Menstrual Hygiene Day : माहवारी के बोझ में दबती औरत और धरती
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Menstrual Hygiene Day : माहवारी के बोझ में दबती औरत और धरती

पिछले दस सालों में अगर देखें तो माहवारी स्वच्छता से जुड़े उत्पाद, खास कर डिस्पोज़ेबल सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल में उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखने को मिली है. 

माहवारी स्वच्छता दिवस

नई दिल्ली : मैं एक जीवविज्ञान का छात्र था. इस वजह से मुझे ये तो मालूम चल गया था कि मासिकधर्म क्या होता है, मैं ये भी जानता था कि इसके पीछे क्या वजह होती है, लेकिन उस उम्र में इससे जुड़ी सामाजिक सोच को समझ नहीं पाता था कि क्यों मेरी दोस्त को किसी मंदिर में जाने से मना कर दिया जाता है. मोहल्ले में पड़े हुए सैनेटरी पैड्स या उससे भी पहले खून से सने हुए कपड़ों को जब घूरे से उठाकर कुत्ते उसके साथ जूझ रहे होते थे और मुझसे सीनियर मोहल्ले के लड़के उसे देखकर हंसते हुए इस बात का आंकलन लगा रहे होते थे कि ये मोहल्ले के किस घर से आया है तब मैं भी उनके मज़ाक में बस यूं ही शामिल हो जाया करता था. छोटा था इसलिए ये समझ नहीं आता था कि इस कपड़े में ऐसा कौन सा चुटकुला लिखा है जो इन लोगों को हंसा रहा है. इस बात को करीब दो दशक बीत गए हैं लेकिन आज भी माहवारी पर बात करना एक वर्जना ही बनी हुई है. घरों में इस पर खुल कर बात नहीं होती है. पिछले दस सालों में अगर देखें तो माहवारी स्वच्छता से जुड़े उत्पाद, खास कर डिस्पोज़ेबल सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल में उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखने को मिली है. 

राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वे 4 (2015-16) के मुताबिक अकेले ग्रामीण भारत में रहने वाली 15-24 साल की युवतियां में से 48 फीसद सेनिटरी पैड्स का इस्तेमाल करती हैं. उत्पादों की एक लबीं फेहरिस्त होने के बावजूद डिस्पोज़ेबल सैनिटेरी पैड्स सबसे ज्यादा चर्चित उत्पाद बन चुका है. लेकिन आज भी मेडिकल स्टोर पर इसे काली पन्नी में लपेट कर ही दिया जाता है. हमने अपने इर्द गिर्द एक ऐसा समाज गढ़ा है जहां एक प्राकृतिक प्रक्रिया भी अपराध की तरह ली जाती है. 

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दरअसल इसके पीछे हमारी वो शिक्षा है जिसे देने मे हम हमेशा से झिझकते रहे हैं. मेरे कई दोस्त ऐसे हैं जो महिलाओं को बहुत सम्मान करते हैं. उनकी बराबरी की बात दिल से करते हैं बल्कि कहीं हद तक वो उसे अपने ऊपर लागू भी करते हैं, लेकिन उनमें से कई ऐसे हैं जिन्हें या तो इसका इल्म नहीं था और जिन्हें जानकारी थी भी तो  वो इस कदर आधी अधूरी या वर्जित जानकारी थी, जो औरत को शर्मिंदा करने के काम आती थी. 

खास बात ये है कि इसका सीधा असर महिला के स्वास्थ्य पर पडता है. मासिक धर्म को एक शर्मिंदगी का विषय या वर्जित विषय मान कर उस पर बात करना या किसी लड़की का ये बताना कि वो पीरियड्स मे हैं समाज में इस तरह लिया जाता है गोया उससे कोई अपराध हुआ हो और जहां खुल कर बात नहीं होती है जहां हम किसी बात को लेकर सहज नहीं है वहां पर उससे जुड़े विकार तो पैदा होने ही हैं. माहवारी स्वच्छता को लेकर विकट स्थितियों का ही नतीजा है कि भारत में मासिक धर्म की उम्र आते आते करीब 24 प्रतिशत लडकियां स्कूल छोड़ देती हैं. इससे उनके आत्मविश्वास पर भी गहरा असर देखने को मिलता है. इसके साथ ही माहवारी को लेकर महिलाएं एक और तकलीफ से गुजरती है वो है इसका निपटान. सैनिटरी पैड्स के निपटान या उसे डिस्पोज करने की उचित व्यवस्था और सही जानकारी नहीं होने की वजह से उसका उचित तरीके से निपटान नहीं हो पाता है. देखा गया है कि कई बार निपटान की व्यवस्था नहीं मिलने की वजह से महिलाओं को देर तक एक ही पैड्स पहनकर रखना पड़ता है जिसकी वजह से उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर देखने को मिलता है. 

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महिलाएं ही नहीं धरती भी झेल रही है 
माहवारी का सामाजिक पक्ष जितना बुरा है उससे कहीं ज्यादा बुरा इसका प्राकृतिक पक्ष है. दरअसल माहवारी स्वच्छता प्रबंधन से जुड़े जागरुकता कार्यक्रमों में भी विशेषकर सैनेटरी पैड्स के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता रहा है. सरकार और बड़े निर्माताओं के जरिये औरतों और लड़कियो तक पहुंचने वालों में मुख्यतौर पर वो उत्पाद होते हैं जो नॉन-कंपोस्टेबल सामग्री से बने होते हैं- ये वो सामग्री है जिसके गलने में सैंकड़ों साल लग जाते हैं. इससे बड़ी मात्रा में पैदा हो रहे कचरे के अलावा, महिलाओं और लड़कियों के लिए इनके निपटान के विकल्प भी आसान नहीं होते हैं, जिसकी वजह वो इसे ज्यादा देर तक पहने रहने को मजबूर हो जाती है, जिससे उन्हें बेवजह असहजता और सेहत से जुड़ी दिक्कतों का सामना करना प़ड़ता है.

ज्यादातर माहवारी स्वच्छता से जुड़े उत्पाद, उनका निपटान और उचित कूड़ा प्रबंधन के उपायों की एक साथ बात नहीं की जाती. जबकि, उत्पादों के चुनाव और उनसे होने वाले कूड़े के प्रबंधन का समाधान एक दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं.
भारत में करीब 33.6 करोड़ लड़कियां और महिलाओं को माहवारी होती है. एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में करीब 12.1 करोड़ औरतें और महिलाएं स्थानीय और व्यवसायिक तौर पर बनाए जा रहे डिस्पोज़ेबल सैनिटेरी नैपकिन का इस्तेमाल कर रही हैं. कल्पना कीजिए उस कूड़े के ढेर की जो हर साल पैदा होने वाले 2178 करोड़ डिस्पोज़ेबल पैड्स से तैयार हो रहा है.

अगर हम माहवारी के दौरान इस्तेमाल होने वाले उत्पादों के जरिये धरती पर बढ़ते कूड़े के बारे में बात करें तो उसे कुछ यूं समझा जा सकता है. सेनिटेरी पैड्स का इस्तेमाल करने वाली महिला अपने जीवन भर में औसतन 6,120 डिस्पोज़ेबल पैड्स का इस्तेमाल करती है, वहीं इसकी जगह कपड़े से बने पैड इस्तेमाल करने वाली (136 दोबारा इस्तेमाल होने वाले पैड्स) और एक मेन्स्ट्रुअल कप का इस्तेमाल करने वाली अपने जीवन में (सिर्फ 7 दोबारा उपयोग में आने वाले मेन्स्ट्रुअल कप) का उपयोग करती हैं.
भारत भर में करीब 45 प्रतिशत महिलाएं बाज़ार में मिलने वाले पैड्स का इस्तेमाल करती हैं, वहीं 50 प्रतिशत कपड़ा का इस्तेमाल करती हैं. इनमें से 13 फीसद कपड़ा और पैड्स दोनों का उपयोग करती हैं और 4 प्रतिशत महिलाएं घर में बने कॉटन के पैड्स को इस्तेमाल में लाती हैं, जिनके निपटान के तरीके पर नजर डालें तो इसमें से 45 प्रतिशत  सामान्य कूड़े के डब्बे में डाल दिए जाते हैं, वहीं 23 प्रतिशत इस्तेमाल किए गए पैड्स या कपड़े को खुले इलाके, रोड के किनारे, नदी, नालों में फेंक दिये जाते हैं. 15 फीसद जला दिए जाते हैं, और 25 फीसद को गढ़ा दिया जाता है वहीं 9 फीसद पैड्स को शौचालय में बहा दिया जाता है. 
सबसे ज्यादा धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहे सैनिटरी पैड्स की बात करें तो इसे बनाने में सुपर एबजॉरबेंट पॉलीमर, सोडियम पॉलीएक्रालाइट जेल, पॉली प्रोपलीन, और पॉलीइथाइलीन जैसे तत्वों का इस्तेमाल किया जाता है जिसे गलने में करीब 500-800 साल लग सकते हैं. वहीं इसकी जगह अगर सरकारें आसानी से गल जाने वाले तत्वों जैसे केले के पेड से निकला फाइबर, वुडन पल्प, पाइन और दूसरे प्राकृतिक अवशोषकों का इस्तेमाल करके बनाए जा रहे पैड्स के निर्माण को प्रोत्साहित करे तो महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ साथ प्रकृति की सेहत भी दुरुस्त रह सकती है. 

दरअसल हमारी जागरूकता पर हमेशा से बाज़ार हावी होता रहा है जिसकी वजह से एक चीज संभलती नहीं है और दूसरी चीज बिगड़ने लगती है. हम उस संतुलन को बनाए नहीं रखना चाहते हैं. पहले तो हम महिलाओं की माहवारी की तकलीफ का मानवीय पहलू समझने को राजी नहीं होते हैं. महिलाएं किस हॉरमोनल बदलाव से गुजर रही है, उन्हें क्यों चिड़चिड़ाहट हो रही है हम इस बारे में बात तक नहीं करते हैं उल्टा माहवारी को एक वर्जना मान कर हम महिलाओं को शर्मिंदा होने के लिए जरूर छोड़ देते हैं. दूसरा जब इस पर जागरुक किए जाने की बात हुई तो बस धड़ल्ले से पैड निर्माण और वितरण करके हमारी सरकारों ने महिला माहवारी स्वच्छता को लेकर इतिश्री कर ली. इसके निर्माण से जुड़ी कंपनियां आज भारत में मोटा मुनाफा कमा रही हैं. कुछ हद तक इससे महिलाओं की तकलीफ कम तो हुई है लेकिन उसके एवज में हमने धरती की तकलीफ को बढ़ाना शुरू कर दिया. दरअसल ज़रूरत इस बात की है कि अकेले महिलाओं को ही नहीं पूरे समाज को माहवारी स्वच्छता से जुड़े उत्पादों और उनके इस्तेमाल के बारे में जानकारी मुहैया की जानी चाहिए. माहवारी स्वच्छता कार्यक्रम और नीतियों में तमाम तरह के उत्पादों की जानकारी के साथ उसके चुनाव करने के तरीके की वकालत की जानी चाहिए. जानकारी और सूचना के साथ उत्पादों का चयन करने से लड़कियां और महिलाएं अपनी जरूरत और सहजता, खर्च करने की योग्यता, और जिन हालात में वो रहती हैं और माहवारी का अनुभव करती हैं, उसके मुताबिक सुरक्षित माहवारी स्वच्छता से जुड़े उत्पाद का चुनाव कर सकती हैं. इससे लाभ ये होगा कि ना सिर्फ महिलाएं बल्कि धरती भी तकलीफ से बच पाएंगी.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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