, कोई अजमेर में है, कोई दिल्ली की तरफ. त्रासदी इतनी भर नहीं है कि एक पुरुष पलायन पर है, त्रासदी यह भी है कि एक पिता पलायन पर है.
क्या राहुल गांधी भी वही कह रहे जो दूसरे नेता कहते आए हैं ?
मनकी गांव की सोमवती बाई से जब हम पूछते हैं कि बच्चों के पिता कहां हैं, वह बताती है जयपुर में हैं. सालों से वह पलायन पर जाते रहे हैं. 32 साल की सोमवती बाई की नौ संतानें हैं. इसमें से पांच ही जिंदा हैं. अकेले बच्चे हैं. सोचिए, पिता तो हैं पर क्या पितृत्व है? कैसे होता होगा बिना पिता के जीना बचपन से ही, औलादें जो टुकड़ों-टुकड़ों में अपने पिताओं को देखती हैं.
पन्ना से ही सटे सतना जिले के रामनगर खोखला में भी जब गांव की हर स्त्री यह कहती है कि उसका एक न एक बच्चा तो खत्म हुआ ही है, तो क्या इसे हम भी उनकी ही तरह भगवान की मर्जी मानकर दिल को दिलासा दे सकते हैं? उनके लिए भगवान की मर्जी मान लेने से बड़ा कोई और इलाज नहीं है, क्योंकि जो इलाज होना चाहिए वह ऐसे गांवों में कब पहुंचा है?
सात महीने का गर्भ अपनी कोख में लेकर किसी अच्छी खबर का इंतजार कर रही पप्पी आदिवासी से जब हमने पूछा कि इसके पिता कहां हैं, उसका जवाब था जयपुर.
काम के लिए गए हैं. बात होती है ?
हां हो जाती है कभी—कभी.
रोज या कभी कभी ?
कभी-कभी हो जाती है.
क्या ऐसी अवस्था में कभी-कभी बात हो जाना क्या पर्याप्त होता होगा? क्या पप्पी को यह समझाया जाना जरूरी नहीं होगा, कि वह जो गर्भावस्था में नमक-रोटी खाकर ही अपना पेट भर रही है, वह खुद और बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं होगा. क्या उसके मातृत्व को किसी सफलता तक पहुंचाने के लिए पिता का भी कोई रोल होगा. क्या उसकी मजबूरी रही होगी, या परिस्थिति के आगे उसने इसे भी भगवान की मर्जी मान लिया होगा. क्या उसे एक बार भी यह ख्याल नहीं आता होगा, कि उसके जो दो बच्चे पहले से ही भगवान के पास चले गए हैं, उनकी तरह यह तीसरा भी न जाए, और यदि न जाए तो कम से कम वह पप्पी से रोज बात तो करे. क्या पप्पी अकेली है. नहीं.
सूख गया भवानी दादा की यादों का जंगल
भारत में 37 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह के पलायन पर हैं. जनगणना के मुताबिक, इनमें से चार करोड़ वह लोग हैं जो काम के लिए पलायन पर जाते हैं. सबसे बुरी अवस्थाओं में. इसका खामियाजा केवल घरों में पीछे छूटे बूढ़े मां—बाप नहीं भुगतते. खामियाजा महिलाएं भी भुगतती हैं, पेट में पल रहे बच्चे भी भुगतते हैं.
यूनीसेफ की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत उन 90 देशों में शामिल है, जहां पितृत्व को लेकर कोई कानून नहीं है. पिता बनने, बच्चे की देखरेख करने के लिए... सवैतनिक अवकाश का कोई प्रावधान नहीं है. यह रिपोर्ट मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा समाज पर केन्द्रित है, सोचिए कि वह भी एक किस्म के संकट में हैं तो उस पिता की कठिनाईयां किस स्तर पर होंगी जो कि पलायन पर है.
बेघरों की छाती पर कील ठोंकते बैंक
देखिए कि भारत में वर्ष 2008 से 2015 के बीच आठ साल में 62.40 लाख नवजात शिशु मृत्यु का शिकार हुए हैं. जन्म के 28 दिन के अंदर मरने वाले इन बच्चों की यह संख्या थोड़ी नहीं है. जन्म के एक साल तक और पांच साल तक के आंकड़ों को देख लेंगे तो यह आंकड़ा भयावह स्तर तक पहुँच जाता है. देश के चार राज्यों (उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्यप्रदेश) में देश की कुल नवजात मौतों की संख्या में से 56 प्रतिशत मौतें दर्ज होती हैं.
यह मौतें कैसे रुकेंगी? इसका जवाब इन्हीं टुकड़ों-टुकड़ों भरी जिन्दगी से निकालना होगा, परवरिश में मातृत्व के साथ ही पितृत्व भी पहलू है. इसके लिए कोई ठोस नीति और संवाद की जरुरत है, क्यों आखिर मनरेगा जैसी योजनाओं से भी पलायन नहीं रुकता, क्यों आखिर हमारे समाज के हर बच्चे को उसके हिस्से का पूरा पिता नहीं मिलता?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)