आज 'इंटरनेशनल डे आफ रूरल वुमन' है. यूनाइटेड नेशन्स की ओर से यह दिन 2008 से हर साल ग्रामीण महिलाओं के सम्मान में मनाया जाता है. चलिए यही सही, इस बहाने कम से कम हम देश में ग्रामीण महिलाओं के संघर्ष को याद तो कर ही लेते हैं.
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आज 'इंटरनेशनल डे आफ रूरल वुमन' है. यूनाइटेड नेशन्स की ओर से यह दिन 2008 से हर साल ग्रामीण महिलाओं के सम्मान में मनाया जाता है. चलिए यही सही, इस बहाने कम से कम हम देश में ग्रामीण महिलाओं के संघर्ष को याद तो कर ही लेते हैं. वरना घर-परिवार, खेती-किसानी से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के श्रम का सम्मान तो दूर, गरिमापूर्ण व्यवहार भी कहां मिल पाता है? इस विमर्श से अलग हम आपको संघर्ष की एक ऐसी कहानी बताने जा रहे हैं, जिसे सुनकर आप भी ठेठ ग्रामीण महिला के हौसले को सलाम करेंगे.
तकरीबन 23 साल पहले जब जनका बाई उमरावन में ब्याह कर आईं, तो उनको लगा यह कहां आ गई. आसपास चारों ओर जंगल. शहर से दूर. पहुंचने के लिए न सड़क न कोई साधन, बुनियादी सुविधाओं का अभाव. पानी के लिए गांव से बाहर डेढ़ किलोमीटर दूर झिरी तक जाना पड़ता था. जबलपुर के एक अच्छे गांव से पन्ना जिले के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे इस गांव उमरावन में आ जाना जनका के लिए कोई सरल न था! रिश्तेदारों के कहने पर घरवालों ने यहीं शादी लगा दी, तो इसे ही उन्होंने अपने जीवन की नियति मान लिया.
थोड़ी-बहुत खेती-किसानी करते, जंगल से वनोपज लाते और उसी से घर चलता रहा. वक्त के साथ तीन बच्चे भी हो गए. दो लड़का एक लड़की. पर क्या जीवन ऐसे ही चलता रहता. अमूमन इसके बाद से ग्रामीण महिलाओं का जीवन घर-परिवार की जिम्मेदारियों के बोझ से दब जाता है. पर जनका बाई के जीवन की असली कहानी तो यहीं से शुरू होती है.
बच्चे बड़े होने के बाद ही जनका बाई को लगा कि उनको उनकी रुकी हुई पढ़ाई सबसे पहले शुरू करनी है. वह पढ़ी तो थीं, लेकिन आठवीं तक कर पाई थीं. यह बात उन्होंने अपने पति को बताई. पति कपूर सिंह गोंड को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी. किताबें लाई गईं और पढ़ाई शुरू हो गई. पहले दसवी और फिर बारहवीं. बारहवीं पास कर लेना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, लेकिन जिन परिस्थितियों में जनका बाई जैसी महिलाएं हौसला करके ऐसा कर पाती हैं, यह पढ़ाई उनके लिए कोई छोटी बात भी नहीं है.
दिन में मजदूरी करतीं, जंगल से लकड़ी लातीं, बच्चों को संभालतीं और पढ़ाई भी कर लेतीं. कई बार खेतों में काम करते-करते जो खाली वक्त मिल जाता, उसी में पढ़ लेतीं. पति साइकिल पर बैठाकर परीक्षा दिलाने ले जाते. जनका की यह पढ़ाई किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं.
लेकिन पढ़ाई करने से क्या होता है? पढ़ाई करने से जो होता है, उसे जनका बाई के काम से समझा जा सकता है. पढ़-लिखकर महिला कैसे अपने समाज में बदलाव लाती है? जनका बाई ने देखा कि उनके गांव में मूलभूत सुविधाएं ही नहीं हैं. उनको और बाकी महिलाओं को परेशान होना पड़ता है. एक बार जब उनके गांव में कलेक्टर साहब दौरे पर आए तो जनका बाई ने अपनी और गांव की परेशानियां सामने रखीं. जनका की बातों से कलेक्टर भी प्रभावित हुए और गांव में एक कुआं खुदवाया गया. इससे गांव की महिलाओं को पानी ढोने से राहत मिली. गांव में धीरे-धीरे विकास के कुछ और काम भी हुए.
पर नियति को तो कुछ और ही मंजूर था. यह गांव एनएमडीसी की पन्ना डायमंड माइंस के अंतर्गत आता है. इस हीरा खदान से हीरा निकालने का मामला कोर्ट में गया, क्योंकि यह खदान पन्ना टाइगर रिजर्व में आने से विवादित हो गई. मामला था कि वहां से हीरा निकाला जा सकता है या नहीं, अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि एनडीएमसी टाइगर रिजर्व में खनन कर सकती है. इसके बाद ही विवाद शुरू हुआ गांव उमरावन को लेकर. जिला प्रशासन गांव को हटाना चाहता था. यानी खदान चल सकती है, पर गांव के लोग नहीं रह सकते.
पन्ना टाइगर रिजर्व से हटाए जाने पर 10 लाख रुपए का एकमुश्त पैकेज देने का प्रावधान किया गया. लोग मांग करते रहे कि विस्थापन की स्थिति में जमीन के बदले जमीन दी जानी चाहिए. प्रशासन मानता है कि एकमुश्त मुआवजा दे देना अधिक आसान काम है.
उमरावन गांव को हटाने के लिए भी सरकार ने ऐसी ही कोशिश की. जनका बाई और दूसरे गांव वाले गांव छोड़ने के पक्ष में नहीं थे. उन्हें समझ आ रहा था कि गांव से हटकर दस लाख का मुआवजा ले लेना मतलब पूरा ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाना. जब विवाद आगे बढ़ा और लोग हटने को तैयार नहीं हुए तो प्रशासन ने एक पर एक जन सुनवाई की. गांव में सुबह 5.30 पर जन सुनवाई हुई, यह बात आज तक समझ नहीं आ सकी कि प्रशासन ने यह समय क्यों चुना? इस जन सुनवाई में गांव के लोगों के साथ दूसरे गांव के भी लोग थे. जमीन या मुआवजा राशि दो सवालों पर राय मांगी गई. चूंकि मुआवजा राशि के पक्ष में हाथ उठाने वाले 4 लोग अधिक थे, लिहाजा कलेक्टर ने उनके ही पक्ष में फैसला लिया.
जन सुनवाई में कुछ ऐसे परिवार भी थे, जो चार पीढ़ियों से वहां रह रहे हैं. वे गांव नहीं छोड़ना चाहते, लेकिन बहुमत मुआवजा लेकर गांव छोड़ने के पक्ष में है. गांव में तकरीबन सभी परिवारों के पास खेती की जमीन थी. गांव के 71 परिवारों में से 14 के पास वनाधिकार कानून के पट्टे भी हैं. कुल 108 परिवार थे. अंतत: प्रशासन सफल रहा.
लोगों को भगाने के लिए प्रशासन ने तमाम हथकंडे अपनाए. इस गांव की बिजली काट दी गई. जनका बाई बताती हैं कि हमारे गांव में कभी बिजली नहीं जाती थी, क्योंकि एनएमडीसी वाला इलाका था. वन विभाग चाहता था कि हम यहां से भाग जाएं, लेकिन हम अपना हक लिए बिना नहीं हटने वाले. गांव के कुछ लोग प्रशासन के साथ थे.
हमने प्रशासन से सूची निकलवाई. उससे पता चला कि गांव के मुखिया को एक करोड़ से ज्यादा का मुआवजा मिला है. बाकी लोगों को थोड़ा-थोड़ा पकड़ा दिया. हमने गांववालों को बताया कि देखो कैसे इसमें धांधली की जा रही है. जनका बाई इसमें एक कुशल नेतृत्वकर्ता की तरह सामने आईं, और अपने और गांववालों के अधिकारों के लिए लड़ीं.
अंतत: 11 परिवारों को छोड़कर बाकी लोगों ने डरकर मुआवजा ले लिया. जनका बाई कहती हैं कि देखिए उन लोगों का क्या हुआ? जिनको पैसा मिला था, सब चौपट हो गया. किसी ने मोटरसाइकिल खरीद ली, किसी ने कुछ और में पूरा पैसा बर्बाद कर दिया. अब वह कंगाल हो गए हैं. इतने से पैसे में क्या होता है साहब? शहर में जाओ तो जरा सी जमीन नहीं मिलती है. हम चाहते थे कि हम सभी गांववालों को प्रशासन कहीं और एक साथ जमीन देकर दूसरी जगह बसा दे, लेकिन प्रशासन ने हमारी नहीं सुनी.
उमरावन में अब केवल 11 परिवार बचे हैं. इन परिवारों में भी सभी लोगों को मुआवजा नहीं मिला है. जनका बाई कहती हैं कि 11 परिवार के 17 बच्चों को छोड़ दिया गया. यह बच्चे पात्र थे. उनका मेडिकल भी कराया है, उनके पास सभी दस्तावेज हैं, पर प्रशासन उनका मुआवजा नहीं दे रहा है. हम बिना मुआवजा लिए नहीं जाएंगे.
परिवार में एक मुखिया के पढ़ने-लिखने और संघर्ष करने का क्या असर होता है, जनका की इस कहानी से साफ नजर आता है. अपनी छोटी बहन हेमेन्द्र कुमारी की पढ़ाई के लिए भी उन्होंने जोर दिया. नतीजा उनकी छोटी बहन अब अध्यापक हैं, और उन्हें पच्चीस हजार रुपए की पगार मिलती है. जनका ने अपने बच्चों को भी अच्छा पढ़ाया-लिखाया है, उनकी लड़की बीएड कर रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)