Opinion : इस पाखंड पुराण से देश का भला होने वाला नहीं
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Opinion : इस पाखंड पुराण से देश का भला होने वाला नहीं

यथार्थ तो यह है कि बंगलों में जितना दुर्व्‍यवहार घरेलू नौकरों के साथ किया जाता है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं. कुछ दिन पहले एक बड़ी महिला नेता की फोटो मीडिया मे आई थी. 

Opinion : इस पाखंड पुराण से देश का भला होने वाला नहीं

हमारे नेताओं के पाखंड़ी आचरण का दुनिया भर में कोई जोड़ नहीं. चुनाव के सीजन के साथ ही नए-नए प्रपंच शुरू हो गए. ताजा प्रपंच है दलितों के घर जाकर भोजन करने का. नेता लोग मीडिया और अपने भोजन का पैकेट, बर्तन साथ में लेकर जाते हैं. पांत में बैठकर भोजन करने कराने के बाद उनके चमचे चुरकुन सब समेटकर ले जाते हैं. कुल-मिलाकर यह एक पॉलिटिकल एडवेंचर जैसे बनकर रह गया है. पिछले चुनावों में तो कई नेताओं ने दलितों की बस्तियों में रातें गुजारी, लेकिन शाही ठाट के साथ. पहले वहां सोफा-बेड, कमोड, एसी, वॉश-बेसिन पहुंचाए गए फिर नेताजी पधारे. रात बिताई, दूसरे दिन चलते बने और उनके साथ वो साजो-सामान भी उड़ते गए. पोल खुलने और मीडिया में हंसाई होने के बाद भी ये दलित पर्यटन नहीं थमा.

सरसंघचालक मोहन भागवत को इस पर हस्तक्षेप करना पड़ा. उन्होंने कहा ये ड्रामेबाजी बंद होनी चाहिए. राजनीति में पाखंड नौटंकी के पात्रों को संवारने वाले की तरह होता है जो बदसूरत से बदसूरत को भी आकर्षक बना देता है. कोई लाख नसीहत दे इस पाखंड पुराण के अध्याय बंद होने वाले नहीं. दलित प्रेमी नेताओं को चाहिए कि वे बस्तियों में जाकर उन बेचारों को सांसत में डालने की बजाय उन्हें घर बुलाएं और अपने साथ डायनिंग हाल में बैठाकर भोजन करें और कराएं. इससे अच्छा तो और कुछ हो नहीं सकता कि बंगलों में ही काम करने वाले स्वीपर, माली, झाडू-पोंछा करने वाली बाई, ड्राइवर, गनमैन, अर्दली को कम से कम हफ्ते में एक दिन अपने साथ बैठाकर खाना खिलाएं.

यथार्थ तो यह है कि बंगलों में जितना दुर्व्‍यवहार घरेलू नौकरों के साथ किया जाता है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं. कुछ दिन पहले एक बड़ी महिला नेता की फोटो मीडिया मे आई थी. पांच सितारा होटल में एक मासूम सी बच्ची किस तरह मुलुर-मुलुर निहारते सहमी खड़ी थी और नेताइन जी सपरिवार लजीज व्यंजन का लुफ्त उठा रहीं थी. पाखंड आदमी को आदमी से और भी दूर कर देता है, क्योंकि कथनी और करनी कभी छिपती नहीं.

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सच पूछा जाए तो ये वंचित समाज इसी तरह के छल-प्रपंचों का शिकार होता आया है. यरवदा जेल में गांधीजी के उस ऐतिहासिक अनशन और उसके बाद 24 सितंबर 1932 को हुए पूना पैक्ट के बाद उसके संकल्पों का राजनीतिक दलों ने जरा भी लिहाज किया होता तो देश में सामाजिक विभेद की ये स्थिति न बनती. पूना पैक्ट में अछूतों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिए जाने से ज्यादा जरूरी संकल्प अछूतोद्धार के लिए गए थे. पूना पैक्ट के अगले ही दिन डॉ. आंबेडकर, एमसी राजा और मदन मोहन मालवीय की समिति ने जो महत्वपूर्ण संकल्प पारित किए थे, वे यही हैं, जिसकी चिंता आज कांग्रेस नहीं अपितु संघ कर रहा है. संकल्प लिया गया था कि मंदिर, सार्वजनिक कुओं, धर्मशालाओं, श्मशानों में जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा. स्वतंत्र भारत अपनी सरकार बनने के साथ ही इस संकल्प को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाया जाएगा. मदन मोहन मालवीय ने दृढ़ता के साथ यह संकल्प पारित कराया था कि जन्म के आधार पर कोई अछूत नहीं माना जा सकता. 

एक मुद्दे की बात और जिस हरिजन शब्द पर आज कानूनी बंदिश लगी है वह इसी बैठक में अंगीकार किया गया था, जिसमें आंबेडकर, एमसी राजा और मदनमोहन मालवीय ने हस्ताक्षर किए थे. दरअसल इससे पहले इस वर्ग को अंत्यज, दलित और अछूत कहा जाता था. गांधी जी विचलित थे व इस विषय पर लोगों से विमर्श कर रहे थे तभी उनके आश्रम में रहने वाले एक दलित स्वयंसेवक ने उन्हें नरसी मेहता का पद सुनाया और सुझाव दिया कि समाज में जिसका कोई नहीं, उसका तो बस ईश्वर ही है. इसके अलावा संत रविदास और तुलसी के पदों व चौपाइयों में आए हरिजन शब्द की महत्ता पर विचार किया.

रामचरित मानस में तो तुलसी ने हनुमान जी के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया है. व्यापक विमर्श के बाद हरिजन शब्द पर सर्व सहमति बनी और उसे उस संकल्प में स्थान दिया गया, जिसमें आंबेडकर और एमसी राजा जैसे दो दिग्गज दलित नेताओं के साथ सवर्णों का प्रतिनिधित्व कर रहे कुलीन ब्राह्मण पंडित मदनमोहन मालवीय के हस्ताक्षर थे. इसी बैठक में हरिजन सेवक संघ का विचार आया. गांधी का विचार था कि इस मंच के माध्यम से हरिजनों की सेवा करके सवर्ण समाज प्रायश्चित कर सकता है. गांधी की सबसे बड़ी चिंता इस वर्ग को लेकर रही है. उन्होंने अछूतोद्धार को स्वतंत्रता संग्राम से भी जरूरी माना. उनका मानना था कि यदि आजादी मिल भी गई तो भी एक बड़ी आबादी गुलामी ही भोगती रहेगी. उनकी चिंता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता था कि पूना पैक्ट के बाद उन्होंने एक साथ तीन अखबार निकाले, अंग्रेजी में हरिजन, हिन्दी में हरिजन सेवक और गुजराती में हरिजन बंधु. समूचे देश की यात्रा की और इस अपील की कि इस वर्ग को अपने में उसी तरह शामिल करें जैसे कि पानी में मिश्री की डली.

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हरिजनों के मामले में गांधी इतने भावुक थे कि उन्होंने यह तक तय कर लिया था कि वे उसी विवाह समारोह में आशीर्वाद देने जाएंगे, जहां विजातीय रिश्ते होंगे. महत्वपूर्ण बात यह कि उनके इस मिशन में बाबा साहेब आंबेडकर और पंडित मदन मोहन मालवीय लगातार साथ में थे. पूना पैक्‍ट के बाद घोषित संकल्पों का गांधी जिस मनोयोग से निर्वाह कर रहे थे वे आंबेडकर के लिए हीरो बन चुके थे. यह बात अलग है कि कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग, जिसमें नेहरू भी शामिल थे उसे गांधी का यह मिशन एक प्रपंच लगता था. इस वर्ग को आजादी हासिल कर सत्ता में बैठने की जल्दी थी. ये मानते थे कि सत्ता में आने के बाद कानून के जरिए समाज को ठोंकपीट कर बराबरी में ला देंगे. आजादी के बाद हुआ भी यही. अस्पृस्यता निवारण कानून बनाया गया, लेकिन गांधी ने जो मिशन चलाया वो कहीं पीछे छूट गया. जिन हरिजन सेवक संघ के जरिए गांधी ने कल्पना की थी कि सवर्ण समाज दलितों की सेवा, शिक्षा, चिकित्सा व्यवस्था करके उन्हें मुख्यधारा में लाने का काम करेगा वह हरिजन सेवक संघ कांग्रेस के वोटबैंक का राजनीति का अड्डा बन गया. हरिजन सेवक संघ से जुड़े पदाधिकारी चुनावी राजनीति में बढ़ चढ़कर भाग लेने लगे, विधायक सांसद बनकर सत्ता में साझीदार हो गए.

ये हरिजन सेवक संघ की ही राजनीति का कमाल था कि इंदिराजी अपने दौर में हरिजनों की सबसे बड़ी हितचिंतक नेता के तौर पर उभरीं. याद करिए वह दौर जब हरिजनों को सरकारी दामाद कहा जाता था. जबकि यथार्थ इसके ठीक उलट था. पांव के नीचे से जमीन खिसक चुकी थी, क्योंकि हरिजनों की दशा सुधरने की बजाय और नरकीय होती गई. सत्ता में वही सामंती ताकतें जम चुकी थीं, जिनके पुरखों ने दलितों को पशु से पशुतर बनाया था.

इसका पहला अहसास तब हुआ जब 1982 में दलित संगठनों ने पूनापैक्ट की स्वर्ण जयंती मनाई. अब तक इन संगठनों में पढ़े लिखे और विचारवानों की एक समूची पीढ़ी आ चुकी थी. इन  संगठनों ने सबसे पहले कांग्रेस से वह हरिजन शब्द ही छीन लिया, जिसके नाम पर पिछले चार दशकों से कांग्रेस सत्ता में काबिज होती आ रही थी. सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया कि हरिजन शब्द को गैरकानूनी घोषित कर दिया जाए. नरसी मेहता, संत रैदास, तुलसी के जिन पवित्र पदों से गांधी ने आंबेडकर, एमसी राजा और मदन मोहन मालवीय की लिखित सहमति से जिस पवित्र हरिजन शब्द की समाज में प्राण-प्रतिष्ठा की थी उसी शब्द को कांग्रेस की सरकार को गैरकानूनी, आपराधिक घोषित करना पड़ा. वह भी आंबेडकर का झंडा थामे लोगों के कहने पर. इसी घटना के बाद से कांग्रेस नैतिक रूप से दीवालिया होनी शुरू हुई. यह तो दलित नेताओं की भलमनसाहत ही थी कि उन्होंने तुलसी के रामचरित मानस, रविदास और नरसी मेहता के पदों पर बंदिश की मांग नहीं की, नहीं तो तत्कालीन सरकार लगे हाथ वह भी कर देती.

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सब्जबाग दिखाकर ज्यादा दिन किसी को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता. कांग्रेस सरकार ने सिर्फ सब्जबाग ही दिखाए, इसलिए आज उसकी यह गति है, लेकिन यह सिलसिला यहीं नहीं थमा. जिन दलित नेताओं ने इस वर्ग को गोलबंद किया, उसने उन्‍हें सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए महज एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया. समूचा दलित वर्ग आज चौराहे पर खड़ा है. उसे सब अपनी-अपनी ओर हांककर ले जाना चाहते हैं. उसके अपने और गैर लोगों के पास सिर्फ चुग्गा है, जिसके जरिये वे ललचा रहे हैं. 

राजनीति अब फास्टफूड हो गई, तुरंत पकाओ और खाओ. जो दलित के घर में पांत लगाकर भोजन करते हैं वे दलितों को नहीं खुद को बरगला रहे हैं. गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती आने को है. स्वर्ग में पड़े-पड़े आज वे किसी बात को लेकर सबसे ज्यादा आहत हो रहे होंगे तो इस वर्ग के साथ किए जा रहे छल को लेकर ही. गांधी ने जब हरिजनों की सेवा का मिशन शुरू किया तब उन्हें भी ढोंगी कहने वालों की संख्या कम नहीं थी. एक बार गांधी के खिलाफ ऐसे ही लोगों का मोर्चा उनके साबरमती आश्रम गया. 

गांधी उस वक्त आश्रम में रहने वाले एक हरिजन स्वयंसेवक की नन्हीं बच्ची को दुलार रहे थे. वो बच्ची शक्कर की गोली जिसे लेमनचूस कहते हैं खा रही थी. बापू ने उससे उसी की तोतली भाषा में बात करते हुए कहा- तो अच्छा अकेले-अकेले. बच्ची ने मुंह से लेमनचूस की गोली निकालकर बापू के मुंह में डाल दिया. बापू भी उस मिठास का आनंद लेने लगे. मोर्चा वाले यह दृश्य देख रहे थे, विरोध छोड़कर बापू के चरणों में गिर गए.

दलितों के घर में भोजन करने से पहले आचरण पवित्र करिए नहीं तो ये निरा ढोंग आपको आपकी नजरों में ही ले डूबेगा. दलितों के उद्धार की बात भगवान राम के बिना पूरी नहीं होती. राम देश के रोम-रोम में हैं. हमारे पर्यावास के पंचभूतों में हैं. वे दलितों का उद्धार करने चक्रवर्ती सम्राट बनकर नहीं गए. पहले वनवासी का जामा पहना उनके जीवन की मुश्किलों को स्वयं के आचरण में उतारा तब उनके पास गए. निषादराज केवट को भरत सा स्नेह दिया. चित्रकूट के कोल किरातों को अपने सहोदर सा माना. सबरी के आश्रम में अपना फूड पैकेट लेकर नहीं गए उसके जूठे बेर खाए, जैसे गांधी ने उस नन्हीं बालिका के जूठे लेमनचूस को मुंह में लेकर आनंद लिया. 

दलितों के सशक्तिकरण का जो काम राम ने किया इसीलिए वो भगवान हैं. राम दोहाई देने से पहले उनके आचरण के इस पहलू पर भी मनन करिए. राजनीति ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में तर जाएंगे. वोट के लिए दलित प्रेम का ये प्रपंच छोड़िए. वास्तव में समाज की समरसता को लेकर चिंता है तो गांधी के उसी मिशन को फिर यथार्थ के धरातल पर उतारिए, जिसका संकल्प उन्होंने 1932 में यरवदा जेल में लिया था आपके और आपकी राजनीति के तरने का और इस समाज के मुख्यधारा में उबरने का एकमात्र यही तरीका है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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