फूलपुर, गोरखपुर उपचुनाव ने तय कर दी है 2019 लोकसभा चुनाव की दिशा
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फूलपुर, गोरखपुर उपचुनाव ने तय कर दी है 2019 लोकसभा चुनाव की दिशा

प्रधानमंत्री मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी 2019 के लिए उत्तर प्रदेश से बड़ी उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन इन नतीजों ने पार्टी को अपनी रणनीति पर दोबारा से विचार करने पर मजबूर कर दिया है. 

 फूलपुर, गोरखपुर उपचुनाव ने तय कर दी है 2019 लोकसभा चुनाव की दिशा

राजनीति अनिश्चिताओं का खेल है जिसमे किसी भी चीज़ को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त रहना ठीक नहीं होता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे हैं जिसने बीजेपी की नींद उड़ा दी हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के विधान परिषद चले जाने के कारण दोनों सीटों पर चुनाव कराना पड़ा था. लेकिन किसी ने भी नहीं सोचा था बीजेपी को न केवल फूलपुर सीट, बल्कि अपनी पारंपरिक सीट गोरखपुर से भी हाथ धोना पड़ेगा. दोनों ही सीटों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों ने शानदार जीत हासिल की है, जिनको बसपा का समर्थन भी प्राप्त था. वहीं, कांग्रेस एक बार फिर अपने प्रदर्शन में सुधार नहीं कर पाई और दोनों ही सीटों पर उसको अपनी ज़मानत ज़ब्त करानी पड़ी. 

इन चुनाव नतीजों के बाद कई तरह के राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं और 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले हुए इन चुनाव ने सभी दलों को कुछ न कुछ संदेश दिया है. लेकिन सबसे बड़ा संदेश केंद्र और राज्य की सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी के लिए है जिसने एक साल पहले ही प्रदेश के विधानसभा चुनावों में लगभग तीन चौथाई सीटों पर अपना परचम लहराया था. एक साल के अंदर ही आखिर ऐसा क्या हो गया कि बीजेपी अपनी सुरक्षित सीट गोरखपुर में भी जीत दर्ज नहीं कर पाई? 

इनमें कुछ कारण बहुत महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं: 

इंद्र धनुषी गठबंधन का विघटन
2014 का लोकसभा चुनाव हो या 2017 का विधानसभा चुनाव, उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सफलता के पीछे उसका इंद्र धनुषी गठबंधन था जो मोदी और अमित शाह बना पाने में कामयाब हुए थे. पारंपरिक रूप से ब्राह्मण-बनिया की पार्टी माने जाने वाली बीजेपी को प्रदेश में मोदी-शाह की जोड़ी ने ‘सम्मिलित हिंदुत्ववादी’ दल के रूप में प्रस्तुत किया जिसमे सभी जातियों की प्रतिनिधित्व है. सपा और बसपा के ऊपर यह आरोप लगते थे कि सत्ता में रहते हुए यह दल पिछड़े वर्ग और दलितों में भी क्रमशः केवल यादवों एवं जाटवों को ही महत्त्व देते हैं जिस कारण अन्य पिछड़ी एवं दलित जातियों को सत्ता में उनका हिस्सा नहीं मिल पाता है.

अविश्वास प्रस्ताव और उपचुनावों के नतीजे भाजपा के लिए सबक

इसी बात का फ़ायदा उठाकर बीजेपी ने गैर-यादव पिछड़े वर्ग और गैर-जाटव दलितों को पार्टी से जोड़ने का काम चालू किया और उन समुदाय से आए हुए नेताओं को संगठन में दायित्व देने की मुहिम भी चलाई गई. प्रधानमंत्री मोदी के स्वयं पिछड़े वर्ग के होने की वजह से पार्टी को उन जातियों का व्यापक समर्थन भी मिला. 

हालाकिं सत्ता में आने के बाद से परिस्थितियों में बदलाव आने लगे. बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाकर के प्रदेश में सभी जातियों को साधने की कोशिश की थी. पार्टी का मानना था कि सन्यासी होने के कारण उनको किसी भी जाति से जोड़ कर नहीं देखा जाएगा और वो एक समावेशी हिंदुत्व के उदाहरण के रूप में नज़र आएंगे. लेकिन ऐसा हो न सका. भले ही योगी अपने आप को जातिगत भावनाओं से ऊपर मानते हो लेकिन प्रदेश में यह संदेश जाने लगा है कि एक बार फिर से ‘सवर्ण शासन’ आ गया है, विशेष रूप से ‘ठाकुर शासन’.

किसके लिए सीख लेकर आए उत्तर प्रदेश के नतीजे

सहारनपुर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों में में हुए जातिगत दंगो और हिंसा ने इस अनुभूति (परसेप्शन) को और मज़बूत कर दिया. विपक्ष ने इस मुद्दे को पूरे ज़ोर-शोर से उठाया. सूबे में हुए एनकाउंटर पर भी ऐसे आरोप लगे के मरने वाले ज़्यादातर पिछड़ी जातियों से हैं और पुलिस क्षत्रिय समुदाय से. कुछ इस तरह के आरोप प्रदेश में हुई नियुक्तियों के लाकर भी लगे. इन्ही कारणों से फूलपुर और गोरखपुर में बीजेपी का इंद्र धनुषी गठबंधन टूटता नज़र आया.

विपक्षी एकता
वैसे तो 2014 चुनावों के बाद से ही बीजेपी के खिलाफ सभी विपक्षी दलों के एक साथ आने की बात हो रही थी, लेकिन परोक्ष रूप से यह संभव नहीं हो पाया था. कोंग्रेस-जद(यू) एवं राजद द्वारा 2015 में भले ही बिहार में इसका सफल प्रयोग किया गया हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में 2017 में यह पूरी तरह से असफल साबित हुआ था जब सपा-कांग्रेस के गठबंधन को बीजेपी ने बड़े अंतर से हरा कर सरकार बनाई थी. ऐसे में एक दुसरे के धुर-विरोधी समझे जाने वाले दल सपा और बसपा का एकसाथ आने का प्रयोग नया समीकरण बनाने में सफल हुआ जिसने पिछड़े दलित एवं मुस्लिम वोट अपने पाले में ला कर बीजेपी को चारों खाने चित्त कर दिया. मायावती और अखिलेश यादव का एक साथ आना बीजेपी के लिए प्रदेश को बड़े वर्गों का वोट एक खाते में जाने जैसा था.

बीजेपी समर्थकों की उदासीनता
इस चुनाव का मत प्रतिशत अन्य चुनाव की अपेक्षा काफ़ी कम था, जिसका नुकसान बीजेपी को झेलना पड़ा. एक ओर जहाँ शहरी मतदाता और सवर्ण जातियों का वोटर इस चुनाव में वोट नही डालने आया वही ग्रामीण क्षेत्रों और दलितों, मुसलमानों ने जम कर वोट डाला जिसके कारण बीजेपी को सीट गवानी पड़ी. परिणाम देखकर लगता है की बीजेपी का पारंपरिक वोटर उससे नाराज़ है और उसने अपनी नाराज़गी इस चुनाव से ज़ाहिर कर दी है. इसके अलवा कई कार्यकर्ताओं ने यह आरोप लगाया है कि सरकार में उनकी सुनी नहीं जा रही है और आज भी पिछली सरकारों की तरह व्यवस्था जारी है. कई समर्थकों का यह भी मानना है कि मंत्री और विधायक अपने क्षेत्रों में जाते नहीं है, और यदि जाते हैं तो काम ठीक से नहीं करवा पा रहे है.

क्या 2019 में भी बीजेपी का यही हाल होगा?
प्रधानमंत्री मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी 2019 के लिए उत्तर प्रदेश से बड़ी उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन इन नतीजों ने पार्टी को अपनी रणनीति पर दोबारा से विचार करने पर मजबूर कर दिया है. दरअसल अब पार्टी और सरकार को अपनी नीतियों और कार्यशैली में व्यापक परिवर्तन लाना होगा. सबसे पहले तो पार्टी को अपने इंद्र धनुषी गठबंधन को फिर से मज़बूत करना होगा. इसके लिए दलित,पिछड़े वर्ग के लोगों को सत्ता में महत्वपूर्ण स्थान देने होंगे ताकि सरकार की छवि एक समावेशी और ‘सबका साथ, सबका विकास’ वाली सरकार के रूप में बने.

बीते समय में दलितों के ऊपर हुए अत्याचार और अम्बेडकर की मूर्तियों को तोड़े जाने वाली घटनाओं की वजह से सरकार की छवि धूमिल हुई है. ऐसे में सरकार को समाजिक रूप से कमज़ोर वर्गों की सुरक्षा का विशेष ध्यान देना पड़ेगा और कानून-व्यवस्था को ख़राब करने वालों के ऊपर सख्त कार्यवाही करनी पड़ेगी. प्रदेश में भले ही बड़े प्रोजेक्ट का उदघाटन हुआ हो लेकिन आम जीवन से जुड़ी ही चीज़ों जैसे कि सड़क निर्माण, मोहल्ले की सफाई, अस्पताल में दवाओं अदि का विशेष ध्यान देने की ज्यादा ज़रुरत है जिससे जनता रोज़ रूबरू होती है.

योगी को अपनी विधायकों/सांसदों को भी निर्देश देना होगा कि वो अपने क्षेत्रों में जा कर जनता की समस्याओं का समाधान करें. यदि मूलभूत विषयों पर ध्यान नहीं दिया गया तो पार्टी के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने और सरकार बनाने में बड़ी कठिनाई होगी, क्योंकि दिल्ली का रास्ता लखनऊ होकर ही जाता है.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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