चाहे बात रही हो स्वच्छता की, या ग्राम रोज़गार की, या अस्पृश्यता दूर करने की; सांप्रदायिक सद्भाव की या रूढ़िवाद के विरुद्ध जागरूकता की – गांधीजी ने तो जीवन और समाज के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर लोगों को एक रास्ता दिखने की कोशिश की थी. उनका अपना जीवन भी ऐसी बुराइयों के खिलाफ शांतिपूर्ण आन्दोलन चलाते बीता.
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हर साल की तरह इस बार भी, गाँधी जयंती के साथ समय आया है गांधीजी को याद करने का, और यह दोहराने का, कि हमें और पूरे भारत के लोगों को गांधीजी के दिखाए रास्ते पर चलना चाहिए. एक बार फिर यह कहने का मौका है कि उनकी बताई नीतियों को अमल में लाये बिना सबका विकास हो ही नहीं सकता. स्वतंत्रता के बाद से ही देश में बनी सभी सरकारें गांधीजी के राजनीतिक दर्शन से सीख लेने का दावा करती आईं हैं, और उनकी मानें तो सबने वही करने की कोशिश की जैसा गांधीजी चाहते थे. जहां ऐसे दावे करने में कांग्रेस पार्टी सबसे आगे है, वहीँ इतने सालों में जितनी भी गैर-कांग्रेसी सरकारें बनी, उन्होंने भी ऐसा कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सच तो ये है कि यदि इनमें से किसी भी सरकार ने गांधीजी के सिद्धांतों पर किसी छोटी हद तक भी कुछ ठोस काम किया होता तो कम से कम उस क्षेत्र में तो बदलाव आ ही गया होता.
चाहे बात रही हो स्वच्छता की, या ग्राम रोज़गार की, या अस्पृश्यता दूर करने की; सांप्रदायिक सद्भाव की या रूढ़िवाद के विरुद्ध जागरूकता की – गांधीजी ने तो जीवन और समाज के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर लोगों को एक रास्ता दिखने की कोशिश की थी. उनका अपना जीवन भी ऐसी बुराइयों के खिलाफ शांतिपूर्ण आन्दोलन चलाते बीता. उन्होंने कई बार अपने जीवन को भी दाँव पर लगाया, लंबे उपवास किये, खुद को कष्ट पहुँचाया, लेकिन दूसरों को तकलीफ नहीं दी. गंदगी देख कर खुद साफ़ करने में जुट गए. सत्ता के तामझाम से सदा दूर रहे. पूंजीवादी व्यापारिक घराने से निकटता होने के बावजूद उनसे जरा सी भी मदद नहीं ली. तमाम खतरों के बावजूद लोगों के बीच पहुँच कर उन्हें समझाने की कोशिश की. लोगों को उकसाने के बड़े से बड़े कारणों के बावजूद उनसे हाथ जोड़ कर अपील की, कि वे शांत रहें, माफ़ करना सीखें, और बड़े लक्ष्यों के सामने छोटी बातों को नजरंदाज करना सीखें.
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लेकिन गांधीजी के इस दुनिया से विदा लेने के सत्तर साल बाद, क्या इनमे से किसी भी पक्ष में कोई बड़ा अंतर आ पाया है? वर्तमान सरकार द्वारा स्वच्छता को सरकारी कार्यक्रम बना देने के बावजूद अधिकतर देशवासी उस कार्यक्रम का मज़ाक उड़ाते ही नजर आते हैं – इस कार्यक्रम को जो भी सफलता मिली है उसका श्रेय उन आम लोगों को जाता है जिनमे अपने अन्दर से सफाई रखने की भावना जगी है – चाहे वह विज्ञापनों की वजह से हो, या घर के बच्चों द्वारा टोके जाने की वजह से, या शौचालय बनाने में मिलने वाली मदद की वजह से, किसी भी प्रकार के जुर्माने के डर से.
इसी तरह, छोटी-छोटी बातों पर नज़रंदाज़ करने के बजाये सीधे-सीधे मार ही डालने का चलन जोर पकड़ रहा है. अनुसूचित और पिछड़ी जातियों को करीब लाने की कोशिश में आरक्षण के खिलाफ आक्रोश बढ़ रहा है. किसी गलती पर माफ़ करने के बजाय कानून को अपने हाथ में ले लेना आम बात होती जा रही है. ग्राम उद्योग और स्वरोजगार के बजाए सरकारी नौकरियों के लिए मारामारी बढ़ती जा रही है.
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औद्योगिक घरानों से जरा सी भी निकटता के आभास पर ही देशव्यापी हो-हल्ला मचाने में वही पार्टी सबसे आगे है जिस पर दशकों तक एक न एक औद्योगिक समूह को समर्थन देने और लेने के आरोप लगते रहे.
इसी तरह के तमाम और उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे लगता है कि न सरकार, न राजनीतिक दल, और न ही समाज का बड़ा हिस्सा गांधीजी की नीतियों और सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारने का इच्छुक है. गांधीजी के नाम पर कार्यक्रम चलाना और नई योजनाएं बनाना अपनी जगह पर एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है, और शायद इसीकी वजह से लोगों को गांधीजी का याद रहता है.
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गांधीजी के सिद्धांतों और उनके तरीकों को “गांधीगिरी” के नाम से भले ही लोकप्रियता मिल गई हो, लेकिन यह लोकप्रियता उतनी ही फ़िल्मी है, जितना इस शब्द की उत्पत्ति फ़िल्मी है. आज भी गांधीजी को अधिकतर लोग उनकी फोटो भारत के करेंसी नोटों पर छपी होने की वजह से रोज जानते हैं, या तो उनकी फोटो कुछ सरकारी ऑफिस, या पुलिस स्टेशन में लगी होने की वजह से, या 2 अक्टूबर को छुट्टी होने की वजह से. इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि इन सभी वजहों में किन्ही में भी गांधीजी के विचारों को लागू करने या उन्हें अपनाने के सीख नहीं मिलती. नगद का इस्तेमाल लेन-देन में हो रहा है, सरकारी कार्यालयों और पुलिस स्टेशन में अधिकतर भ्रष्टाचार या आम आदमी को कष्ट होता है, और छुट्टी के दिन का इस्तमाल गांधीजी को याद करने से ज्यादा अपने काम निपटाने में या एक दिन आगे-पीछे जोड़ कर कहीं घूमने में.
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तो क्या इस दिन किसी विशेष आयोजन करने का कोई फायदा नहीं है? भारत जैसे विशाल देश में हो सकता है कुछ जगहों में गांधीजी को लेकर भावनात्मक जुड़ाव न हो, लेकिन हर जगह इस अवसर पर स्वच्छता व अहिंसा को बढ़ावा देने, और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता के कार्यक्रम आयोजित होते हैं. और ये कार्यक्रम अधिकतर सरकारी विभाग द्वारा या कुछ शिक्षण संस्थानों द्वारा समर्थित होते हैं. जरूरी यह है कि इस दिन को सरकारी आयोजन में बदलने के बजाए, आम लोगों के बीच कुछ छोटी ही सही, लेकिन महत्वपूर्ण और आम जिंदगी से जुडी बातों को लेकर बदलाव लाने की कोशिश की जाये. दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला फाउंडेशन ने “67 मिनट” नाम की एक अनूठी पहल की है. इसके अंतर्गत, फाउंडेशन ने लोगों से अपील की कि जिस तरह मंडेला ने अपने जीवन के 67 वर्ष स्वतंत्रता के संघर्ष में बिताये, उसी तरह आज के आम नागरिक अपने जीवन के केवल 67 मिनट सार्वजनिक हित के काम में दें. इस अपील का व्यापक असर देखा जाता है. क्या ऐसी ही कोई पहल भारत में शुरू की जा सकती है?