देखो बॉस हमें मत बताओ
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देखो बॉस हमें मत बताओ

जागरुकता आजकल फेसबुक से होते हुए इंडिया गेट पर जा पहुंची है. पहले इंडिया गेट का उपयोग मौसम खुशगवार होने के दौरान होता था. जब लोग अपने वालों के साथ इस खुशनुमा माहौल का आनंद उठाने आते थे. 

देखो बॉस हमें मत बताओ

मीडिया का सबसे बड़ा फायदा क्या है? मीडिया का सबसे बड़ा फायदा ये है कि इससे जुड़े रहने वाला ‘व्यक्ति’ जागरुक हो जाता है . मीडिया का काम भी यही है लोगों को जागरुक करना. इतना जागरुक कर देना कि वो सोते हुए भी जागरुक ही रहे. अब तो सोशल मीडिया नामक स्वचालित संस्थान भी इस काम में हाथ बंटा रहा है, वो पूरी शिद्दत के साथ दुनिया को जागरुक करने में लगा हुआ है. लोगों ने भी ज़िद पकड़ ली है कि वो जागरुक होकर ही मानेंगे. सरकार भी अपनी तरह से जागरुक करने का भरसक प्रयास कर रही है. पिछले कई सालों से देश के हर नागरिक को साक्षर बनाने का प्रयास चल रहा है. बढ़िया है इससे कम से कम वो अपने शोषण पर अंगूठा लगाने से तो बच ही जाता है. जागरुक करने की पहल में हमने सर्वहारा वर्ग को गिनती करना सिखा दिया.

बस दिक्कत ये होती है कि व्यक्ति जागरुक हो जाता है तो उसमें समझ आ जाती है फिर वो समझने लग जाता है और समझता ये है कि मालिक ने उसे जो दिया वो सही नहीं दिया, पूरा नहीं दिया. वो जब जानता नहीं था तो जो उसे मिलता था उसे पाकर वो कबीर के दोहे के साथ ठंडा पानी पी कर गटक जाता था. अब उसे मालूम चल गया लेकिन वो कर तो कुछ नहीं सकता है, बस कुढ़ सकता है तो वो कुढ़ता रह जाता है.  ऐसी जागरुकता उसे मदर इंडिया के बिरजू की तरह बना देती है जो कुछ कर तो सकता नहीं है, बस जान सकता है कि मेरे साथ गलत हो रहा है.

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आदिवासी पहले एक किलो नमक के एवज में आराम से बुर्जुआ वर्ग को एक किलो चिरोंजी वगैरह दे जाया करते थे. उनके जीवन में नमक भी घुला हुआ था और वो आराम से नमकीन जिंदगी का आनंद उठा रहे थे. फिर कुछ लोगों ने उन्हे ये बताया कि चिरौंजी के बदले नमक देना सही नहीं है. हो गई जागरुकता. अब नमक मिलना भी बंद हो गया और चिरौंजी भी जंगल से शहर में पहुंचती रही. जो जिंदगी में नमक था वो भी नहीं रहा. गलत जो था वो तो मालूम चल गया लेकिन सही क्या हो ये तो बताया ही नहीं. फिर आदिवासियों को बताया की वनोपज पर कब तक जीवित रहोगे इससे विकास नहीं होता है. किसानी करो, जंगल से बाहर निकलो हम तुम्हे सभ्य बनाएंगे. तुमसे खेती करवाएंगे. आदिवासी जंगल से बाहर होने तो लग गए लेकिन किसान कैसे बने, सभ्य कैसे बने ये मालूम ही नहीं चल सका. 

किसान को जागरुक बनाया गया और उससे कहा गया कि खेत बेचो, किसानी बेचो और शहरी बनों, सभ्य बनो. खेत जोतोगे तो क्या पाओगे. खेत बेचो और पैसे पाओ. जागरुक बनो. किसान जागरुक हुआ खेत बिक गए पैसा भी आ गया. लेकिन इतने पैसों का करना क्या है इसको लेकर वो जागरुक हो पाता इससे पहले पहले उसकी औलाद ने अपनी जागरुकता दिखा दी. गाड़ी आई, कोठी बनी, पैसे खत्म हुए जागरुक हो गए.

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जागरुकता आजकल फेसबुक से होते हुए इंडिया गेट पर जा पहुंची है. पहले इंडिया गेट का उपयोग मौसम खुशगवार होने के दौरान होता था. जब लोग अपने वालों के साथ इस खुशनुमा माहौल का आनंद उठाने आते थे. फिर फेसबुक ने उस वर्ग में जागरुकता फैलाई जिसकी जागरुकता नए आइपेड और अलग अलग गेजेट्स को लेकर रहती है. ये युवा वर्ग है जो हर विषय को लेकर उत्तेजित भी जल्दी होता है, जो हर मुद्दे को लेकर रोमांटिसाइज़ भी आसानी से हो जाता है. हमारे देश की राजनीति से लेकर उद्योग जगत सब के सब इस वर्ग को अपने अपने तरीके से जागरुक करने के लिए आमादा है. ये वर्ग आजकल अपनी जागरुकता का प्रदर्शन इंडिया गेट पर कर रहा है.

एक जागरूकता इन दिनों सिनेमा को लेकर भी आई है. आज हर प्रकार का दर्शक वर्ग फिल्म के फर्स्ट हाफ, सेकेंड हाफ की चर्चा, फिल्म के तकीनीकी पक्ष के बारे में अपनी राय, किरदारों की अदाकारी के बारे मे विचार देने लगे है. फिल्म समीक्षक कुनबे में इन दिनों भगदड़ मची हुई है कि ये काम तो हमारा था. इसके जरिये हम रोटी कमाते थे और लोगों को सिनेमा के प्रति जागरुक बनाते थे लेकिन ये क्या, ये तो ज्यादा जागरुक हो गए. ये लोग तो फिल्म को स्टार भी देने लगे हैं. हालांकि लोगों की फिल्मों के प्रति जागरुकता बढ़ने के बावजूद भी रेस 2, जब तक है जान,ग्रांड मस्ती जैसी कई फिल्में सौ करोड़ कमा रही हैं. कैसे – पता नहीं.

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सबसे ज्यादा जागरुकता तो जागो ग्राहक जागो से फैली जिसके बाद लोग झाड़ू और फिनाइल की एक्सपाइरी तक देखने लग गए. इससे ये हुआ की दुकानदार भी जाग गया और वो ग्राहक को एक दुश्मन की भावना से देखने लग गया. हो गई जागरुकता.

जागरुकता कई प्रकार से आती है और आई है. हमारे ज़माने में हमारे मां बाप एक कपड़े का लट्ठा लाते थे और सब के लिए कपड़े सिलवाते थे. हम जागरुक नहीं थे तो सभी भाई बहन उन कपड़ों से बनी हुई नाना प्रकार की ड्रेस पहनकर त्यौहारों पर इतराया करते थे. अब बच्चे जागरुक हो गए हैं उन्हे अपनी पसंद का कपड़ा चाहिए. मां बाप भी दिला रहे हैं, सामाजिक प्रतियोगिता के इस दौर में जागरुकता आपके रहने के तौर तरीके, रख रखाव से ज़ाहिर होती है. अब छात्र जागरुक हो गए हैं वो इस उद्देश्य के साथ कक्षा में आते हैं कि अपने एंड्राइड युक्त मोबाइल के ज़रिये अपने शिक्षक के ज्ञान की बोलती बंद कर सकें.

 जागरुकता इस बारे में है कि हम बता सकें कि सुनो बॉस हमें मालूम है कि डेंगू का मच्छर जब काटता है तो प्लेटें कम होती है. हम जानते हैं कि नक्सली का मतलब आदिवासी होता है. हमें ये भी मालूम है कि लड़कियों के साथ जो बर्ताव हो रहा है वो ग़लत हो रहा है और हम इसका विरोध करने इंडिया गेट पर जाएंगे, वहां मोमबत्ती जलाएंगे. चूंकि मोमबत्ती रात में ही जलाई जाती है इसलिए इस विरोध प्रदर्शन में बड़ी दीदी नहीं जा पाएंगी लेकिन कोई बात नहीं हम तो जा ही रहे हैं, दीदी की लड़ाई लड़ने के लिए. हम जागरुक हैं इसलिए हम जानते हैं कि किसी फिल्म को क्लासिक का दर्जा मिलने के लिए उसका कई सौ करोड़ कमाना कितना ज़रूरी है. क्योंकि कमाई ही सफलता का मापक पैमाना है. हमें समझाने की कोशिश मत कीजिए - हम ग्राहक हैं और सब जानते हैं. आखिर हम जागरुक हैं.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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