क्या खबरें पत्रकारों के खून से लिखी जाएंगी
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क्या खबरें पत्रकारों के खून से लिखी जाएंगी

यह पत्रकार ही होते हैं जो बहुमत की लानत-मलामत झेलने के बाद भी नक्सली और आतंकवादियों तक के मानवाधिकार की बात करते हैं. उनका पेशा ही ऐसा है कि उन्हें अंतत: मानवता के साथ खड़ा होना पड़ता है. 

क्या खबरें पत्रकारों के खून से लिखी जाएंगी

नई दिल्लीः अभी-अभी वह मर्मस्पर्षी वीडिया देखा जिसे दूरदर्शन के कैमरामैन मोर मुकुट शर्मा ने शूट किया. एक मिनट के वीडियो में गोलियां दागे जाने की आवाज आ रही है और मृत्यु को सामने देखकर वह कह रहे हैं- अब बचना मुश्किल है. उन्होंने यह वीडियो अपने अंतिम संदेश की तरह अपनी मां के लिए बनाया था. लेकिन ईश्वर का शुक्र है कि बुरी तरह घायल होने के बावजूद उनके प्राण बच गए. हालांकि उनके साथी अच्युतानंदन साहू की मौत हो गई.

वे दंतेवाड़ा में नक्सली हमले का शिकार बने. वह रिपोर्टिंग पर गए थे. इससे पहले इसी महीने दूरदर्शन के एक अन्य रिपोर्टर राजेश राज भी जब चुनाव कवरेज पर गए थे, तब उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया. राजेश को गंभीर चोटें आई थीं. वह अस्पताल से तो छुट्टी पा गए हैं, लेकिन उनके सिर में लगी गंभीर चोटों से उबरने में उन्हें वक्त लगेगा.

इन घटनाओं के राजनैतिक और पत्रकारीय पहलू पर चर्चा करनी ही होगी, लेकिन उसके पहले मानवीय पहलू पर बात करनी जरूरी है. जब कोई पत्रकार इस तरह के हादसे का शिकार होता है तो दूरदर्शन के साथी पत्रकार पहला सवाल यह करते हैं कि उनमें से ज्यादातर का बीमा नहीं है. एक पत्रकार ने तो यहां तक कहा कि जब पूरे देश में 12 रुपये साल में बीमा उपलब्ध है तब देश के आधिकारिक ब्रॉडकास्टर के पत्रकार की इतनी खराब दशा क्यों है.

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जाहिर है दंतेवाड़ा में जो घटना हुई उसके बाद पत्रकार के परिवार को कुछ मुवावजा दिया जाएगा. लेकिन क्या इसकी पूरी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए. क्यों नहीं हर संस्थान को, न सही पत्रकार, कम से कम अपने कर्मचारी के विकट समय के लिए कुछ इंतजाम करना चाहिए. इस बात से क्यों ज्यादा फर्क पड़ना चाहिए की वह कर्मचारी पक्का था या ठेके पर रखा गया था. दोनों ही स्थिति में उसे काम तो वही करना था. नक्सलियों की गोली और सड़क पर होने वाली दुर्घटना पक्के और ठेके वाले कर्मचारी का पहचान पत्र देखकर तो नहीं आती.

इस मानवीय पहलू के बाद जरा पत्रकारिता के पहलू को देखिए. पत्रकारिता की शुरुआत से लेकर अब तक पत्रकार सिर्फ सत्य और नैतिक बल के दम पर ही विपरीत हालात में रिपोर्टिंग करने जाता है. उसके सीने पर किसी तरह का बख्तर न बंधा रहना और हाथ में किसी तरह का हथियार न होना ही उसकी सुरक्षा की सबसे बड़ी गारंटी है. एक पत्रकार के नाते मैंने कश्मीर में रिपोर्टिंग के दौरान यह अनुभव किया कि अगर आप खाकी में नहीं हैं, सरकारी सुरक्षा में नहीं हैं, हथियारों से लैस नहीं हैं, तो आप पर हमला होने का सबसे कम अंदेशा है.

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रिपोर्टिंग के दौरान सड़क दुर्घटना में घायल हुए दूरदर्शन के पत्रकार राजेश राज

पत्रकार इसी भरोसे पर दुनिया की खराब से खराब जगहों पर रिपोर्टिंग करते रहे हैं. ऐसी बहुत सी मिसाल हैं जब दुर्दांत आतंकवादी, डकैत और तानाशाह पत्रकार की इस हैसियत का लिहाज करते रहे हैं. इन लोगों ने न सिर्फ पत्रकारों को इंटरव्यू दिए, बल्कि उनकी सुरक्षा को किसी तरह की आंच नहीं आने दी.

लेकिन जो दंतेवाड़ा में हुआ, इससे यह भरोसा टूटा है. इस वारदात में जो सिपाही शहीद हुए, उनके पास कम से कम अपने बचाव के लिए एक बंदूक तो थी. वे किसी भी हमले का जवाब देने की कोशिश तो कर सकते थे. बल्कि उन्हें तो खाकी पहनते ही जान न्योछावर करने को तैयार रहना होता है. पत्रकार की स्थिति अलग है. वह भारतीय है लेकिन भारत सरकार का आदमी नहीं है. अगर उसे मौका मिले तो वह अर्द्धसैनिक बल और नक्सलवादियों दोनों की बात सुनेगा और दोनों को प्रसारित/ प्रकाशित करेगा. करेगा क्या, बल्कि करता ही है.

यह पत्रकार ही होते हैं जो बहुमत की लानत-मलामत झेलने के बाद भी नक्सली और आतंकवादियों तक के मानवाधिकार की बात करते हैं. उनका पेशा ही ऐसा है कि उन्हें अंतत: मानवता के साथ खड़ा होना पड़ता है. जब वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें जनता की दीर्घकालिक निंदा का सामना करना पड़ता है.

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फोटोः पीटीआई

लेकिन नक्सलियों ने मर्यादा के इस परदे को तार-तार कर दिया. उन्होंने ‘बाबा भारती का घोड़ा’ चुरा लिया. अगर उनके शीर्ष कमांडर इस घटना पर अफसोस नहीं जताते और माफी नहीं मांगते तो इस बात का डर बना रहेगा कि वे दुबारा भी ऐसा कर सकते हैं. उन हालात में मीडिया वहां जाने से बचेगा.

इसकी सबसे बड़ी कीमत खुद नक्सलवादियों और उनके समर्थकों को चुकानी होगी. अगर जंगल में सुरक्षा बल अपनी पूरी ताकत का प्रदर्शन करेंगे तो उसे मानवता के खिलाफ बताने के लिए कोई पत्रकार वहां मौजूद नहीं होगा. तब उस बहस को और बल मिलेगा जो कहती है कि माओवाद से निपटने में वायु मार्ग का भी इस्तेमाल किया जाए. और वैसे हालात में नक्सलवादियों के साथ आदिवासी भी सख्ती की चपेट में आ जाएंगे. लेकिन उनकी बात उठाने को भी वहां कोई मीडिया नहीं होगा.

इन हालात में वह भेद भी खत्म हो जाएगा जो सरकार अब तक आतंकवाद और माओवाद में करती रही है. अभी भी सरकारी तंत्र यही मानता है कि सारे नक्सल देश के दुश्मन नहीं हैं और उन्हें मुख्यधारा में लाया जा सकता है. सर्वहारा का जो वे नारा लगाते हैं, उसे भी बुद्धिजीवी वर्ग की थोड़ी सहानुभूति मिलती है. लेकिन अब वे जो कर रहे हैं वह विशुद्ध रूप से बर्बरता है, जिससे निबटा नहीं जा सकता, सिर्फ कुचला जा सकता है.

हालांकि पत्रकार उन हालात में भी सत्य के साथ रहने की कोशिश करेगा और अन्याय को अन्याय ही कहेगा. लेकिन इतना तय है कि ऐसे हालात में खबरें कलम की स्याही या कैमरे की रोशनी की जगह पत्रकार के खून से लिखी जाएंगी. पत्रकारिता को इस खूनी के खेल लिए तैयार रहना होगा. और पत्रकारिता प्रतिष्ठानों को पत्रकारों को वैसी ही सुविधाएं और मुआवजे तय करने होंगे, जैसे सैनिकों के होते हैं.

(लेखक पीयूष बबेले जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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