उसकी झूमती आंखों ने मुझे 'ठग' लिया
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उसकी झूमती आंखों ने मुझे 'ठग' लिया

यह कहानी ज़रा पुरानी है. इतनी पुरानी नहीं कि आदम के ज़माने की सैर करा लाये. इतनी सच्ची भी नहीं कि झूठ के लिए जगह ही न हो. फिल्म सिटी से चार कदम की दूरी पर डिजिटल युग का मेट्रो स्टेशन है.

उसकी झूमती आंखों ने मुझे 'ठग' लिया

यह कहानी ज़रा पुरानी है. इतनी पुरानी नहीं कि आदम के ज़माने की सैर करा लाये. इतनी सच्ची भी नहीं कि झूठ के लिए जगह ही न हो. फिल्म सिटी से चार कदम की दूरी पर डिजिटल युग का मेट्रो स्टेशन है. मेट्रो की तरफ मुंह करके सावधान की मुद्रा में पैर जमा लो तो दाईं तरफ पुलिस चौकी पड़ेगी. इस किस्से में पुलिस की ज़्यादती का कोई जिक्र नहीं है, जैसा कि बहुत से किस्सों में होता है. पुलिस तब सो रही थी, जब वो गौरा- सा नौजवान मुझसे टकराया. वो झूम रहा था. मुझे लगा जीवन की सारी खुशियां इसी की झोली में हैं और इसने झोली को सिल रखा है. मैं उसे खा जाने वाली नज़र से देखता, इससे पहले ही वो बोल पड़ा- ''हमारे कंधों को ईश्वर ने मिलाया है. इस भरे शहर में मुझ अजनबी का आप ही सहारा हैं.'' 

उसके झूमते कदम रुक चुके थे. बातों की बेबसी ने चेहरे के भाव को बिल्कुल नहीं बिगाड़ा था. चेहरा अब भी वैसा ही जैसे सारी खुशियां, गोलगप्पे की तरह उभरे लाल गालों में लाली की तरह समा गई हो. सेक्टर 16 का यह चौराहा और यहां लगने वाला जाम, अच्छे-खासे आदमी का दिमाग घुमा दे और जो ऑफिस से हजारों शब्द टाइप करके आया हो, उसके पास दिमाग बचता कहां है? ऊपर से ऑटो वालों की चिल्ल-पों, प्राइवेट बसों की दादागिरी और पैदल चलने वालों में कुछ की ठसक, कुछ की लाचारी. अपनी बात पूरी कर लेने के बाद उसकी चमकीली आंखें मेरे मुरझाये चेहरे पर ऐसे ठिकी जैसे बच्चों की निगाह रसगूल्ले पर. झल्लाहट में बस मेरे मुंह से इतना ही निकला.

''क्या है?'' वो देखता रहा

''क्या चाहिए?''
''बस 100 रुपए ताकि इस बेदर्द दिल्ली से मैं दर्द भरे अपने पिंड लौट सकूं.''

उसके चेहरे पर न परेशानी थी और न मांगने की ग्लानी. वो न जाने कौन-से आत्मविश्वास से भरा हुआ था, और मेरी जेब खाली! मैं क्यों चाहिए पूछता, इससे पहले ही वो बोल पड़ा. 'लुधियाने से किसी काम से दिल्ली आया हूं, मेट्रो में जेब कट गई. 100 रुपए मिल जाएंगे तो लौट जाऊंगा.' कमीज की जेब में हाथ डालते ही दो नोट निकले. पहला 50 रुपए का था जिसे आंख झपकने से पहले ही मैंने वापस खोंस लिया और दूसरा 20 रुपए का नोट उसे थमाया और खिसक लिया. उसने नोट पकड़ा. न धन्यवाद बोला और न आभार जताया. बस हंसा और खड़ा रहा. मैं यह सोचकर ऑटो में बैठ गया. 'चअअअ.....तिया बना रहा है साला. 100 रुपए में दिल्ली से लुधियाना कैसे पहुंच जाएगा.'ऑटो चल पड़ा...........

आगे की कहानी जानने की इतनी भी जल्दी क्या है? ज़रा थम भी जाओ. सांस ले लो. ऐसा कोई शाश्वत सत्य नहीं है कि जीवन में एक बार घटी घटना दोबारा नहीं घटेगी. 

दो महीने बाद, फिर एक दिन. ''भय्या, सुनना. कुछ पैसों की मदद कर देंगे क्या?'" सांझ का वक्त. ऑटो वालों की वही चिल्ल-पों और प्राइवेट बसों की दादागिरी. आंखों में वही चमक और मांगने का आत्मविश्वास. बस कपड़े जरा बदल गए थे. 'मेरा पर्स और मोबाइल चोरी हो गया है. आप कुछ पैसों की मदद कर देंगे तो मैं घर जाकर पेटीएम करवा दूंगा. बस आप नंबर लिखवा दीजिए.' कुछ सोचने के बाद...

''चलो चाय पीते हैं, वहीं पैसे दे दूंगा.'' 
और हम ऐसे चल पड़े जैसे दुनिया में न जाने कितनी भलाई हो और मैं आखिरी सबसे भला आदमी!

''क्या नाम है .''
 शैलेंद्र. 

उसकी आंखों में अब भी वही चमक थी. चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास. अच्छा ये बताओ,नाम  यही है या फर्जी बता रहे हो.
''भाई, यही नाम है. फर्जी का काम नहीं करते. जो बोलते हैं सच बोलते हैं. '' 

''कहां जाना है.''
सेक्टर 42 

''दुनिया का हर आदमी अपनी नजरों में सच ही बोलता है. किसी को झूठ लगे तो उसका क्या कसूर?'' 

कुछ देर तक वो मुझे देखता रहा, मैं  उसे और फिर दोनों की नज़रें चाय में ऐसे डूब गई जैसे मामला बेहद गंभीर हो.  ''ये ले भाई. 20 रुपए में काम चला. इतने ही हैं. पिछली बार भी इतने ही दिए थे. अगली बार मिले तो कुछ और...'' बोलते ही मैं निकल पड़ा. सड़क पार करते ही जैसे ऑटो में बैठ रहा था, पिछे से एक हाथ मेरे कंधे पर ''हैल्लो भाई''. मैं पिछे मुड़कर सही से चेहरा देखता इससे पहले ही मेरे हाथ में 20 रुपए का नोट था और उसके कदम आगे बढ़ चुके थे. अब मैं सोच रहा था- ' सच बोल रहा था?'' या...

(लेखक हमारी सहयोगी वेबसाइट bgr.in में चीफ सब एडिटर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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