मधुशाला के परे: यहां लगता है कोई छोड़ गया है उर की गहरी पीर...
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मधुशाला के परे: यहां लगता है कोई छोड़ गया है उर की गहरी पीर...

मधुशाला लोकप्रिय क्यों हुई? क्या काव्य के अंतर्निहित गुण के कारण? अगर कभी कोई समाज-विज्ञानी इस पर शोध करे और विश्लेषण करे तो बड़े ही रुचिकर निष्कर्ष निकलेंगे.

मधुशाला के परे: यहां लगता है कोई छोड़ गया है उर की गहरी पीर...

पिछले दिनों कवि नीरज पर लिखते हुए हरिवंश राय बच्चन की लोकप्रिय रचना मधुशाला का जिक्र मैंने किया था. और यह लिखा था कि बच्चन का श्रेष्ठ काव्य इस तीसरे दर्जे की रचना की लोकप्रियता के सामने दब गया. कई बार मैंने यह कल्पना की कि अगर बच्चन ने मधुशाला न लिखी होती तो एक कवि के रूप में उनकी कीर्ति अधिक स्थाई और ठोस होती. हालांकि मधुशाला की लोकप्रियता में उनका कोई दोष न था, ठीक उसी तरह जैसे इसमें उनका कोई खास गुण भी न था, क्योंकि इस रचना में मौलिकता की कमी तो थी ही, कंटेंट का दुहराव था, रूढ़ बिंब और परंपरागत प्रतीक थे. बहुत जगह स्वाभाविकता बाधित दिखती थी और सप्रयास रचना उभर-उभर आती थी.

मधुशाला लोकप्रिय क्यों हुई? क्या काव्य के अंतर्निहित गुण के कारण? अगर कभी कोई समाज-विज्ञानी इस पर शोध करे और विश्लेषण करे तो बड़े ही रुचिकर निष्कर्ष निकलेंगे. पर यह बात तो तय है कि मधुशाला की लोकप्रियता के कारण कहीं बाहर थे. ये कारण उस समय की हिंदी क्षेत्र की शिक्षित पीढ़ी की मानसिक बुनावट और सांस्कृतिक दरिद्रता में थे. यह एक तरह से भारत में व्यापक हो चली बीए की डिग्री को महान उपलब्धि मानने वाली पीढ़ी के प्रसार का काल था. लगभग 1936-37 का वही वर्ष जब काशी में हिंदी की दो महान विभूतियों ने जीवन से विदा ली. प्रसाद और प्रेमचंद कम ही उम्र में, लेकिन बहुत अर्थपूर्ण जीवन जी कर गुजरे. काशी में ही काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मधुशाला का पहला सार्वजनिक पाठ हुआ, जिसने बच्चन को लोकप्रियता की राह पर अग्रसर कर दिया.

 कुछ बरस पहले इसी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भारतीय राजनीति में शुरुआती कदम रख रहे दक्षिण अफ्रीका से लौटे गांधी के व्याख्यान ने उन्हें भी लोकप्रियता और विवाद का एक बड़ा मंच दे दिया था. गांधी ने एनी बेसेंट की मौजूदगी और अनेक राजा-महाराजाओं की शिरकत वाली उस कुलीन सभा में छात्रों से भारत की सेवा का आह्वान किया और राजा-महाराजाओं की विलासिता की जम कर आलोचना की. भारत के लोगों के लिए यह इस तरह का पहला अनुभव था कि खुले मंच से संपत्ति और सत्ता के प्रतिनिधियों की सार्वजनिक भर्त्सना की जाए.

अतिनैतिकतावादी भारत के लिए, उसमें भी उसके हिंदी क्षेत्र और उसके युवा-वर्ग के लिए मधु, साकी, नशा, आलिंगन जैसे ढेरों आज सामान्य से लगने वाले शब्द, एक वर्जित क्षेत्र में उसके मन को एक नई उड़ान देने वाले लगे. मधुशाला की कविता उसके सामंती नैतिक परिवेश की अर्गलाओं (कुंडी) पर पहली सार्वजनिक खटखटाहट थी. वह युवाओं की वह पीढ़ी थी, जो शिक्षित तो हो गई थी, पर चौतरफा दबावों में थी. उसके मनोजगत के चारों ओर ऊंची दीवारें थीं. छायावाद उसे बहुत समझ में आता नहीं था और गुप्त की देशभक्ति भरी भारत-भारती उसे अपने से परे देश की बात लगती थी.

शराब उन समस्त वर्जनाओं का गहनतम प्रतीक थी, जो इस युवा वर्ग के संपूर्ण निजी जीवन को घेरे हुए थी. शिक्षा ने उसे अपने परिवेश से सांस्कृतिक रूप से विलग कर दिया था. व्यक्ति के रूप में उसके हृदय और मस्तिष्क का एक छोटा-सा कोना इतिहास के उस काल में पहली बार जाग्रत हो गया था. इस कोने में नारी की कल्पनाएं थीं, स्वच्छंद और आधुनिक जीवन का धूसर-सा बनता-बिगड़ता बिंब था. प्रेम को वह आधुनिक अर्थों में महसूस करने की जद्दोजहद में था. मधुशाला ने इस कोने के एकांत को बहुत हौले से छू भर दिया.

बच्चन ने यह सायास नहीं किया था. वे तो उमर खैयाम के काव्य तक फिटजेराल्ड के अंग्रेजी अनुवाद के जरिए पहुंचे थे. बच्चन अंग्रेजी के शिक्षक थे. अंग्रेजी काव्य के मुरीद. बस काव्याभ्यास की अंतः प्रेरणाओं ने उनसे बजरिए अंग्रेजी खैयाम का हिंदी अनुवाद कराया. और इसी प्रक्रिया ने उनके भीतर की रचनात्मकता को मधुशाला के छंद रचने के लिए उद्वेलित भी कर दिया.

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के काव्यपाठ के बाद तो जगह-जगह उन्हें काव्यपाठ के लिए बुलाया गया. और दशकों तक हिंदी पट्टी की युवा-पीढ़ी ने विभोर होकर उसे सुना और सराहा. 1937 में बच्चन जी ने निशा-निमंत्रण लिखा और उसके बाद मिलन-यामिनी, मधुबाला, मधुकलश, एकांत-संगीत आदि कई पुस्तकें लिखीं. उन्होंने सैकड़ों गीत लिखे. अर्थ-ध्वनि-बिंब की संवेदनशील धड़कती एक दुनिया उन्होंने रची. पर विडंबना यह थी कि कवि-सम्मेलन का संसार उनकी मधुशाला से कभी ऊपर नहीं उठ पाया और साहित्य की किताबी दुनिया उनके श्रेष्ठ गीति-काव्य को कभी समुचित महत्व नहीं दे सकी.

इसलिए मैं बच्चन को एक सफल कवि नहीं, एक ऐसा कवि मानता हूं जिसका काव्य विडंबना का शिकार हो गया. उसे जन-जीवन में जितना स्थान मिलना था, वह नहीं मिला. मधुशाला की लोकप्रियता और हिंदी की रूढ़ साहित्यिक दुनिया ने उनके काव्य-वैभव की संपूर्ण चमक से आने वाली पीढ़ियों को एक तरह से वंचित ही कर दिया. जबकि बच्चन ने अपनी काव्याकांक्षा के बारे में एक कविता में जो लिखा है, उसका भावार्थ यह है कि मेरी कविताएं पूरबी और पच्छिमी जुबानों में छप चुकी हैं, बहुत सराही जा चुकी हैं, मगर मैं खुद को तस्कीन तभी दे सकूंगा, जब गंगो-जमन के तीर फिरते किसी बावले के मुंह से अपने गीत गाते सुन न लूं.

खड़ी बोली हिंदी क्षेत्र में फैलनी शुरू ही हुई थी. तब भी आलम यह था कि लोग घरों में अभी भी अवधी, ब्रज, भोजपुरी बोलते थे, सामाजिक कारोबार उर्दू में होता था या फिर अंग्रेजी में. खड़ी बोली आजादी की लड़ाई के साथ-साथ तेजी से फैल जरूर रही थी, पर हिंदी के किसी कवि का उतना भी लोकप्रिय होना भविष्य में संभव नहीं रह जाएगा, जितना बच्चन हो गए थे, इस बात का अनुमान बच्चन को नहीं था. और वे यह भी नहीं जान सकते थे कि समय बीतने के साथ उनकी नहीं, हिंदी के समूचे साहित्य की लोकप्रियता का अध्याय आरंभ होने से पहले ही अंत को प्राप्त कर लेगा. ऐसा क्यों हुआ?

यहां बच्चन के जरिए हिंदी-काव्य की एक गुत्थी को समझा जा सकता है. हिंदी कविता दिनों-दिन सिमटती क्यों गई? बच्चन के काव्य को क्यों हिंदी के साहित्यिक संसार ने कविता से कुछ कम ही माना? उसे हमेशा लोकप्रियतावाद के खांचे में ही रखा. बच्चन सस्ते मंचीय कवि नहीं थे. वे विश्व-साहित्य के प्रबुद्ध अध्येता थे. शेक्सपियर, यीट्स और अनेक श्रेष्ठ रूसी कवियों का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया था. अंग्रेजी साहित्य की गीति काव्य धारा का उन पर गहरा असर रहा था. जिस छायावादी युग में उन्होंने कविता लिखना शुरू किया था, उससे अध्येता के रूप में वे अवश्य जुड़े पर उनके भीतर के रचनाकार की प्रेरणा, छायावादी काव्य में न थी. वे अंग्रेजी गीति-काव्य की तरह हिंदी में भी साहित्यिक मूल्य वाला गीति-काव्य रचना चाह रहे थे. इसमें वे सफल रहे.

पर इस गीति-काव्य को हिंदी कविता ने अपने हाशिए पर ही रखा. इसके अनेक साहित्यगत कारण हैं. हिंदी में नई कविता आंदोलन, फिर उसे परे करते हुए प्रगतिशील काव्य-मूल्यों की एक मापदंड के रूप में स्थापना और उसके अंतर्गत ही काव्य-सृजन को मान्यता मिलना, ये वे काव्यगत कारण कहे जा सकते हैं. पर इस सबके पीछे भी कुछ गहरे कारण हैं.

अगर हम पश्चिमी बौद्धिकता के विकास से भारतीय बौद्धिकता के विकास की संक्षिप्त तुलना करें तो बात कुछ साफ हो सकेगी. पश्चिमी बौद्धिकता का विकास एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया के तहत हुआ था. कला-साहित्य-विचार-सृजन-विज्ञान सभी क्षेत्रों में एक नया उन्मेष मध्यकाल में हुआ, जिसे पुनर्जागरण कहा गया. यह सिर्फ ज्ञान का विकास नहीं था. इसके लिए चर्च और धर्म को दी गई चुनौती मुख्य थी. मानव-जीवन को नए आधारों पर रचने की गहनतम प्रेरणा इसके पीछे थी. फ्रांसीसी क्रांति और पुनर्जागरण ये दो बड़ी घटनाएं थीं, जिन्होंने पूरे पश्चिम को बदल दिया. नए ज्ञान की रचना की. फिर औद्योगिक क्रांति ने इस ज्ञान का व्यापक प्रसार किया, उसे समाज की गहराई तक उतार दिया. फ्रांस और इंग्लैंड का 19 वीं सदी में रचा गया महान साहित्य समाज के इस गहरे आलोड़न से उपजा था.

 इन दोनों देशों के साहित्य और विचारों ने एक ओर यूरोप-अमेरिका के साहित्य को नव-संस्कार दिए तो दूसरी ओर रूस में इसने अपना एक विशिष्ट रूप लिया. आधुनिक विश्व-साहित्य के आरंभिक रूपों का संपूर्ण मानचित्र संक्षेप में यह है. यह बहुत लंबी, गहरी और जटिल सामाजिक स्थितियों और उनसे रचनाकारों की मुठभेड़ का आख्यान है.

परंतु भारत में, स्थितियां अलग थीं. भारत सदियों पहले परंपरागत ज्ञान-स्रोतों से तो कट ही चुका था, इसके अलावा उसने न अपने समाज का नवीनीकरण किया और न ही ज्ञान के नए क्षेत्र खोले. भक्तिकाल एक उन्मेष देकर बीत चुका था. भारत में आधुनिक ज्ञान अचानक आया और सीमित रूप में आया. शासक-वर्ग की अपनी जरूरत के तहत आया.

बहरहाल, भारत में ज्ञान और साहित्य का विकास और विस्तार अपने आरंभिक दिनों से ही एक द्वैध का शिकार था. वैयक्तिक और सामाजिक जीवन अलग, ज्ञान और रचना का संसार अलग. वह तो आजादी के आंदोलन की प्रेरणाएं थीं और भारत के बड़े ही पुरातन ज्ञान-स्रोतों की शक्ति की कुछ जबरदस्त निजी प्रयासों से आधुनिक साहित्य की ठीक-ठीक रचनाएं आरंभ से ही आने लगीं. रवींद्रनाथ ठाकुर, प्रसाद, प्रेमचंद इसी प्रक्रिया की उपज थे. कुछ चमकदार वैयक्तिक प्रतिभाएं और श्रेष्ठ साहित्य सृजन तो हुआ, परंतु एक आधुनिक सृजनशील साहित्यिक संस्कृति का निर्माण भारतीय भाषाओं में न हो सका. बांग्ला कुछ सीमा तक अपवाद रही और हिंदी क्षेत्र इस स्थिति का सबसे बड़ा शिकार बना. यह बहुत बड़ा और गहरी पड़ताल का विषय है. बहरहाल यहां संदर्भ सिर्फ बच्चन की कविता का है. हिंदी में बौद्धिक विकास की उपरोक्त स्थितियों ने हिंदी भाषा और साहित्य को संकीर्ण बनाया, इसे शुद्धतावादी बनाया, इसे जीवन और रचना के द्वैत और विभेद में जीने वाला बनाया, इसे आरोपित गंभीरता और वैचारिकता से रहित पर वैचारिकता का कठोर दावा करने वाला बना दिया.

वैचारिकता और गंभीरता की इस छद्म परंतु कठोर दावेदारी ने यह सुनिश्चित कर दिया कि हिंदी में कविता की स्वीकार्यता के ये-ये मापदंड होंगे. श्रेष्ठता के ये निकष होंगे, मान्यता की ये परिपाटी होगी. यही वजह थी कि बच्चन ही नहीं हिंदी के श्रेष्ठतम कवियों प्रसाद, निराला अज्ञेय, मुक्तिबोध की जीवंत काव्यधारा से हिंदी के रचनाकार और कवि ही कट गए, सामान्य पाठकों की कौन कहे.

प्रसाद का अपार काव्य-वैभव जैसे अपनी भाषा का जीवंत भावात्मक आख्यान नहीं पुरातत्व का कोई विगत गौरव हो, ऐसा मान लिया गया. निराला यथार्थ और प्रगतिशीलता के मापदंड हों, यह प्रचलित हो गया. अज्ञेय दुरूह व्यक्तिवाद के प्रस्तोता हो गए और मुक्तिबोध सिद्धांतों के बीहड़-कवि. जबकि इन चारों कवियों के मामले में इनका काव्य कुछ और साक्ष्य देता है. ये चार नाम विशेष तौर पर इसलिए लिए गए हैं कि ये आधुनिक हिंदी कविता के सर्वाधिक चर्चित, विवादित, प्रशंसित कवि हैं, पर इनके काव्य-संसार के बारे में दशकों तक हिंदी के अकादमिक संसार ने और आलोचकीय दुनिया ने संदर्भ और तत्व से कटी इतनी सारी स्थापनाओं को सुदृढ़ कर दिया कि इन्हें भेद कर इनके बृहत्तर काव्य-संसार तक पहुंचना ही लगभग असंभव हो गया.

फिर बच्चन जैसे सरल गीतकार का काव्य-वैभव प्रायः अप्रशंसित या मात्र मधुशाला का ही विस्तार समझ लिया जाना तो स्वाभाविक जैसा ही बन गया. जबकि सच यह है कि बच्चन की कविता के कई आयाम हैं. सरल गीति-काव्य के शिल्प में भारतीय मन की वह आर्द्र वाणी है. जब भी हिंदी काव्य अपने को व्यापक सामाजिक अर्थों में पुनर्निर्मित करना चाहेगा, उसे अनेक कवियों के साथ-साथ बच्चन का भी अपने लिए पुनराविष्कार करना होगा. उसे यह तलाशना होगा कि उसके पितामहों की पीढ़ी जिस कवि की मधुशाला से तरंगित-सी हो गई थी, उसने अपने छंदों में उस पीढ़ी के उस अंतर्मन को कई तरह से मुखरित किया था, और वह अंतर्मन समय के अंतरालों को पार करता अब उसके अस्तित्व की रचना में भी शामिल है.

(आलोक श्रीवास्तव सुपरिचित कवि और लेखक हैं)

(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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