सूख गया भवानी दादा की यादों का जंगल
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सूख गया भवानी दादा की यादों का जंगल

जब हम ऐसी रिपोर्ट पढ़ते हैं कि बड़ी आलीशान कार वाले लोग सड़क पर ज्यादा उद्दंडता करते हैं तो लगता है कि क्या वह सही नहीं कहते. मनुष्यता को बचाए रखने के लिए ऐसी पक्षधरता की सीखें आज कौन देगा. 

सूख गया भवानी दादा की यादों का जंगल

29 मार्च को भवानी दादा का जन्मदिन था. भवानी प्रसाद मिश्र यानी मन्ना को याद किया जाए तो आपको उनकी सतपुड़ा के जंगल वाली कविता बरबस याद आ जाती है. हालांकि उनका दायरा उतना भर नहीं है, लेकिन इस कविता को जिस उम्र में पाठ्यक्रम में पढ़ते हुए आप कक्षा से जंगल के बीच पहुंचते हैं, वह आपको ताउम्र याद रहती है. मेरा तो इससे करीब का नाता इसलिए भी रहा है, ​क्योंकि मेरे क्लासरूम से उन सतपुड़ा के जंगलों का फासला चंद किलोमीटर का ही रहा है. हमारे गांव से भवानी दादा के घर का फासला भी बहुत कम का रहा है. अलबत्ता सतपुड़ा के जंगलों की तरह ही सिमटते जाने की तरह दादा की यादें भी सिमटकर रह गईं. 

पिछले साल कुछ मीडिया संस्थानों की सजगता से रस्मअदायगी जैसे आयोजन भी हुए, पर इस साल तो यादों का जंगल पूरी तरह ही सूख गया. साहित्यकारों की नियति भी जैसे यही हो, बेपानी होते समाज के पास उनकी स्मृति को समेटने की ताकत भी इस दौर में नहीं बची. तभी तो तमाम घोषणाओं के बावजूद एक सृजन पीठ भी उनकी जन्म​स्थली पर नहीं बन पाई. सतपुड़ा की नदियां, सतपुड़ा के जंगल स्तब्ध हैं, और अपने सूखते जाने को देख रहे हैं.

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इस याद करने, न करने को लेकर भवानी भाई को कोई फर्क नहीं पड़ता. हां, उन्हें भूलकर हम जैसे लोगों को फर्क जरूर पड़ सकता है. इसलिए क्योंकि ऐसे विचारकों के ​जीवन प्रसंग हमारे लिए चाहें तो काम के हो सकते हैं, अलबत्ता इस भागादौड़ी और चकाचौंध की दुनिया में हमें भी तो भागते चले ही जाना है. इस अशांति का नतीजा तनाव और अवसाद के इलाज की दुकानों की बढ़ती संख्या के रूप में भी देखा जा सकता है. वह भवानी भाई ही थे जो यह भी कह गए कि ‘थोड़ी दरिद्रता आदमी को आदमी बनाए रखने में मददगार साबित होती है,’ इस जमाने में तो यह बात हम इंसानों को अटपटी ही लगेगी, आखिर कौन मूर्ख अपनी दरिद्रता की कामना करेगा. 

पर जब हम ऐसी रिपोर्ट पढ़ते हैं कि बड़ी आलीशान कार वाले लोग सड़क पर ज्यादा उद्दंडता करते हैं तो लगता है कि क्या वह सही नहीं कहते. मनुष्यता को बचाए रखने के लिए ऐसी पक्षधरता की सीखें आज कौन देगा. सीखें देने के लिए मिसालें भी तो खुद ही तैयार करनी होती हैं. जब आकाशवाणी की जमी-जमाई और अच्छी मानी जाने वाली नौकरी छोड़कर भवानी भाई ने गांधी वागमय के संपादन का काम चुन लिया तो कई मित्र हैरान थे. एक ने तो सवाल ही दाग दिया कि 'रेडियो छोड़कर यह नौकरी क्यों पकड़ ली?' उनका जवाब था 'वहां चहल-पहल थी, यहां शांति है. मैं शांतिप्रिय व्यक्ति हूं और काम शांति में ही हो सकता है.'

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अपने आसमान को श्रेष्ठ-सर्वश्रेष्ठ साबित करने वालों को भी भवानी भाई से थोड़ी सीख तो ले ही लेनी चाहिए कि असाधारण होकर भी एक साधारण की तरह कैसे शांति से जिया जा सकता है. दूसरा सप्तक के कवि वक्तव्य में वह खुद अपने बारे में लिखते हैं गौर कीजिएगा 'छोटी सी जगह रहता था, छोटी सी नर्मदा के किनारे, छोटे से पहाड़ विंध्याचल के आंचल में. छोटे—छोटे साधारण लोगों के बीच. एकदम घटनाविहीन अविचित्र मेरे जीवन की कथा है. साधारण पढ़ा-लिखा और काम जो भी किए वे भी असाधरण से अछूते. मेरे आसपास के तमाम लोगों की सी सुविधाएं, असुविधाएं भी मेरी.'

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एक कवि का अपने आसपास और अपने लोगों से साधारण भाषा में असाधारण जुड़ाव केवल भवानी भाई की कविता में ही नहीं उनके जीवन में भी दिखता है. क्या भवानी भाई की कविताएं पढ़कर हम दिनोंदिन कटती राह से वापस मुड़कर पीछे नहीं जा सकते. क्या हम उनकी चुनौती को समझ सकते हैं जो वह कहते हैं कि 

'बन सके तो धंसो इनमें,
धंस न पाती हवा जिनमें,' 

पर इसी कविता में वह यह भी तो कहते हैं...

धंसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले.
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चांद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियां,
खिल रहीं अज्ञात कलियां,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल.

लंबी कविता की यह अंतिम पंक्तियां हैं. सचमुच दुनिया को इतना खूबसूरत होना चाहिए. क्या हमारा समाज एक कवि की अप्रतिम हरीतिमा को बचाए रखने का जतन करेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

 

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