ज़माने ज़माने की बात
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ज़माने ज़माने की बात

आज़ादी की क़ीमत बड़ी महंगी पड़ रही थी, सारा जोश, सारा उत्साह धराशायी हुआ जाता था जिसमें मेरे गाँव के वाशिन्दे शामिल थे. गांव एक जाति और एक धर्म से बंधा नहीं होता. मेरे गांव में भी सातों जातियां और हिन्दू तथा मुसलमान नाम के धर्म थे. 

ज़माने ज़माने की बात

मैं जिस समय की बात कर रही हूँ वह आज से कुछ ज़्यादा दूर है, ऐसा नहीं है. वह कोई पौराणिक युग या मुग़लिया सल्तनत का समय नहीं है और न अंग्रेज़ों की हुकूमत वाले दिन. यह हमारे आज़ाद भारत का ही ज़िक्र है. हां इन्हें आज़ादी मिलने के निकट के दिन मान सकते हैं. तब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे - पहले प्रधानमंत्री. तब महात्मा गांधी की हत्या का शूल नागरिकों की छाती में गड़ा हुआ था. तब देश के बंटवारे ने भी लोगों के कलेजे चीरकर धर दिये थे.

आज़ादी की क़ीमत बड़ी महंगी पड़ रही थी, सारा जोश, सारा उत्साह धराशायी हुआ जाता था जिसमें मेरे गाँव के वाशिन्दे शामिल थे. गांव एक जाति और एक धर्म से बंधा नहीं होता. मेरे गांव में भी सातों जातियां और हिन्दू तथा मुसलमान नाम के धर्म थे. धर्म के नाम पर गाँव वाले बेहद मासूम थे जब कि जातियों में काफ़ी भेदभाव और छुआछूत दिखाई देता था. धर्म के लिये लोगों को मैंने उस मन्दिर के आश्रय में कभी नहीं देखा जो गाँव की पश्चिमी सीमा पर बना हुआ था. वहां शिव और पार्वती की आकर्षक प्रतिमायें थीं और जल चढ़ाने के लिये कुंड भी बना हुआ था. मगर मैंने मन्दिर के कुंड को कभी गीला नहीं देखा और न जल चढ़ाने वालों को आते जाते देखा. मन्दिर सूखा रहता जिसमें झाड़ू जरूर लगा दी जाती. मन्दिर छोटे बच्चों का आकर्षण केन्द्र था क्योंकि उसमें शंकर जी के नांदिया (नन्दी ) की सफ़ेद संगमरमर की मूर्ति थी , ऐसी सजीव कि वह बच्चों को अपनी गाय का सजा-वजा बछड़ा लगे. बच्चे अपनी सत्यता की सौगन्ध नांदिया को छूकर खाते.मुझे याद है कि शेरअली भी बच्चे की तरह बच्चों का साथी होता और इस्माइल भी. ये दोनों भी नांदिया को छूकर ईमान उठाते.

आज जब मन्दिर मस्जिद पर आपसी लड़ाई देखती हूँ तो मुझे गाँव का दृश्य याद आता है. क्या बचपन हिन्दू और मुसलमान नहीं होता ? क्या हम बड़े होकर धार्मिक भेदभाव सीखते हैं और शत्रुता पाल लेते हैं ? मेरे गाँव में जैसे मन्दिर था वैसे ही हमारे स्कूल के रास्ते में खेतों के बीच सफ़ेदी से पुते हुये पीर बाबा गड़े हुये थे. बच्चे हाथ जोड़कर पीर बाबा की परिक्रमा करते और इम्तिहान में पास होने की दुआ माँगते.

यों तो बाहरी लोगों के कहने सुनने और यहां तक कि लानत देने पर गांव के मुसलमानों ने एक कोठरी को मस्जिद कहना शुरू कर दिया लेकिन वहाँ नमाज़ अदा करना उन्हें आता न था. मौलवी कहाँ से बुलाया जाये और आनगांव का आदमी कितने दिन आ जायेगा ? फिर वे राजसी मुसलमान तो थे नहीं, मज़दूरी करने वाले ठहरे सो कहां फ़ुरसत होती. बस मस्जिद के आगे सिर झुकाने तक मज़हब रहा. वे मज़हब के लिये बहुत गम्भीर होते भी कैसे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बँटवारे के समय गांव के नम्बरदार ने अपने रजिस्टर में उनको हिन्दू दिखा दिया कि उनसे उनका वतन न छुड़वाया जाये, उनको बेघर न कर दिया जाये, वे ख़ानाबदोश न हो जायें. नम्बरदार ने उनके नाम लालसिंह, गोपाल, मंगलसेन जैसे कर दिये. जिस समय यह भान हुआ कि इन को जोर जबरदस्ती खींचा जायेगा तो इनके सिर पर चोटी रखवा दी. नम्बरदार इन के रक्षक ही नहीं माई बाप हो गये. नम्बरदार का नाम बनवारी लाल था और वे ज़मींदार थे. मगर वे अपने गाँव के लोगों के लिये मर मिटने वाले इंसान सिद्ध हुये. उन्होंने जान हथेली पर रखकर कट्टर मुसलमानों से और सिर फिरे हिन्दुओं से अपने गाँव के मुसलमानों को बचाया.

जब मैंने यहां बनवारी लाल की बात चलाई है तो यह भी बता दूं कि उनके गाँव में दहेज प्रथा नहीं है .होती कैसे नम्बरदार दहेज के कट्टर विरोधी थे. इस गांव ने ही नहीं आसपास के गांवों ने भी देखा है कि उन्होंने अपने बेटे की शादी में नई पाई तक नहीं ली. गांधी के अनुयायिओं के यहाँ से रिश्ता किया. बहू खादी की साड़ी पहनकर आई और दहेज की जगह गांधी चरख़ा लाई जिस पर बहू का नाम लिखा था - सुराजो देवी. बस तब से गाँव में यह रिवाज हो गया कि बेटे की शादी में कोई दहेज नहीं लेगा और बहू के लिये ज़ेवर बनवाना ज़रूरी नहीं.

फिर क्या था कि गाँव की लड़कियों की शादियाँ भी बिना दहेज के होने लगीं, तय करने नम्बरदार ही जाते थे. मैं उनको फ़रिश्ता नहीं कहूँगी, वे एक बेमिसाल इंसान थे जिन्होंने गांधी जी की मृत्यु का शोक तेरह दिन तक मनाया था और पिता की तरह राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि दी थी. वह गाँव जवाहरलाल नेहरू से वाक़िफ़ था क्योंकि हाथरस में जब नेहरू जी आये तो उनका भाषण सुनने नम्बरदार के साथ लगभग गाँव भर गया. पंचवर्षीय योजनाओं का जमाना था, किसानों को नयी तरह से खेती करने का ढंग सिखाया जा रहा था. नये तरह के खाद बीजों से किसान परिचित हो रहे थे. बीडिओ, एडिओ और ग्रामसेवक किसानों के सहायक थे. इस नये सबेरे में किसको पड़ी थी हिन्दू मुसलमान होने की. महिलाओं के लिये महिला मंगल योजनायें बनी कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जायें. गांव गांव लोगों ने कच्ची पक्की इमारतें प्रस्तुत कर दीं कि ग्रामीण महिलाओं के लिये प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खुलें.

कहां गये वे दिन ? हम तो बहुत आगे आ गये. हिन्दू मुसलमानों के भेद से भी बहुत आगे कि अपने देवताओं में ही जातियों का बंटवारा कर रहे हैं. गांधी चरख़ा वाली सुराजो बहू किसी को नहीं चाहिये. दहेज के लोभ में दुल्हन जला रहे हैं. जिन की शिक्षा और कलाकारी के लिये कच्ची पक्की इमारतें प्रस्तुत की थीं आज वही जगहें बलात्कारों के लिये मुफ़ीद हो गयी हैं. हत्याओं को अंजाम देने के लिये सुलभ मान ली गयी हैं. नमक का दरोग़ा अब बेअर्थ है और हामिद जैसे छोटे बच्चे वत्सल की जगह ख़तरनाक हो रहे हैं. यही तरक़्क़ी है, ये ही अमेरिका और रूस से होड़ लेने के दिन हैं और चीन को मात देने का दिवास्वप्न !

फिर भी हम एक सपना देखते हैं क्योंकि सपना देखना हमारा नैसर्गिक गुण है और आशावान होना हमारी आदत कि कोई नम्बरदार बनवारी लाल के वेश में आयेगा जो उसी समय का संधान करेगा जो इंसान की सच्ची आज़ादी के लिये ज़रूरी है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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