जिंदगी हो या फुटब़ॉल झेलना आना चाहिए
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जिंदगी हो या फुटब़ॉल झेलना आना चाहिए

अमेरिकी पत्रकार जिएऩी लासकास के खुलासे ‘गेम ब्रेन’ पर बनी फिल्म कनकशन, फुटब़ॉल (अमेरिकन रग्बी) की इसी टक्कर को दिखाती है. किस तरह अपने जमाने के चैंपियन सिर दर्द की बीमारी से जूझ रहे हैं औऱ पिट्सबर्ग का एक खिलाड़ी जो शहर का चहेता था, अकेले जिंदगी जीते हुए अपनी कार में मरा हुआ पाया जाता है. 

जिंदगी हो या फुटब़ॉल झेलना आना चाहिए

‘जानते हो मेरे पिताजी मुझसे क्या कहते थे, इस दुनिया में अगर कोई नंबर वन पर है तो वो ऊपर वाला है औऱ फिर कुछ है तो वो है फुटबॉल ‘. 2015 में आई फिल्म ‘कनकशन’ का यह संवाद आपको फुटबॉल के प्रति लोगों की दीवानगी दिखाता है. जुलाई 2006 की बात है. कॉलेज कैंपस के जरिए हम 12 लोगों को देश के एक बड़े मीडिया संस्थान में नौकरी मिल गई थी. कॉलेज अभी पूरा नहीं हुआ था, आखिरी परीक्षा देना बाकी थी जिसके बारे में हमने इंटरव्यू के दौरान ही जिक्र कर दिया था. कंपनी के वरिष्ठों ने परीक्षा दिए जाने की सहमति भी जता दी थी. मैं संस्थान में साल भर से काम कर रहा था. मेरा प्रोबेशन होने वाला था, दूसरे शब्दों में कहें तो नौकरी पक्की होने वाली थी.

बाकी के 11 ने आखिरी सेमेस्टर में नौकरी पकड़ी थी. परीक्षा देने के लिए हमने अनुमति मांगी जिसे देना नहीं देना पूरी तरह हमारे बॉस पर निर्भर था. लेकिन नौकरी देते वक्त परीक्षा के लिए हां कहने वाले बॉस, बाद में मुकर गए और काफी मिन्नतों के बाद भी छुट्टी नहीं दी. परीक्षा देना भी ज़रूरी था. मेरी उलझन दूसरी थी. मुझे लग रहा था कि मैं अलग से छुट्टी मांगू या दोस्तों के साथ रहूं क्योंकि अलग से छुट्टी लेने पर मेरा काम आसान हो जाना था. लेकिन मैंने दोस्तों के साथ चलना बेहतर समझा क्योंकि हम सभी जवान थे और नौकरी को लेकर समझ और परिपक्वता की भी कमी थी.

कुल मिलाकर वरिष्ठ के छुट्टी देने से इंकार करने के बावजूद हम परीक्षा देने चले गए. जब वापस लौटे तो वो जुलाई का महीना था. मेरा एक मित्र जिसकी शादी भी हो गई थी, वो अपनी पत्नी और घऱ के पूरे सामान के साथ आ गय़ा था . उसे शहर औऱ नौकरी रास आ गई थी वो वहीं बसने का मन बना रहा था. लेकिन अपनी जिंदगी की स्क्रिप्ट आप नहीं लिखते, वो कोई और लिखता है. हम सभी को नौकरी से निकालने का फरमान जारी कर दिया गया था. वजह साफ थी अनुशासनहीनता.

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हम सभी अपने सामान को बांध कर जाने की तैयारी कर रहे था. दो दिन बाद हमें शहर को अलविदा कहना था. वो जवानी की बेफिक्री थी या कुछ औऱ था, मेरे कई दोस्तों को कोई खास फर्क नहीं पड़ा था. मुझे फर्क पड़ा था क्योंकि मुझे निकाले जाने से बेहतर छोड़ना शब्द भाता है. लेकिन हकीकत यही थी की बेआबरू होकर कूचे से निकले थे.

रात में दो बज रहे होंगे. हम सभी दोस्त फुटबॉल का फाइनल देख रहे थे. हमारे लिए उस पूरे सदमे के दौरान सबसे बड़ी राहत वो मैच ही था जिसके जोश ने हम सभी को थोड़ा सा सुकून दे दिया था. शिफ्टों में उलझे जीवन में अगर नौकरी नहीं जाती तो वो मैच हम साथ में कभी नहीं देख पाते. तो साथ में मैच देख कर, चीख कर हम जोश के साथ शायद अपने अंदर की भड़ास भी निकाल रहे थे. फ्रांस के मैच जीतने की संभावनाएं प्रबल थी. अचानक फ्रांस के चहेते खिलाड़ी जिनेदिन जिदान ने इटली के खिलाड़ी मार्को मेत्राज्जि को अपने सिर से पेट मे ऐसी टक्कर मारी की वो उछल कर दूर जा गिरा. आखिरी पलों में जिनेदिन को लाल कार्ड दिखाया गया और वो मैदान के बाहर थे. स्टेडियम में जनता और यहां हम सदमें में थे. चीखते हुए हमारे चेहरे अचानक खामोश हो गए थे. हम उस हार को शायद अपने साथ जोड़ने में लगे हुए थे. फ्रांस हार गया था.

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अगले दिन कई तरह की बातें सामने आई कि आखिर जिदान ने क्यों अपना सिर से विपक्षी टीम के खिलाड़ी के सीने पर मारा था. हम लोग जिदान का समर्थन कर रहे थे क्योंकि कहीं ना कहीं हमें लग रहा था कि हमने भी अपने मन की करते हुए जिदान की ही तरह नौकरी को टक्कर मारी. हममें से कई लोगों के घरवाले फ्रांस की तरह सदमे में थे क्योंकि लगी लगाई नौकरी का यूं चले जाना उनके लिए हार की तरह था. कई लोग यह सोच रहे थे कि मीडिया की दुनिया बड़ी छोटी है और नौकरी से निकाले जाने की बात सब जगह पहुंच जाएगी और हमारा संघर्ष और बढ़ने वाला है.

दरअसल फुटब़ॉल की तरह ही जिंदगी में हेडर का बहुत योगदान होता है. सही गर्दन घुमा कर और उछल कर आप बॉल को टक्कर मारते हैं तो वो गोल में भी बदल सकती है. लेकिन उसके अपने नुकसान भी होते हैं. वो हेडर जिसके जरिए आप अवसर को गोल में बदलते हैं या उसे टक्कर मारते हैं, दोनों ही सूरत में आपको नुकसान पहुंचाता है. क्योंकि टक्कर हमेशा दोनों टकराने वाली चीजों को हिलाती है.

अमेरिकी पत्रकार जिएऩी लासकास के खुलासे ‘गेम ब्रेन’ पर बनी फिल्म कनकशन, फुटब़ॉल (अमेरिकन रग्बी) की इसी टक्कर को दिखाती है. किस तरह अपने जमाने के चैंपियन सिर दर्द की बीमारी से जूझ रहे हैं औऱ पिट्सबर्ग का एक खिलाड़ी जो शहर का चहेता था, अकेले जिंदगी जीते हुए अपनी कार में मरा हुआ पाया जाता है. उसके बाद एक के बाद एक कई खिलाड़ी इसी तरह मौत को गले लगा लेते हैं या किसी कारणवश मर जाते हैं. फिल्म का नायक डॉ ओमालू जब इस बात की गहराई में जाता है तो उसे पता चलता है कि किस तरह हेडर की वजह से खिलाड़ियों के दिमाग मे खून का रिसाव होने लगा है, जो इतने छोटे छोटे घावों के रूप में है कि उस पर किसी की नज़र गई ही नहीं. फिल्म में नायक एक जगह बताता है कि कठफोड़वा दिन भर में एक पेड़ पर छेद करने के लिए हज़ारो बार टक्कर मारता है, एक बैल अपने सर से कितनी भी भारी चीज़ को टक्कर मार कर उछाल सकता है क्योंकि उनके सिर में उस शॉक को झेलने की व्यवस्था है लेकिन हम इंसानों के सिर में इतनी तेज टकराव को झेलने की ताकत नहीं है. इसलिए लगातार हो रहे झटकों की वजह से नामी खिलाड़ी कम उम्र में मरने लगे हैं. इस बीमारी को क्रोनिक ट्रॉमेटिक इनसिफेलोपैथी कहा गया लेकिन नेशनल फुटब़ॉल लीग ने इस बीमारी को मानने से इंकार कर दिया. वजह - उन्हें लगता है कि इससे उनका बाज़ार गड़बड़ा जाएगा. फुटबॉल की लोकप्रियता उस संवाद में दिखती है जिसमें नेशनल फुटबॉल लीग का अधिकारी, नायक से बोलता है “एन एफ एल को हफ्ते में एक दिन मिला है, वही दिन चर्च के पास भी था, लेकिन अब वो दिन हमारा है - संडे.”

दरअसल फुटब़ॉल जिंदगी की तरह संघर्ष का खेल है जिसमें अलग अलग मौके पर हुई टक्कर हमारे दिमाग में कई घाव कर देती है, कोई उसे झेल जाता है कोई रह जाता है. यही वजह है कि आज सबसे ज्यादा अमीर खेल की शुरूआत गरीबी से हुई है. इसे खेलने वाले गरीब लोग थे. क्योंकि एक गेंद है औऱ उसके साथ भिड़ते हुए कई लोग. इस खेल की खूबसूरती ही यही थी कि बगैर तामझाम के बस एक गेंद उठाई और मैदान में उछाल दिया. अब सबका उस गेंद का पाने का अपना संघर्ष है. मुझे याद है, बचपन में हमारी कॉलोनी में एक छोटा सा मैदान था जहां हर बच्चा अपने अपने खेल खेलता था. उसी मैदान में सुअर भी अपना काम करते रहते थे. घास उघाई नहीं गई थी बल्कि बेतरतीबी से ऊग जाती थी. जैसे ही बारिश होती थी हम सभी दोस्त फुटब़ॉल लेकर मैदान में कूद पड़ते थे और खेल फुटब़ॉल से शुरू होकर रग्बी पर खत्म होता था. एक बार मेरे एक दोस्त ने आत्मविश्वास के चलते एक टीम से मैच बद लिया. जब उसके खिलाड़ी सामने आए तो हमने उनका मज़ाक

बनाना शुरू किया क्योंकि वो लोग पेशेवर अंदाज़ में पूरी किट के साथ मैदान में मौजूद थे. हमारे लिए तो फुटबॉल का मतलब ही कुछ और था. दरअसल हम सभी अंदर से हकीकत जानते थे जिसे हम उनका मज़ाक बना कर छिपाने की कोशिश कर रहे थे. आखिर मैच शुरू हुआ और विश्वास कीजिए हम फुटबॉल को अपनी तरफ के हाफ से आगे भी नहीं ले जा पाए, बस गोल खाते रहे. उस टीम ने हम पर कुल मिलाकर अनगिनित गोल किए. जब हार कर हम लोग बैठे हुए थे तो हम दुखी कम थे और हंस ज्यादा रहे थे. अब हम एक दूसरे का मज़ाक बना रहे थे. लेकिन वो किट ना होने की टक्कर हमें लगी थी जिसे हमने हंस कर झेलना ही मुनासिब समझा था. शायद उस दिन हमें पहला सबक मिला था कि जिंदगी की फुटब़ॉल लेकर जब हम दुनिया के मैदान में उतरेंगे तो ऐसी कई टक्कर झेलने के लिए तैयार रहना होगा.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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